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________________ योग गारजंगो जोगो मेजोगो इच्चेवमादओ जो आगनमावजोगो तिविहो गुणजोगो भवजोग जोगो चैदिगुण दुबो चिजोग चेदित्य गुणजोगो जहा रसधासादीहि पोगो आगासादीणमप्पप्पगो गुणेहि सह जोगो वा । तत्थ सच्चित्तगुणजोगो पंचबिही-खोदरी जोवसमिजोल खोमिओ पारिणामियो चेदि । ... इदो मेरु' चालइदु समत्यो ति एसो सभवजोगो णाम । जोसो जोगो सो सिविहो उनमादोगो एसा जोग परिणामजोगो चेदि । तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्य योग अनेक प्रकारका है यथा-सूर्य नक्षत्रयोग, चन्द्र-नक्षत्रयोग, कोण अंगारयोग, योग मन्त्रयोग इत्यादि नोआगम भावयोग तीन प्रकारका है गुपयोग, सम्भवयोग, और योजनायोग उनसे गुपयोग दो प्रकारका है- सचिगुणयोग और अभियोग उनमें से अचित्तगुणयोग | अचित्तगुणयोग-जैसे रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि गुणोसे पुद्गल द्रव्यका योग, अथवा आकाशादि द्रव्योंका अपने-अपने गुणोंके साथ योग। उनमें सचित्तगुण योग पाँच प्रकारका है-जदविक, ओपशमिक क्षायिकायामिक और परिणामिक ( इनके लक्षण दे० वह वह नाम ) इन्द्र मेरु पर्वतको चलानेके लिए समर्थ है, इस प्रकारका जो शक्तिका योग है वह सम्भवयोग कहा जाता है। जो योजना - ( मन, वचन कायका व्यापार ) योग है वह तीन प्रकारका है-उपपादयोग एकान्तानुवृद्धियोग, और परिणामयोग दे० योग /५ 1 २. योगके भेद व लक्षण सम्बन्धी तर्क-वितर्क - १. वस्त्रादिके संयोग से व्यभिचार निवृत्ति 1 ४. १/१.१.४/११/८ युज्यत इति योग न युज्यमानपटादिना व्यभि चारस्तस्यानात्मधर्मवाद न कषायेण व्यभिचारस्तस्य वर्मादानहेतुत्वाभावात् । प्रश्न- यहाँपर जो संयोगको प्राप्त हो उसे योग कहते हैं, ऐसी व्याप्ति करनेपर संयोगको प्राप्त होनेवाले वस्त्रादिकसे व्यभिचार हो जायेगा। उत्तर--नहीं, क्योकि संयोगको प्राप्त होने वाले वस्त्रादिक आत्मा धर्म नहीं है। प्रश्न- मायके साथ व्यभिचार दोष आ जाता है । ( क्योंकि कषाय तो आत्माका धर्म है, और संयोगको भी प्राप्त होता है ।) उत्तर- इस तरह कषायके साथ भी व्यभिचार दोष नहीं आता, क्योंकि कषाय क्मोंके ग्रहण करनेमें कारण नहीं पड़ती है । ३७६ २. मेघादिके परिस्पन्द में व्यभिचार निवृत्ति ध. १/१,१,७६/३१६/७ अथ स्यात्परिस्पन्दस्य बन्धहेतुत्वे संचरदभ्राणामपि कर्मबन्धः प्रसजतीति न, कर्मजनितस्य चैतन्यपरिस्पन्दस्यास - वहेतुत्वेन विवक्षितत्वात् । न चाभ्रपरिस्पन्दः कर्मजनितो येन तद्ध ेतुतामास्कन्देत् । = प्रश्न - परिस्पन्दको बन्धका कारण माननेपर संचार करते हुए मै बोके भी कर्मबन्ध प्राप्त हो जायेगा, क्योकि, उनमें भी परिस्पन्द पाया जाता है। उत्तर- नहीं, क्योंकि कर्मजनित चैतन्य परिस्पन्द ही आस्रवका कारण है, यह अर्थ यहाँ विवक्षित है मैका परिस्पन्द कर्मजनित तो है नहीं, जिससे वह कर्म बन्धके आसवका हेतु हो सके, अर्थात् नहीं हो सकता । 1 ३. पस्परिन्द व गतिमें अन्तर ध. ७/२.१,३३/७७/२ इंदियविसयमइक्केतजीवपदेसपरिष्कं दस्स इंदिएहि उवल भविरोहादो। ण जीवे चलते जोवपदेसाणं सकोच-बिकोविनियमो, सिज्यं तपढमममए एतो लोअग्गं गच्छंतम्मि जीवपदेसायं संकोचविकोषावसंभा इन्द्रियोंके विषयसे परे जो जोव प्रदेशका परिस्पन्द होता है, उसका इन्द्रियों द्वारा ज्ञान मान लेने में Jain Education International = २. योगके भेद व लक्षण सम्बन्धी..... विरोध आता है। जीवोंके चलते समय जीवप्रदेशों के संकोच-विकोचका नियम नहीं है, क्योंकि, सिद्ध होनेके प्रथम समयमें जब यह जीव यहाँसे अर्थात् मध्यलोकसे, लोकके अग्रभागको जाता है तब इसके जीव प्रदेशों में सकोच विकोच नहीं पाया जाता। (और भी दे० जी/४/६)! दे० योग /२/५ ( क्रियाकी उत्पतिमें जो जीवका उपयोग होता है. यही वास्तव में योग है । ) ध. ७/२,१.