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________________ परिणाम अस्तित्व ) प्रतिक्षण उस उस स्वभावरूप परिणमित होनेके कारण या स्वभावभूत परिणाम है। गो. जी. / जी /८/१५ उदयादिनिरपेक्ष परिणाम' । उदयादिकी अपेक्षा रहित सो परिणाम है। २. भावके अर्थ में त. सू / ५ / ४२ तद्भाव परिणाम |४२ | स. सि / ५ / ४२ / ३१७/५ धर्मादोनि द्रव्याणि येनात्मना भवन्ति स तद्भावस्तत्त्व परिणाम इति आख्यायते । धर्मादिक द्रव्य जिस रूपसे होते है यह राज्ञाय या तत्व है और इसे हो परिणाम कहते है। (रा या / २ / ४२ / २ / ५०३ / २ । घ १५/२०२ / ७ को परिणाम जिम सायादो मिध्याव असयम और कषायादिको परिणाम कहा जाता है । ३ आत्मलाभ हेतुके अर्थ में रा०वा / २/१/५/१००/२१ यस्य भावस्य द्रव्यात्मलाभमात्रमेव हेतुर्भवति नाभ्यनिमितमस्ति सपरिणाम इति परिभाष्यते। जिसके होने में द्रव्यका स्वरूप लाभ मात्र कारण है, अन्य कोई निमित्त नहीं है, उसको परिणाम कहा जाता है। ( स मि /२/१/१४६/६ ), ( प का . / त. प्र. / ५६ ) । = ४. पर्यायके अर्थ में ससि /५/२०/२११ / ६ प्रव्यस्य पर्यायो धर्मान्तरनिवृत्ति पजनरूप अपरिस्पन्दात्मक परिणाम' | = एक धर्मको निवृत्ति करके दूसरे धर्म के पैदा करने रूप और परिस्पन्दसे रहित द्रव्यकी जो पर्याय है उसे परिणाम कहते है। ( रा. वा./५/२२/२१/४८१/१६), ( स. म / २७ / ३०४ / १६ ) । रावा / ५ / २२/१०/४००/३० द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन प्रयोगविसालक्षणो विकार परिणाम | १०| द्रव्यस्य चेतनस्येतरस्य वाद्रव्यार्थिकनायस्य अभिक्षात स्वा द्रव्यजातिमहत पर्यायार्थिकनाशवान् मिता केनचिद पर्यायेण प्रादुर्भाव पूर्वव्ययनिवृतिपूर्वको विकार प्रयोगविसालक्षण परिणाम इति प्रतिपत्तव्य. । - द्रव्यका अपनी स्व द्रव्यत्व जातिको नहीं छोडते हुए जो स्वाभाविक या प्रायोगिक परिवर्तन होता है उसे परिणाम कहते है । द्रव्यत्व जाति यद्यपि द्रव्यसे भिन्न नहीं है फिर भी द्रव्याकिकी अविवक्षा और पर्यायार्थिकको प्रधानतामें उसका पृथक व्यवहार हो जाता है। तात्पर्य यह है कि अपनी मौलिक सप्ता छोड़ते हुए पूर्व पर्यायी निवृतिपूर्वक को उत्तरपर्यायका उत्पन्न होना है वही परिणाम है। (नच. प./१०); (त सा./३/४६)। सि. वि. / टो./११/५/७०२/१० व्यक्तेन च तादात्म्यं परिणामलक्षणम् । = व्यक्तरूपसे तो तादात्म्य रखता हो, अर्थात् द्रव्य या गुणोंकी व्यक्तियो अथवा पर्यायोंके साथ तादात्म्य रूपसे रहनेवाला परिणमन, परिणामका लक्षण है। न्या वि./टी./१/१०/१७८ / ११ परिणामो विवर्त । उसीमेंसे उत्पन्न हो होकर उसमे लीन हो जाना रूप विवर्त या परिवर्तन परि णाम है। प. ध. / पू./११७ स च परिणामोऽवस्था । गुणोंकी अवस्थाका नाम परिणमन है और भो दे० 'पर्याय' २. परिणाम के भेद प्र. सा./मू./ १८१ सुपरिणामो पुण्णं असुहो पाव त्ति भणियमण्णेसु । परिणामो पण्णगदो दुक्खश्वयकारणं समये परके प्रति शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है, ऐसा कहा है। (और Jain Education International ३१ परिणाम भी देखो प्रणिधान) जो दूसरोके प्रति प्रवर्तमान नही है, ऐसा परिणाम ( शुद्ध परिणाम ) समयपर दुख क्षयका कारण है। रा. वा /५/१२/१०/४००/३४ परिणामो द्विविध अनादिरादिमाश्च ।.. आदिमान् प्रयोगजो वैसिवश्च परिणाम दो प्रकारका होता है - एक अनादि और दूसरा आदिमान् । (स. सि /४/४२/३१७/६), (रा.