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________________ पर्याप्ति २. पर्याप्ति निर्देश व तत्सम्बन्धी शंकाएँ ३. कितनी पर्याप्ति पूर्ण होनेपर पर्याप्त कहलाये ध. १/१,१,७६/३१५/१० किमेकया पर्याप्त्या निष्पन्न उत साकल्यैन निष्पन्न इति' शरीरपर्याप्दया निप्पन्न पर्याप्त इति भण्यते। प्रश्न-(एकेन्द्रियादि जीव अपने-अपने योग्य छह, पाँच, चार पर्याप्तियोमेंसे) किसी एक पर्याप्तिसे पूर्णताको प्राप्त हुआ पर्याप्तक कहलाता है या सम्पूर्ण पर्याप्तियोसे पूर्णताको प्राप्त हुआ पर्याप्तक कहलाता है ? उत्तर-सभी जीव शरीर पर्याप्तिके निष्पन्न होनेपर पर्याप्तक कहे जाते है। ४. विग्रह गतिमें पर्याप्त कहें या अपर्याप्त ध, १/१,१,६४/३३४/४ अथ स्याद्विग्रहगतौ कार्मणशरीराणी न पर्याप्तिस्तथा पर्याप्तीना षण्णां निष्पत्तेरभावात् । न अपर्याप्तास्ते आरम्भात्प्रभृति आ उपरमादन्तरालावस्थायामपर्याप्तिव्यपदेशात् । न चानारम्भकस्य स व्यपदेश. अतिप्रसङ्गात् । ततस्तृतीयमप्यवस्थान्तर वक्तव्यमिति नैष दोष., तेषामपर्याप्तेष्वन्तर्भावात् । नातिप्रसङ्गोऽपि कामणशरीरस्थितप्राणिनामिवापर्याप्तकै सह सामाभावोपपादैकान्तानुवृद्धियोगैर्गत्यायु प्रथमद्वित्रिसमयवर्त नेन च शेषप्राणिनां प्रत्यासत्तेरभावात्। ततोऽशेषस सारिणामवस्थाद्वयमेव नापरमिति स्थितम् । प्रश्न-विग्रह गतिमें कार्मण शरीर होता है, यह बात ठीक है। किन्तु वहॉपर कार्मणशरीरवालोके पर्याप्ति नही पायी जाती है, क्योकि, विग्रहगतिके काल में छह पर्याप्तियोकी निष्पत्ति नहीं होती है। उसी प्रकार विग्रहगतिमें वे अपर्याप्त भी नहीं हो सकते है, क्योकि, पर्याप्तियोके आरम्भसे लेकर समाप्ति पर्यन्त मध्यकी अवस्थामे अपर्याप्ति यह संज्ञा दी गयी है। परन्तु जिन्होने पर्याप्तियोका आरम्भ ही नहीं किया है ऐसे विग्रह गति सम्बन्धी एक दो और तीन समयवर्ती जीवोको अपर्याप्त संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकती है, क्योकि ऐसा मान लेनेपर अतिप्रसग दोष आता है इसलिए यहाँ पर्याप्त और अपर्याप्तसे भिन्न कोई तीसरी अवस्था ही कहना चाहिए। उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्योकि ऐसे जीवोका अपर्याप्तोंमें ही अन्तर्भाव किया है, इससे अतिप्रसग दोष भी नही आता है, क्योकि कार्मण शरीरमें स्थित जीवोके अपर्याप्तकों के साथ सामाभाव, उपपादयोगस्थान, एकान्तवृद्धियोगस्थान और गति तथा आयु सम्बन्धी प्रथम, द्वितीय और तृतीय समयमे होनेवाली अवस्थाके द्वारा जितनी समीपता पायी जाती है, उतनी शेष प्राणियोके नहीं पायी जाती है। अत' सम्पूर्ण प्राणियोकी दो अवस्थाएँ ही होती हैं। इनसे भिन्न कोई तीसरी अवस्था नहीं होती है। ५. निवृति अपर्याप्तको पर्याप्त कैसे कहते हो ध. १/१,१.३४/२५४/१ तदुदय (पर्याप्तिनामकर्मोदय ) वतामनिष्पण शरीराणा कथं पर्याप्तव्यपदेशो घटत इति चेन्न, नियमेन शरीरनिष्पादकानां भाविनि भूततदुपचारतस्तदविरोधात् पर्याप्तनामकर्मोदयसहचराद्वा। प्रश्न-पर्याप्त नामकर्मोदयसे युक्त होते हुए भी जब तक शरीर निष्पन्न नही हुआ है तबतक उन्हे (निवृत्ति अपर्याप्त जीवोको) पर्याप्त कैसे कह सकते है । उत्तर - नहीं, क्योकि, नियमसे शरीरको उत्पन्न करनेवाले जीवोके, होनेवाले कार्यमे यह कार्य हो गया, इस प्रकार उपचार कर लेनेसे पर्याप्त संज्ञा कर लेने में कोई विरोध नही आता है। अथवा, पर्याप्त नामकर्म के उदयसे युक्त होनेके कारण पर्याप्त संज्ञा दी गयी है। ६. इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण हो जानेपर भी बाह्यार्थका ग्रहण क्यों नहीं होता घ. १/१,१,३४/२५५/५ न चेन्द्रियनिष्पत्तौ सत्यामपि तस्मिन् क्षणे बाह्यार्थ विषयविज्ञानमुत्पद्यते तदा तदुपकरणाभावात् । = इन्द्रिय पर्याप्तिप्तर्ण हो जानेपर भी उसी समय बाह्य पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि उस समय उसके उपकरण रूप द्रव्ये - न्द्रिय नही पायी जाती है। ७. पर्याप्ति व प्राणों में अन्तर १. सामान्य निर्देश ध. १/१,१,३४/२५६-२५७/२ पर्याप्तिग्राणयो' को भेद इति चेल, अनयोहिमवद्विन्ध्ययोरिव भेदोपलम्भात् । यत आहारशरीरेन्द्रियानापानभाषामन-शक्तीना निप्पत्ते' कारणं पर्याप्तिः। प्राणीति एभिरास्मेति प्राणा' पञ्चेन्द्रियमनोवाकायानापानायषि इति ।