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________________ योग ३८२ ५. योगस्थान निर्देश उ ज ४२८ ५. परिणाम या घोटमान योगस्थानका लक्षण ८. योगस्थानोंके स्वामित्वककी सारणी घ. १०/४,२,४,१७३/४२१/२ पज्जत्तपढमसमयप्पहुडि उवरि सव्वत्थ सकेत-उ०- उत्कृष्ट; एक-एकेन्द्रिय; चतु०= चतुरिन्द्रिय, ज० = परिणामजोगो चेव । णिबत्ति अपज्जत्ताण णस्थि परिणामजोगो। जघन्य, त्रि-त्रिइन्द्रिय; द्वि०-द्वीन्द्रिय; नि० अप०= निर्वृ त्य-- पर्याप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर आगे सब जगह परिणाम योग ही पर्याप्त, पंचे, पंचेन्द्रिय, बा०- बादर; ल०अप०= लब्धपर्याप्त; स०होता है निवृत्यपर्याप्तकोके परिणाम योग नहीं होता । ( लब्ध्य समय; सू० सूक्ष्म ध १०/१,२,४.१७३/४२१-४३० (गो.क./म् /२३३पर्याप्त कोके पूर्वावस्थामें होता है- दे० ऊपरवाला शीर्षक )। गो. क./मू /२२०-२२१/२६८ परिणामजोगठाणा सरीरपज्जत्तगादु चरि प्रमाण योग || काल सम्भव जीव | उस पर्यायका विशेष मोत्ति । लद्धि अपज्जत्ताणं चरिमतिभागम्हि बोधव्वा ।२२०। सग प्र.न स्थान जि .उ. समास समय पच्चतीपुण्णे उवरि सम्वत्थं जोगमुक्क्स्स । सव्वत्थ होदि अवर लद्धि । अपुण्णस्स जेठ पि ।२२१॥ = शरीर पर्याप्ति पूर्ण होनेके प्रथम समयसे लेकर आयुके अन्ततक परिणाम योगस्थान कहे जाते है । लब्ध्यपर्याप्त ६४२१ उपपाद ज. स. स.मू.बा. एक द्वि. विग्रहगतिमे वर्तमान जीवके अपनी आयुके अन्तके त्रिभागके प्रथम समयसे लेकर अन्त | त्रि. चतु. व तद्भवस्थ होनेके समय तक स्थितिके सब भेदोमे उत्कृष्ट व जघन्य दोनो प्रकारके योग प्रथम समय स्थान जानना ।२१०। शरीर पर्याप्तिके पूर्ण होनेके समयसे लेकर ४२८ , उ , पचे. असंज्ञी, तद्भवस्थ होनेके प्रथम अपनी-अपनी आयुके अन्त समय तक सम्पूर्ण समयो में परिणाम । संज्ञी,ल.अप.व | समयमे योगस्थान उत्कृष्ट भी होते है, जघन्य भी सभरते है ।२२१। नि.अप. गो. क./जी,प्र./२१६/२६०/१ येषा योगस्थानाना वृद्धिः हानि अबस्थानं च संभवति तानि घोटमानयोगस्थानानि परिणामयोगस्थाना I४२१ एकांता-ज..... उपरोक्त सर्व जीव तद्भवस्थका द्वितीय सयय नीति भणि भवति । =जिन योगस्थानोमे वृद्धि, हानि, तथा र ४२५ नुवृद्धि ल. अप.व अवस्थान (जैसेके तैसे बने रहना) होता है, उनको धोटमान योग नि. अप, स्थान-परिणाम योगस्थान कहा गया है। एकान्ता० योगकालका अन्तिम समय ६. परिणाम योगस्थानोंकी यवमध्य रचना उत्पन्न होनेके अन्तध. १०/४,२,४,२८/६०/६ का विशेषार्थ-ये परिणाम योगस्थानद्वीन्द्रिय र्मुहूर्त पश्चाव अनन्तरपर्याप्तके जघन्य योगस्थानोसे लेकर सज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोके समय । उत्कृष्ट योगस्थानो तक क्रमसे वृद्धिको सिये हुए है। इनमे आठ ४२३ ज. ४सद्वि-सज्ञी नि.अप, पर्याप्तिका प्रथम समय समय वाले योगस्थान सबसे थोडे होते है। इनसे दोनों पार्श्व भागो पर्याप्तिके निकट में स्थित सात समयवाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते है। इनसे (४३१परिणाम ज.. . सू. बा, एक-संज्ञी छठी पर्याप्तिके प्रथमदोनों पार्श्व भागों में स्थित छह समयवाले योगस्थान असंख्यातगुणे ९४२२ नि.पर्याप्त समयसे आगे होते है । इनसे दोनो पार्श्व भागोमे स्थित पाँच समयवाले योग ४२७ ४२६ परभविक आयु बन्ध स्थान असंख्यातगुणे होते है। इनसे दोनो पार्श्व भागोमे स्थित चार समयबाले योगस्थान असख्यात गुणे होते है। इनसे तीन अप. योग्य कालसे उपरिम भवस्थिति समयवाले योगस्थान असख्यातगुणे होते है और इनसे दो समयवाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं। ये सब योगस्थान ४२७ आयु बन्धयोग्य कालके प्रथम समयसे तृतीय भाग तकमें वर्तमान जीव ४,५,६,७,८,७,६,५४, ३,२ - समयवाले " "२स.सू, वा. एक-नि, परम्परा शेष पाँच ४२३ अप, पर्याप्तियोसे पर्याप्त हो होनेसे ग्यारह भागोमे विभक्त है,अत' समयकी दृष्टिसे इनकी यवाकार चुकनेपर ४२8 रचना हो जाती है। आठ समयवाले योगस्थान मध्यमें रहते है। ,,,, द्वि. संज्ञील,अप. स्व स्व भवस्थितिके फिर दोनो पाश्वं भागोंमे सात (आदि) योगस्थान प्राप्त होते है। तृतीय भागमें वर्तमान इनमें से आठ समयवाले योगस्थानोकी यवमध्य संज्ञा है। ४२२ सू.बा. एक-सज्ञी आयुबन्ध योग्य प्रथम यवमध्यसे पहले के योगस्थान थोडे होते है और आगेके योगस्थान अ | ल. अप. समयसे भवके अन्त तक संख्यातगुणे होते है। इन आगेके योगस्थानो मे सख्यातभाग आदि अर्थात् जीवनके चार हानियाँ व वृद्धियाँ सम्भव है इसोसे योगस्थानोमें उक्त जीव 1. ,बी.-संज्ञी ल.अप. अन्तिम तृतीय भागके को अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित कराया है, क्योकि योगस्थानोका प्रथम समयसे विश्रमण अन्तर्मुहूर्त काल यही सम्भव है। कालके अनन्तर अध स्तन समयतक ७. योगस्थानोंका स्वामित्व सभी जीव समासों में उ. द्वी.-संज्ञी नि परम्परा पाँचों पर्या " सम्भव है अप प्तियोसे पर्याप्त गो क./जी. प्र/२२२/२७०/६० एवमुक्तयोगविशेषा सर्वेऽपि पूर्वस्था पर्याप्तक छह में से एक भी पितचतुर्दशजीवसमासरचनाविशेषेऽतिव्यक्त सभवतीति सभाव पर्याप्ति के अपूर्ण रहने यितव्या । -ऐसे कहे गये जो ये योगविशेप ये सर्व चौदह जीव तक भी नहीं होता। समासोमे जानने चाहिए । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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