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________________ वज्रजंघ वड्ढमानचरिउ वज्रबाहु-१. प. पु./२१/श्लो.-सुरेन्द्रमन्युका पुत्र ७७१ ससुराल जाते समय मार्गमें मुनियोके दर्शनकर विरक्त हो गये ।१२१-१२३। यह सुकौशल मुनिका पूर्वज था। २. म पु /सर्ग/श्लो.-बनजंघ (भगवान् ऋषभदेवका पूर्वका सातवाँ भव ) का पिता था। (६/२९) । पुष्कलावती देशके उत्पलखेट नगरका राजा था। (६२८) अन्त में दीक्षित हो गये थे। (८/५१-५७) । ०००० ००० ०० वज्रमध्य वतह पु/३४/६२-६३-रचनाके अनुसार ५,४,३,२,१,२,३, ४.५ के क्रमसे २६ उपवास करे। बीचकह स्थानोमें पारणा करे। ०० ०००० ००००० ० व्रत विधान संग्रह/पृ. ८१-रचनाके अनुसार १,२,३,४, १.५,४,३,२ के क्रमसे २६ उपवास करे। बोचके है स्थानोमे पारणा करे । नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। ००० ० ०००० जान शान्त हो गया। मुनिराजके उपदेशसे श्रावकवत अगीकार किये। पानी पीनेके लिए एक तालाबमें घुसा तो कीचडमें फंस गया। वहाँ पुन, कमठके जीवने सर्प बनकर डॅस लिया। तब वह मरकर सहवार स्वर्ग में देव हुआ।१६-२४। यह पार्श्वनाथ भगवानका पूर्वका आठवॉ भव है।-विशेष दे० पार्श्वनाथ । वनजंघ-१. म. पु/सर्ग/श्लो.-"पुष्कलावती देशके उत्पलखेट नगरके राजा वज्रवाहका पुत्र था। (६/२६)। पूर्वके देव भवकी देवी स्वय प्रभामे अत्यन्त अनुरक्त था । (६४८) । श्रीमतीका चित्र देखकर पूर्व भव स्मरण हो आया। (७/१३७-१४०)। और उसका पाणिग्रहण किया। (७/२४६)। ससुरके दीक्षा लेनेपर ससुराल जाते समय मार्गमें मुनियोको आहार दान दिया। (८) १७३)। एक दिन शयनागारमें धूपघटोके सुगन्धित धूऍसे दम घुट जानेके कारण अकस्मात् मृत्यु आ गयी। (६/२७)। पात्रदानके प्रभावसे भोगभूमिमें उत्पन्न हुआ। (८/३३)। यह भगवान् ऋषभदेवका पूर्वका सातवाँ भव है। (दे० ऋषभदेव) । २. प.पू./सर्ग/श्लोक-पुण्डरीक पुरका राजा था। (१७/१८३)। राम द्वारा परित्यक्त सीताको वनमे देख उसे अपने घर ले गया ! (६/१-४)। उसी के घर पर लव और कुश उत्पन्न हुए। (१००/१७-१८) । वज्रदंत-म पु./सर्ग/श्लोक-पुण्डरी किणी नगरका राजा था। (६/५८)। पिता यशोधर केवलज्ञानी हुए। (६/१०८)। वहाँ ही इन्हे भी अवधिज्ञानको उत्पत्ति हुई । (६/११०) । दिग्विजय करके लौटा। (६/११२-१६४)। तो अपनो पुत्री श्रीमतीको बताया कि तीसरे दिन उसका भानजा वज्रजंघ आयेगा और चह ही उसका पति होगा। (७/१०५) । अन्तमें अनेको रानियों व राजाओके साथ दीक्षा धारण की। (८/६४-८५)। यह वज्रजंघका ससुर था। -दे० बज्रजघ। वज्जनंदि-१. नन्दिस के बलात्कारगणकी गुर्वावलीके अनुसार आप गुणनन्दिके शिष्य तथा कुमारनन्दिके गुरु थे। समय-विक्रम शक सं. ३६४-३८६ ( ई. ४४२-४६४)। -(दे० इतिहास/७/२) । २. आ. पूज्यपादके शिष्य थे। गुरुसे बिगडकर द्रविडसघकी स्थापना की। हरिव शपुराण (ई ७८३) में आपके वचन गणधरतुल्य कहे गए है । कृतिय -- नवस्तोत्र, प्रमाण ग्रन्थ । समय-वि. श. ६। (दे. इतिहास/७/१); (ती./२/४५०; ३/२-६) । वज्रनाभि-१ म. पु./सर्ग/श्लो, न,-पुण्डरीकिणीके राजा बज्र सेनका पुत्र था। (११/०१)1 चक्ररत्न