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________________ परिषह ३. शंका समाधान होनेवाला क्षुधा, पिपासा और वध, इस प्रकार चौदह परिषह होती है। इन्द्रिय और कायमार्गणामें सब परिषह होती है। वैक्रियक और वैक्रियकमिश्रमे देवगतिकी अपेक्षा देवगतिके अनुसार और तिर्यच मनुष्यों की अपेक्षा बाईस होती है। शेष योग मार्गणा तथा वेदादि सब मार्गणाओमें अपने-अपने गुणस्थानों की अपेक्षा लगा लेना चाहिए। ४. गुणस्थानोंकी अपेक्षा परिषहोंकी सम्भावना (त. सू./४/१०-१२); (स सि./४/१०-१२/४२८.४३१); (रा.वा./६/१० १२/६१३-६१४ ); ( चा.सा./१३०-१३२) । परिषहोंके कारणभूत कर्मों का निर्देश त.सू./३/१३-१६ ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥ १३ ॥ दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥ १४ ॥ चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्कारा ॥ १५॥ वेदनीये शेषा. ॥१६॥ = ज्ञानावरणके सद्भावमें प्रज्ञा और अज्ञान परिषह होते है । १३ ॥ दर्शनमोह और अन्तरायके सद्भावमे क्रमसे अदर्शन और अलाभ परिषह होते है ॥१४॥ चारित्रमोहके सद्भावमें नाग्न्य, अरति, स्त्री,निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार-पुरस्कार परिषह होते है ॥ १५॥ बाकीके सब परिषह वेदनीयके सद्भावमें होते है ।। १६ ॥ (चा.सा./१२६/३) । * परिषह आनेपर वैराग्य भावनाओंका भाना भी कथंचितू परिषहजय है।-दे०अलोभ, आक्रोश व बध परिषह । असम्भव गुण- गुणकी स्थान विशे० १-७ /सामान्य चा.सा. सम्भव भवा सम्भव गुण-गुणकी। प्रमाण स्थान विशे० २२१ १२ सामान्य चा.सा. क्षुधा, ११ पिपासा, अदर्शन ८ , . , शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या , बध, सवेद चा सा. अदर्शन,२० | अरति ७. परिषह जयका कारण व प्रयोजन त सू/8/- मार्गाच्यवननिर्जरा परिषोढव्याः परीषहा । स. सि /E/८/४१७/१३ जिनोपदिष्टान्मार्गादप्रच्यवमानास्तन्मार्गपरिक्रमणपरिचयेन कर्मागमद्वारं संवृण्वन्त औपक्रमिक कर्म फलमनुभवन्तः क्रमेण निर्जीर्ण कर्माणो मोक्षमाप्नुवन्ति । -जिनदेवके द्वारा कहे हुए मार्ग से नहीं च्युत होनेवाले, उस मार्गके सतत अभ्यास रूप परिचयके द्वारा कर्मागम द्वारको संवृत करनेवाले तथा औपक्रमिक कर्मफलको अनुभव करनेवाले क्रमसे कर्मोंकी निर्जरा करके मोक्षको प्राप्त होते है। अन ध/६/८३ दुखे भिक्षुरुपस्थिते शिवपथाइभ्रस्यत्यदु.खाश्रितात् तत्सन्मार्गपरिग्रहेण दुरितं रोद्धू मुमुक्षुर्नवम्। भोक्तु च प्रतपनक्षुदादिवपुषो द्वाविंशति वेदना', स्वस्थो यत्सहते परीषहजय साध्य' स धोरै परम् ॥ ३॥ संयमी साधु बिना दुखोंका अनुभव किये ही मोक्षमार्गका सेवन करे तो वह उसमें दुखों के उपस्थित होते ही भ्रष्ट हो सकता है । जो मुमुक्षु पूर्वबद्ध कर्मोको निर्जरा करनेके लिए आत्मस्वरूपमें स्थित होकर क्षुधादि २२ प्रकारकी वेदनाओंको सहता है, उसीको परिषह विजयी कहते है। द्र.सं./टी १५७/२२६/४ परीषहजयश्चेति.. ध्यानहेतव.। परिषहजय ध्यानका कारण है। *परिषहजय भी संयमका एक अंग है-दे० कायक्लेश। तृणस्पर्श, स.सि. मोक्ष परम् ॥ ३ ॥ना स्वस्थो यस " अवेद , स्त्री १६ १०- सामान्य स.सि. नारन्य, १४१ १३ | अरति. १४ स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना। सरकारपुरस्कार अदर्शन 18-१२ मान क०चा.सा.,८१४ रहित । ५. एक समयमें एक जीवको परिषहोंका प्रमाण त.स /8/१७ एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्न कानविंशतः।१७। = एक साथ एक आत्मामें उन्नीस तक परिवह विकल्पसे हो सकते है ॥ १७ ॥ स.सि./६/१७ शीतोष्णपरिषहयोरेकः शय्यानिषद्याचर्याणां चान्यतम एव भवति एकस्मिन्नात्मनि । कुतः। विरोधात् । तस्त्रयाणामपगमे युगपदेकात्मनोतरेषा संभवाडेकोनविंशति विकलपा बोद्धव्या। - एक आत्मामें शीत और उष्ण परिषहों में से एक, शय्या, निषद्या और चर्या इनमें से कोई एक परिषह ही होते है, क्योंकि शीत और उष्ण इन दोनोंके तथा शय्या, निषद्या और चर्या इन तीनोंके एक साथ होनेमे विरोध आता है। इन तीनोंके निकाल देनेपर एक साथ एक आदमामें इतर परिषह सम्भव होनेसे सब मिलकर उन्नीस परिषह जानना चाहिए। (रा.वा./४/१७/२/६१५/२५)। ३. शंका समाधान १.क्षुदादिको परिषह व परिषहजय कहनेका कारण भ.आ./मू. व टी./११७१/१९५६ सीदुण्हदसमसयादियाण दिण्णो परिसहाण उरो। सीदादिणिवारणाए गये णिययं जहत्तेण । १९७१ ॥ क्षुदादिजन्यदुःखविषयत्वात् क्षुदादिशब्दानाम् । तेन क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनारन्यादीनां परीषहवाचो युक्तिन विरुध्यते। -शोत, उष्ण इत्यादिको मिटानेवाला वस्त्रादि परिग्रह जिसने नियमसे छोड़ दिया है, उसने शीत, उष्ण, देश-मशक वगैरह परिषहाँको छाती आगे करके शूर पुरुषके समान जीत लिया है, ऐसा समझना चाहिए ॥ ११७६ ॥ क्षुदादिकोंसे उत्पन्न होनेवाला दुख क्षुदादि शब्दोंका विषय है, इस वास्ते क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य इत्यादिकोंको परिषह कहना अनुचित नहीं है। .. केशलोचको परिषदों में क्यों नहीं गिनते स.सि./8/8/४२६/- केशलुठचसंस्काराभ्यामुत्पन्नखेदसहन मलसामान्यसहनेऽन्तर्भवतीति न पृथगुक्तम् । -केश लुब्चन या केशोंका संस्कार न करनेसे उत्पन्न खेदको सहना होता है, यह मल परिषह सामान्यमें ही अन्तर्भूत है। अत. उसको पृथक् नहीं गिनाया है। (रा.वा./६/६/२४/६१२/१) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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