२५६। पर्याप्तिप्राणाना नाम्नि विपत्तिपत्तिर्न वस्तुनि इति चेन, कार्यकारणयोभैंदात, पर्याप्तिष्वायुषोऽसत्त्वान्मनोवागुछ वासप्राणानामपर्याप्तिकालेऽसत्त्वाच्च तयोर्भेदात् । तत्पर्याप्तयोऽप्यपर्याप्तकालेन सन्तीति तत्र तदसत्त्वमिति चेन्न, पर्याप्तीनामर्धनिष्पन्नावस्था अपर्याप्ति', ततोऽस्ति तेषा भेद इति । अथवा जीवनहेतुत्वं तत्स्थमनपेक्ष्य शक्ते निष्पत्तिमात्रं पर्याप्तिरुच्यते, जीवनहेतवः पुनः प्राणा इति तयोर्भेद । -प्रश्न-पर्याप्ति और प्राण में क्या भेद है ? उत्तरनही, क्योंकि, इनमें हिमवान और विन्ध्याचलके समान भेद पाया जाता है। आहार, शरीर, इन्द्रिय भाषा और मनरूप शक्तियोंकी पूर्ण ताके कारणको पर्याप्ति कहते है। और जिनके द्वारा आत्मा जीवन संज्ञाको प्राप्त होता है उन्हे प्राण कहते है, यही इन दोनोमें अन्तर है ।२५६। प्रश्न-पर्याप्ति और प्राणके नाममें अर्थात कहने मात्रमें अन्तर है, वस्तुमें कोई विवाद नहीं है, इसलिए दोनोका तात्पर्य एक ही मानना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योंकि कार्य कारणके भेदसे उन दोनोमें भेद पाया जाता है, तथा पर्याप्तियोंमे आयुका सद्भाष नही होनेसे और मन, वचन, बल तथा उच्छ बास इन प्राणोंके अपर्याप्त अवस्थामे नही पाये जानेसे भी पर्याप्ति और प्राणोमें भेद समझना चाहिए । प्रश्न-वे पर्याप्तियाँ भी अपर्याप्त काल में नहीं पायी जाती है, इससे अपर्याप्त काल में उनका (प्राणोंका) सद्भाव नहीं रहेगा। उत्तर-नही, क्योकि, अपर्याप्त कालमे अपर्याप्त रूपसे उनका (प्राणोंका ) सद्भाव पाया जाता है। प्रश्न- अपर्याप्त रूपसे इसका तात्पर्य क्या है ? उत्तर-पर्याप्तियोंकी अपूर्णताको अपर्याप्ति कहते है, इसलिए पर्याप्ति, अपर्याप्ति और प्राण इनमें भेद सिद्ध हो जाता है। अथवा इन्द्रियादिमे विद्यमान जोवनके कारणपनेकी अपेक्षा न करके इन्द्रियादि रूप शक्तिकी पूर्णता मात्रको पर्याप्ति कहते है और जीवनके कारण है उन्हें प्राण कहते है। इस प्रकार इन दोनों में भेद समझना चाहिए। (का, अ./टी./१४१/८०/१); (गो. जी./म.प्र/ ३४२/३४४/१४)। २. भिन्न-भिन्न पर्याप्तियोंकी अपेक्षा विशेष निर्देश ध.२/१,१/४१२/४ न (एतेषां इन्द्रियप्राणाणा) इन्द्रियपर्याप्तावन्तर्भावः, चक्षुरिन्द्रियाद्यावरणक्षयोपशमलक्षणेन्द्रियाणां क्षयोपशमापेक्षया बाह्यार्थग्रहणशक्त्युत्पत्तिनिमित्तपुद्गलप्रचयस्य चैकत्व विरोधात् । न च मनोबलं मन.पर्याप्तावन्तर्भवति, मनोवर्गणास्कन्धनिष्पन्नपुद्गलप्रचयस्य तस्मादुत्पन्नात्मबलस्य चैकत्वविरोधात। नापि वाग्बलं भाषापर्याप्तावन्तर्भवति; आहारवर्गणास्कन्धनिष्पन्नपुद्गलप्रचयस्य तस्मादुत्पन्नाया भाषावर्गणास्कन्धाना श्रोत्रेन्द्रिय ग्राह्यपर्यायेण परिणमनशक्तेश्च साम्याभावात् । नापि कायबलं शरीरपर्याप्तावन्तर्भवति; बीर्यान्तरायजनितक्षयोपशमस्य खलरसभागनिमित्तशक्तिनिबन्धनपुद्गलप्रचयस्य चैकत्वाभावात् । तथोच्छ्वासनिश्वासप्राणपर्याप्तयो कार्यकारणयोरात्मपुद्गलोपादानयोभेंदोऽभिधातव्य इति। उक्त (प्राणों सम्बन्धी) पाँचों इन्द्रियोका इन्द्रिय पर्याप्तिमें भी अन्तर्भाव नहीं होता है, क्योकि, चक्षु इन्द्रिय आदिको आवरण करनेवाले कमौके क्षयोपशम स्वरूप जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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