१५/१७/१० मण वयण कायपोग्गलालंबणेण जीवपदेसाणं परिष्कंदो । जदि एव तो णत्थि अजोगिणो सरीरियस्स जीवदव्वस्स अकिरिमिरोहादो एस दोसो, बहुकम्मे खी जा उड्ड गमणुबल बिया किरिया सा जीवस्स साहाविया, कम्मोदरण विणा पउत्ततादो । पतता सहिददेसमडिया या जीवदव्यस्स सावयवेहि परिष्कंदो अजोगो णाम, तस्स कम्मवखयत्तादो । तेण सकिरिया विसिद्धा अजोगिणो, जीवपदेसाणमद्दहिदजलपदेसाणं व उव्वत्तण-परिपत्तण किरिया भावादो । तदो ते अबंधा त्ति भणिदा । - मन, वचन और काय सम्बन्धी पुद्गलोके आलम्बनसे जो जीवप्रदेशोंका परिस्पन्दन होता है वही योग है प्रश्न यदि ऐसा है तो शरीरी जीव अयोगी हो हो नहीं सकते, क्योंकि शरीरगत जीवद्रव्यको अक्रिय माननेमें विरोध आता है। उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्योंकि आठो कर्मोंके क्षीण हो जानेपर जो ऊर्ध्वगमनोपलम्बी क्रिया होती है वह जीवा स्वाभाविक गुण है, क्योंकि वह कर्मोदयके बिना प्रवृत्त होती है स्वस्थित प्रदेशको न छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीवद्रव्यका अपने अवयवो द्वारा परिस्पन्द होता है वह अयोग है, क्योंकि वह कर्मक्षयसे उत्पन्न होता है । अतः सक्रिय होते हुए भो शरीरी जीव अयोगी सिद्ध होते है। कोकि उनके जीवप्रदेशों के तष्ठायमान जल प्रदेशो के सदृश उद्वर्तन और परिवर्तन रूप क्रियाका अभाव है। ४. परिस्पन्द लक्षण करनेसे योगोंके तीन भेद नहीं हो सकेंगे घ. १०/४.२,४.१००/ ४३९ एवं तो सिप पि जोगाम-ममेण वृत्ती बुशी पावदिति भणिरे एस दोस्रो, जदट्ठ जीवपापड परिष्दो जादो अम्मि जीवपदेसपरिष्क दसहकारिकारणे जादे नि तस्सेव पहाणत्तदसणेण तस्स तव्ववएसविरोहाभावादो। प्रश्न-यदि ऐसा है ( तीनों योगोंका ही सक्षम आत्म-प्रदेश परिस्पन्द है) तो तीनों ही योगोका एक साथ अस्तित्व प्राप्त होता है। उत्तरनहीं, यह कोई दोष नही है । (सामान्यत. तो योग एक ही प्रकारका है) परन्तु जीव-प्रदेश परिस्पन्द के अन्य सहकारी कारणके होते हुए भी जिस ( मन, वचन व काय ) के लिए जीव- प्रदेशोंका प्रथम परिस्पन्द हुआ है उसकी हो प्रधानता देखी जानेसे उसकी उक्त ( मन, वचन वा काययोग) सज्ञा होनेमें कोई विरोध नहीं है। ५. परिस्पन्द रहित होनेसे आठ मध्यप्रदेशों में बम्ब न हो सकेगा घ. १२/४,२,११,३/३६६ / १० जीवपदेसाणं परिप्फदाभावादो। ण च परिष्द निरीपदे लोगो अस्थि, सिद्धापि सजगतामचोदो ति रथ परिहारो बुदे मग काय करियापत्तीए जीवस्स उवजोगी जोगा णाम । सो च कम्मबंधस्स कारणं । चसो धोये जीवपदेसे होदि एगजीवपयतस्स योगान चैव वृत्तिविरोहादो एकम्हि जीवे खडखंडेणपयत्तविरोहादो वा । तम्हा द्विदेसु जीवपदेसेसु कम्मबंधो अस्थि त्तिणव्वदे। ण जोगादो जियमेज जीमपदेसपरि होदि, तस्स तत्तो अभियमेरुपत्तदो । णच एकांतण नियमो णत्थि चैत्र, जदि उप्पज्जदि तो ततचैव यमुवसंभादो तदो दवा पिलोगो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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