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________________ लिंग जल एवं साबुन आदिका आरम्भ करना पडता है, और इस अवस्थामें सयमका घात होना अवश्यम्भावी है । वस्त्रके नष्ट होनेपर महान् पुरुषों का भी मन व्याकुल हो जाता है, दूसरोंसे उसको प्राप्त करनेके लिए प्रार्थना करनी पड़ती है। केवल संगोटीका हो अपहरण हो जाये तो फटसे क्रोध होने लगता है इसलिए मुनिजन सदा पवित्र एव रागभावको दूर करनेके लिए दिग्मण्डल रूप अविनश्वर वस्त्रका आश्रय लेते है | ४१| रा. नाहि. /६/४६1०६६ जो वस्त्रादि ग्रन्थ करि संयुक्त है ते निर्मन्थ नाहीं जाते बाह्य परिग्रहका भाव हो तो बम्यन्तरके ग्रन्थका अभाव होय नाही । * द्रव्यलिंगी साधु के ज्ञानकी कथंचित् यथार्थता - दे० ज्ञान / १ । ४. जबरदस्ती वस्त्र उदानेसे साधुका लिंग मंग नहीं होता = स. सा./ता.वृ./४१४/५०८/१८ हे भगवन् । भावलिङ्ग े सति बहिरङ्ग द्रव्यलिङ्ग भवतीति नियमो नास्ति परिहारमाह- कोऽपि तपोधनो ध्यानरूद्धष्ठित नस्य केनापि दुष्टभावेन वस्त्र आभरणादिक वा कृत तथाप्यसौ निर्ग्रन्थ एव । कस्मात् । इति चेत, बुद्धिपूर्वकममत्वाभावात् । प्रश्न - हे भगवान् । भावलिगके होनेपर ब्रहिरंगद्रव्यलिग होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। उत्तर- इसका उत्तर देते है - जैसे कोई तपोधन ध्यानारूढ बैठा है। उसको किसी ने दुष्ट भावसे (अथवा करुणा भावसे) वस्त्र लपेट दिया अथवा आभूपण आदि पहना दिये तक भी वह निर्धन्य है, क्योंकि बुद्धि पूर्वक ममत्वका उनके अभाव है । " * कदाचित् परिस्थितिवश वस्त्र ग्रहणकी आज्ञा ५. दोनों लिंग परस्पर सापेक्ष हैं प्रसा / मृ. / २०७ आदाय त पि लिंग गुरुणा परमेण तं णमंसिता । सोच्या सवई किरिये दो होदितो समणो |२००१ -परम गुरुके द्वारा प्रदत्त उन दोनों लिंगोंको ग्रहण करके, उन्हें नमस्कार करके, व्रत सहित क्रियाको सुनकर उपस्थित ( आत्माके समीप - स्थित ) होता हुआ वह श्रमण होता है ॥२०७॥ - दे० अचेलकत्व | ४२० भा.पा./टी./०३/२१६/२२ भावलिङ्ग ेन द्रव्यलिङ्ग' द्रव्यलिङ्ग ेन भावलिङ्ग' भवतीत्युभयमेव प्रमाणी एकान्तमतेन तेन सबै नष्ट भय तीति दिया और मलिनसे भाव लिंग होता है इसलिए दोनोको ही प्रमाण करना चाहिए। एकान्त मत से तो सर्व नष्ट हो जाता है ऐसा जानना चाहिए । ६. भाव सहित ही द्रव्यलिंग सार्थक है - भाषा / १३ भाषण होइ ग्ो मिसाई दोस उपा दव्वेण मुणी पयडदि लिगं जिणाणाए |७३ | = पहले मिथ्यात्वादि दोषोको छोड़कर भावसे अन्तरंग नग्न होकर एक शुद्धात्माका श्रद्धान-ज्ञान व आचरण करे पीछे द्रव्यसे बाह्य लिंग जिन आज्ञासे प्रकट करे यह मार्ग है । ७३॥ दे लिग / ३ / २ (अन्तर शुद्धिको प्राप्त होकर चार प्रकार बाह्यलिंगका सेवन कर, क्योंकि भावरहित व्यतिग कार्यकारी है) गोसा अ/५/२०५८ मानिवृतस्य नास्ति निर्वृ तिरेनसा | भागतोऽस्ति वृत्तस्य तात्विक संवृति पुन ५०० विज्ञायति निराकृत्य निवृत्ति द्रव्यतस्त्रिधा । भाव्य भावनिवृतेन समस्तै नोनिषिद्धये |5| जो केवल द्रव्यरूपसे विषयोंसे Jain Education International दया निवृत्त है उनके पापोंकी निवृत्ति नहीं, किन्तु भाव रूपसे निवृत्त है उन्ही के कर्मोंका संबर है। ग्रभ्य और भावरूप निवृत्तिका भ प्रकार स्वरूप जानकर मन, वच, कायसे विषयोंसे निवृत्त होकर पापों के नाशार्थ भाव रूपसे विषयोंसे निवृत्त होना चाहिए स. सा./ता.वृ./११/५००/१० भावलिङ्गसहितं निर्मण्ययति सिंह.... गृहिलिङ्ग सेति प्रयमपि मोक्षमार्गे व्यवहारनयो मन्यते । - भावलिग सहित निर्ग्रन्थ यतिका लिंग तथा गृहस्थका लिंग है । इसलिए दोनोंको (द्रव्य-भाव ) ही मोक्षमार्ग में व्यवहार नयसे माना गया है। भा पा/प. जयचन्द / २ मुनि श्रावकके द्रव्य तै पहले भावलिंग होय तो सच्चा मुनि श्रावक होय । लिंगजभुतज्ञान ३०] [भुतज्ञान/ लिंगपाहुड़-आ० कुन्दकुन्द १० १२०-१०६) साधु भाव लिगका प्ररूपक २२ ( प्रा० ) गाथा निबद्ध ग्रन्थ है। इसमे केवल प जयचन्द छावडा ( ई० १८६७) कृत भाषा वचनिका उपलब्ध है 1 (ती० २/११४) । लिंग व्यभिचार-दे० नय/III/t/s ६ लिंग शुद्धि - ३० शुद्धि | लिपि संख्यात क्रिया - दे० सस्कार / २ | लिप्त आहारका एक दोष- दे० आहार / II / ४ / ४ । लोख -- क्षेत्रका प्रमाण विशेष - दे० गणित / I/१/३ | लीला विस्तार टीका - श्वेताम्बराचार्य श्री हरिभद्र सूरि ( ई० ४८०-५२८) द्वारा रचित एक ग्रन्थ है । लंका- गुजरात देश में 'अणहिल' नगर मे कुलुम्बी वंशीय एक महामानी हुआ जिसने लंकामत ( ढुंढिया मत ) चलाया। समय - वि० १५२७ ( भद्रबाहु चरित / १५७ - १५८ ) । लुंकामत - - इंढिया या स्थानकवासी मतका अपर नाम - दे० श्वेताम्बर । लेप आहारका एक भेद ३० आहार //१२ ला ४/२/१० पस्तु ते लाभ्यङ्गादिव यत् । = तेल मर्दन करना, उबटन लगाना आदि लेप कहे जाते है । लेपकर्म-दे०/४ लेवड़ - १. आहारका एक भेद - दे० आहार / I / १ । २ भ आ / वि. ७००/८८२/७ दध्यादि । अव अपसहित यन हस्ततलं विलिम्पति | = लेवड जो हाथमे चिपकता है ऐसा पतला पदार्थ दही वगैरह। अलेवड हाथमे न चिपकने वाला मोड ताक वगैरह । लेश्या – कषायसे अनुरंजित जीवकी मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति भाव लेश्या कहलाती है । आगम में इनका कृष्णादि छह रगो द्वारा निर्देश किया गया है। इनमें से तीन शुभ व तीन अशुभ होती है। राग व कषायका अभाव हो जानेसे मुक्त जीवोको लेश्या नहीं होतो । शरीरके रंगको द्रव्यलेश्या कहते है । देव व नारकियोमे द्रव्य व भाव लेश्या समान होती है, पर अन्य जीवोमे इनकी समानताका नियम नही है । द्रव्यलेश्या आयु पर्यन्त एक ही रहती है पर भाव लेश्या जीवो के परिणामो के अनुसार बराबर बदलती रहती है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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