प्राप्त किया। (११/३८-५५)। अपने पिता बज्रसेन तीर्थकरके समीप दीक्षा धारण कर (१९/६५६२)। तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया (११/७९-८०)। प्रायोपगमन सन्यासपूर्वक। (११/१४)। श्रीप्रभ नामक पर्वतपर उपशान्तमोह गुणस्थानमें शरीरको त्याग सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुए। (१९४११०-१११ )। यह भगवान् ऋषभदेवका पूर्व का तीसरा भव है। -दे० ऋषभदेव। २. म. पु./७३/श्लो. नं.-पद्म नामक देशके अश्वपुर नगरके राजा वज्रवीर्यका पुत्र था। २६-३२ । संयम धारण किया ।३४-३५॥ पूर्व भवके वैरी कमठके जीव कुर ग भीलके उपसर्ग ।३८-३६ को जीतकर सुभद्र नामक मध्यम ग्रेवेयकमें अहमिन्द्र हुए।४०। यह भगवान पार्श्वनाथका पूर्वका चौथा भव है।-दे० पार्श्वनाथ। वज्रमूक-सुमेरु पर्वतका अपर नाम-दे० सुमेरु । वज्रवर-मध्यलोकमें अन्तका अष्टम सागर व द्वीप।-दे० लोका॥१ वज्रवान--गन्धर्व जातिके व्यन्तर देवोका एक भेद-दे० गन्धर्व । वजश्रृंखला-एक विद्या-दे० विद्या। २. भगवान् अभिनन्दन नाथ की शासक यक्षिणी। -दे० तीथंकररा५/३ । वज्राकुशा-१ एक विद्या-दे० विद्या। २. भगवान सुमतिनाथको शासक यक्षिणी-दे० तीर्थकर//३ । वज्राढय-विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । वज्रायुध-१.म. पु./६३/श्लो-पूर्व विदेहके रत्नसचय नामक नगर के राजा क्षेमकरका पुत्र था।३७-३६। इन्द्रकी सभामें इनके सम्यग्दर्शनकी प्रशसा हुई। एक देव बौद्धका रूप धर परीक्षाके लिए आया ४८,५०1 जिसको इन्होने बादमें परास्त कर दिया ६९-७०। एक समय विद्याधनने नागपाशमें बाँधकर इन्हे सरोवरमें रोक दिया और ऊपरसे पत्थर ढक दिया। तब इन्होंने मुष्टिप्रहारसे उसके टुकडे कर दिये ।२-८५४ दीक्षा ले एक वर्षका प्रतिमायोग धारण किया। ।१३१-१३२। अधोग वेयकमें अहमिन्द्र हुए।१४०-१४१। यह शान्तिनाथ भगवान के पूर्वका चौथा भव है। दे० शान्तिनाथ । २. म. पु, ॥५६॥ श्लो-जम्बूद्वीपके चक्रपुर नगरके स्वामी राजा अपराजितका पुत्र था ।२३। राज्य प्राप्ति ।२४५॥ दीक्षा धारण ।२४६। प्रिगुवनमें एक भील कृत उपसर्गको सहनकर सर्वार्थसिद्धिमें देव हुए ।२७४। भील सातवे भरकमें गया ।२७६। सजयन्त मुनिके पूर्वका दूसरा भव है -दे० संजयन्त। वज़ार्गल विजयाधको दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । वज्रार्धतर-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। वट्टकर-'मूलाचार' के कर्ता जिन्हे कुछ विद्वान् कुन्दकुन्द का अपर नाम समझते है। आप दक्षिण देशस्थ वेट्टगिरि' ग्राम के निवासी थे । समय-कुन्दकुन्द के समकालीन होने से वी. नि.६५४ ७०६ (ई. १२७-१७६) । (ती/२/११७-१२०) । वढमाणचरिउ-कवि श्रीधर (वि. श १२ का उत्तरार्ध) कृत १० सन्धियो वाला अपभ्रश काव्य । (ती./४/१४२) । वज्र नाराच-दे० संहनन । वज्र पंजर विधान-दे० पूजापाठ । वज्रपुर-भरतक्षेत्रका एक नगर ।-दे० मनुष्य/४ । वज्रप्रभ-कुण्डल पर्वतका एक कूट-दे० लोक/१/१२ / जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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