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________________ रौरव ४०९ लक्षण उष्णता आत्मभूत लक्षण है और दण्डी पुरुषका मेदक दण्ड अनात्म ७. देशव्रतीको कैसे सम्मव है स, सि./६/३५/४४८/८ अविरतस्य भवतु रौद्रध्यान, देश विरतस्य कथम् । तस्यापि हिसाधावेशाद्वित्तादिसंरक्षणतन्त्रत्वाच्च कदाचित भवितुमह ति। तत्पुनरिकादीनामकारण; सम्यग्दर्शनसामात् ।-प्रश्नरौद्रध्यान अविरतके होओ, देशविरतके कैसे हो सकता है। उत्तर-- हिंसादिके आवेशसे या वित्तादिके सरक्षणके परतन्त्र होनेसे कदाचित उसके भी हो सकता है। किन्तु देश विरतके होनेवाला रौद्रध्यान नरकादि दुर्गतियोंका कारण नही है, क्योंकि सम्यग्दर्शनकी ऐसी ही सामर्थ्य है । (रा. वा./६/३५/३/६२६/१६). (ज्ञा./२६/३६ भाषा)। 4. साधुको कदापि सम्भव नहीं स सि /६/३५/४४८/१० संयतस्य तु न भवत्येव, तदारम्भे संयमप्रच्युते । - परन्तु यह सयतके तो होता ही नही है, क्योकि उसका आरम्भ होनेपर सयमसे पतन हो जाता है। (रा. वा./६/३५/४/६२६/२२ ) । रौरव-पहले नरकका तीसरा पटल-दे० नरक/५/११ । रोरुक-प्रथम पृथिवीका तीसरा पटल-दे० नरका/११ ॥ न्या. दी/१/४/६/४ द्विविधं लक्षणम्, आत्मभूतमनात्ममूत चेति । तत्र यद्वस्तुस्वरूपानुप्रविष्ट तदात्मभूतम, यथाग्नेरौष्ण्यम्। औष्ण्यं ह्यग्ने स्वरूप सदग्निमवादिभ्यो व्यावर्त्तयति । तद्विपरीतमनात्मभूतम्, यथादण्ड पुरुषस्य। दण्डिनमानयेत्युक्ते हि दण्ड पुरुषाननुप्रविष्ट एव पुरुष व्यावर्त्तयति।लक्षणके दो भेद है-आत्मभूत और अनात्मभूत । जो वस्तुके स्वरूपमें मिला हुआ हो उसे आत्मभूत लक्षण कहते है जैसे अग्निकी उष्णता। यह उष्णता अग्निका स्वरूप होती हुई अग्निको जलादि पदार्थोसे जुदा करती है। इसलिए उष्णता अग्निका आत्मभूत लक्षण है। जो वस्तुके स्वरूपमें मिला हुआ न हो उससे पृथक् हो उसे अनारमभूत लक्षण कहते है। जैसे-दण्डीपुरुषका दण्ड । दण्डीको लाओ ऐसा कहनेपर दण्ड पुरुषमें न मिलता हुआ ही पुरुषको पुरुषभिन्न पदार्थोसे पृथक करता है। इसलिए दण्ड पुरुषका अनात्मभूत लक्षण है। ३. लक्षणाभास सामान्यका लक्षण न्या. दी/१/५/७/२२ की टिप्पणी सदोषलक्षणं लक्षणाभासम् । -मिथ्या-अर्थात सदोष लक्षणको लक्षणाभास कहते है। लंका-रावणके पूर्वज मेघवाहनको राक्षसोके इन्द्र ने उसकी रक्षार्थ यह लंका नामका द्वीप प्रदान किया था। यह त्रिकूटाचल पर्वतको तलहटीमे है । ( प पू./५/१५७) 1 लंब संक्षेत्र-Right Prism. ( ज प./प्र.१०८) । लंबित-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१। लक्खण-वि श १३ मै अणुक्य रयण पईवके रचयिताएक अपभ्रंश कवि थे। ( हि जै. सा इ./३० कामता)। लक्षणरा वा /२/८/२/११६/६ परस्परयतिकरे सति येनान्यत्व लक्ष्यते तल्लक्षणम् ।२। परस्पर सम्मिलित बस्तुओंसे जिसके द्वारा किसी वस्तुका पृथक्करण हो वह उसका लक्षण होता है। न्या वि/टी/१/३/५/५ लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम् । = जिसके द्वारा पदार्थ लक्ष्य किया जाये उसको लक्षण कहते है। ध/७/२,१.