वा./६/१२/२/५०३ / १) बादिमास दो प्रकार है-एक प्रयोगजन्य और दूसरा स्वाभाविक । घ. /१२/४,२,७,३२/२७/६ अपरियत्तमाणा परिणामा परियत्तमाणा णाम । तत्थ उक्कस्सा मज्झिमा जहण्णा त्ति तिविहा परिणामा । - अपरिवर्तमान और परिवर्तमान दो प्रकारके परिणाम होते है। उनमें उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्यके भेदसे वे परिणाम तीन प्रकार के है । (गो, क / जी. प्र / १७७/२०७/१०) । पं. ध. / / ३२०,३२८ का भावार्थ परिणाम दो प्रकार के होते है-सर और विसदृश । १. परिणाम विशेषके लक्षण १ आदिमान् व अनादिमान् परिणाम रा.बा./५/२२/१०/४७७/४ अनादिर्लोकसंस्थानमन्दराकारादि । आदिमान् प्रयोगजो वैस्रसिकश्च । तत्र चेतनस्य द्रव्योपशमिकादिभाष कर्मोपमाद्यपेक्षोऽपौरुषेयत्वा वैखसिक हरयुच्यते। ज्ञानशीलभाव नादिलक्षण आचार्यादिपुरुषप्रयोगनिमित्तत्वात्प्रयोगज । अचेतनस्य च मृदादे घटसंस्थानादिपरिणाम कुशाहादिपुरुषप्रयोगनिमित्तत्वात् प्रयोग इन्द्रधनुरादिनानापरिणामी वैससिक तथा धर्मादेरचि योज्यः । । । रा. वा./५/४२/३/५०३/१० तत्रानादिर्धर्मादीना गरयुपग्रहादि । न तदस्ति धर्मादीनि द्रव्याणि प्रा पश्चाद्गत्युपपादि म्या पग्रहादि पश्चादीनि इति कि सहि अनादिरेषां सबन्धः आदिमरिच माह्यप्रत्ययापादितोत्पाद लोककी रचना सुमेरुपर्वत आदिके आकार इत्यादि अनादि परिणाम है। आदिमा दो प्रकारके है - एक प्रयोगजन्य और दूसरे स्वाभाविक चेतन द्रव्पके ओपशमिकादिभाव जो मात्र कमोंके उपशम आदिकी अपेक्षासे होते है । पुरुष प्रयत्नकी जिनमें आवश्यकता नहीं होती वे वैrसिक परिणाम है। ज्ञान, शील, भावना आदि गुरु उपदेशके निमित्तसे होते है, अतः ये प्रयोग है। अचेतन मिट्टो आदिका कुम्हार आदिके प्रयोग से होनेवाला घट आदि परिणमन प्रयोगज है और इन्द्रधनुष मेम आदि रूपसे परिणमन वैससि है। " धर्मादि द्रव्योंके गरनुपग्रह आदि परिणाम अनादि है, जबसे ये रूप है तभी से उनके ये परिणाम है। धर्मादि पहले और गत्युपग्रहादि बाद किसी समय हुए हों ऐसा नहीं है । बाह्य प्रत्ययों के आधीन उत्पाद आदि धर्मादि द्रव्योंके आदिमान् परिणाम है । २. अपरिवर्तमान व परिवर्तमान परिणाम घ. १२/४.२,०७,३२/२०/८ अगुसमय बद्धमाणा होयमाणा च जे सकिलेस - विसोहिय परिणामा ते अपरियत्तमाणा णाम । जत्थ पुण ठाइदूण परिणामांतर गंतूण एग-दो आदिसमएहि आगमणं संभवदि ते परिणामा परियत्तमाणा णाम । प्रति समय बढनेवाले या हीन होनेवाले जो सनलेश या विशुद्धिरूप परिणाम होते है वे अपरिवर्त मान परिणाम कहे जाते है। किन्तु जिन परिणामों में स्थित होकर तथा परिणामान्तरको प्राप्त हो पुन. एक दो आदि समयों द्वारा उन्हीं परिणामों में आगमन सम्भव होता है उन्हे परिवर्तमान परिणाम कहते है। (गो. जी. १/१००/२००/१० जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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