११/84/३ कि लक्षणं । जस्साभावे दव्यस्साभावी होदि त तस्स लक्षण, जहा पोग्गलदव्वस्स रूव-रस-गंध-फासा, जीवस्स उबजोगो। जिसके अभावमें द्रव्यका भी अभाव हो जाता है, वहीं उस द्रव्यका लक्षण है। जैसे-पृद्गल द्रव्यका लक्षण रूप, रस, गन्ध और, जोबका उपयोग। न्या. दी /१/३/५/६ व्यतिकीर्ण-वस्तुव्यावृत्तिहेतुलक्षणम् । मिली हुई बस्तुओमेसे किसी एक वस्तुको अलग करनेवाले हेतुको (चिह्नको) लक्षण कहते है। दे गुण /१/१ ( शक्ति लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, प्रकृति, शोल, आकृति और अग एकार्थवाची है।। न्या सू/टो /१/१/२/८/७ उद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवच्छेदको धर्मो लक्षणम् । -- उद्दिष्ट ( नाम मात्रसे कहे हुए ) पदार्थके अयथार्थ (विपरीत या असत्य ) बोधके निवारण करने वाले धर्मको लक्षण कहते है। २. लक्षणके भेद व उनके लक्षण रा वा /२//३/११/११ तल्लक्षणं द्विविध-आरमभ्रतमनात्मभूत चेति । तत्र आत्मभूतमग्नेरौष्प यम्, अनात्मभूतं देवदत्तस्य दण्ड । लक्षण आत्मभूत और अनात्मभृतके भेदसे दो प्रकार होता है। अग्निकी ४. लक्षणाभासके भेद व उनके लक्षण न्या./दी /९/8/9/५ त्रयोलक्षणाभासभेदा' -अव्याप्तमतिव्याप्तमसंभव चेति । तत्र लक्ष्यैकदेशवृत्त्यव्याप्तम. यथा गो शावलेयत्वम् । लक्ष्यालक्ष्यवृत्त्यतिव्याप्तम्, यथा तस्यैव पशुत्वम् । बाधितलक्ष्यवृत्त्यसभवति, यथा नरस्य विषाणित्वम् । लक्षणाभासके तीन भेद हैअव्याप्त. अतिव्याप्त, और असम्भवि । ( मोक्ष पंचाशत । १४ ) लक्ष्य के एक देशमे लक्षणके रहने को अव्याप्त लक्षणाभास कहते है। जैसेगायका शावलेयत्व। शावलेयत्व सब गायोमे नहीं पाया जाता वह कुछ ही गायोका धर्म है, इसलिए अव्याप्त है। लक्ष्य और अलक्ष्य में लक्षणके रहनेको अतिव्याप्त लक्षणाभास कहते है। जैसे गायका ही पशुत्व लक्षण करना । यह पशुत्व गायके सिवाय अश्वादि पशुओं में भी पाया जाता है इस लिए पशुत्व अतिव्याप्त है। जिसकी लक्ष्यमे वृत्ति बाधित हो अर्थाद जो लक्ष्यमे बिलकुल ही न रहे वह असम्भवि लक्षणाभास है। जैसे—मनुष्यका लक्षण सीग। सीग किसी भी मनुष्यमे नही पाया जाता। अत वह असम्भवि लक्षणाभास है। ( मोक्षपचाशत/१५-१७ )। मोक्षपचाशत/१७ लक्ष्ये त्वनुपपन्नत्वमसंभव इतीरित । यथा वर्णादि युक्तरवमसिद्धं सर्वथात्मनि । लक्ष्य में उत्पन्न न होना सो असम्भव दोषका लक्षण है, जैसे आत्मामें वर्णादिकी युक्ति प्रसिद्ध है। ५. आत्मभूत लक्षणकी सिद्धि रा. वा./२/८/८-६/११६/२४ इह लोके यद्यदात्मकं न तत्तेनोपयुज्यते यथा क्षीर क्षीरात्मक न तत्तेनैवात्मनोपयुज्यते। जीव एव ज्ञानादनन्यत्वे सति ज्ञानात्मनोपयुज्यते । आकाशस्य रुपाद्य पयोगाभाववत। आत्मापि ज्ञानादिस्वभावशक्तिप्रत्ययवशात घटपटाद्याकारावग्रहरूपेण परिणमतीत्युपयोग सिद्ध । - प्रश्न-जैसे दूधका दूध रूपसे परिणमन नहीं होता किन्तु दही रूपसे होता है । उसीतरह ज्ञानात्मक आत्माका ज्ञानरूपसे परिणमन नहीं हो सकेगा। अत' जीवके ज्ञानादि उपयोग नहीं होना चाहिए । उत्तर-चू कि आत्मा और ज्ञान में अभेद है इसलिए उसका ज्ञान रूपसे उपयोग होता है। आकाशका सर्वथा भिन्न रूपादिक रूपसे उपयोग नही देखा जाता। ज्ञान पर्यायके अभिमुख जीत्र भी ज्ञान व्यपदेशको प्राप्त करके स्वयं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०३-.५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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