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________________ मोहनीय ३४१ १. मोहनीय सामान्य निर्देश हास्यादिकी भॉति करुणा अकरुणा आदि प्रकृतियोंका निदेश क्यों नही है। -दे० करुणा/२। कषाय व अकषाय वेदनीयके लक्षण । कषाय व अकषाय वेदनीयमें कथचित समानता। -दे० संक्रमण/३ । अनन्तानुबन्धी आदि भेदों सम्बन्धी। -दे० वह वह नाम । | क्रोध आदि प्रकृतियो सम्बन्धी।-दे० कषाय । | हास्य आदि प्रकृतियो सम्बन्धी। बह वह नाम । चारित्रमोहकी सामर्थ्य कषायोत्पादनमे है स्वरूपाचरणके विच्छेदमें नहीं। कषायवेदनीयके बन्धयोग्य परिणाम । अकषायवेदनीयके बन्ध योग्य परिणाम । मोहनीय सामान्य निर्देश मोहनीय कर्म सामान्यका लक्षण । मोहनीय कर्मके भेद। मोहनीयके लक्षण सम्बन्धी शंका। मोहनीय व शानावरणीय कर्मों में अन्तर । दर्शन व चारित्र मोहनीयमें कथंचित् जातिभेद । -दे० सक्रमण/३ । सबै कर्मों में मोहनीयकी प्रधानता। मोह प्रकृतिमें दशों करणोंकी सम्भावना। -दे० करण/२। मोह प्रकृतियोंकी बन्ध उदय सत्वरूप प्ररूपणाएँ। -दे० वह वह नाम । मोहोदयकी उपेक्षा की जानी सम्भव है। -दे० विभाव/४/२। मोहनीयका उपशमन विधान। -दे० उपशम । * मोहनीयका क्षपण विधान। -दे०क्षय। मोह प्रकृतियोके सत्कर्मिकों सम्बन्धी क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, व अल्पबहुत प्ररूपणाएँ। ----दे० वह वह नाम। २ | दर्शनमोहनीय निर्देश दर्शनमोह सामान्यका लक्षण । दर्शनमोहनीयके भेद । दर्शनमोहकी तीनों प्रकृतियोंके लक्षण । तीनों प्रकृतियोंमें अन्तर। ५ | एक दर्शनमोहका तीन प्रकार निर्देश क्यों । मिथ्यात्व प्रकृतिका बिधाकरण। -दे० उपशम/२। मिथ्यात्व प्रकृतिमेंसे मिथ्यात्वकरण कैसा ? सम्यक् प्रकृतिको 'सम्यक्' व्यपदेश क्यों ? सम्यक्त्व व मिथ्यात्व दोनोंको युगपत् वृत्ति कैसे ? सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृतिको उलना सम्बन्धी। -दे० संक्रमण/४। सम्यक्त्व प्रकृति देश पाती कैसे।-दे० अनुभाग/४/६/३|| मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्वमेंसे पहले मिथ्यात्वका क्षय होता है। -दे०क्षय/२। मिथ्यात्वका क्षय करके सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय करनेवाला जीव मृत्युको प्राप्त नहीं होता। -दे० मरण/३। दर्शनमोहनीयके बन्ध योग्य परिणाम । *दर्शनमोहके उपशमादिके निमित्त। -दे० सम्यग्दर्शन/II/ चारित्रमोहनीय निर्देश चारित्रमोहनीय सामान्यका लक्षण । २ चारित्रमोहनीयके भेद-प्रमेद । १. मोहनीय सामान्य निर्देश १. मोहनीय कर्म सामान्यका लक्षण स. सि /८/४/३८०/५ मोहयति मोह्यतेऽनेति वा मोहनीयम्। -जो मोहित करता है या जिसके द्वारा मोहा जाता है वह मोहनीय कम है। (रा. वा/८/४/२/५६८/१), (ध ६/१,६-१,८/११/५,७), (ध. १३/५.५.१६/२०८/१०), (गो, क /जी.प्र./२०/१३/१५)। द्र. सं./टी./३३/१२/११ मोहनीयस्य का प्रकृतिः। मद्यपानवधेयोपादेयविचार विकलता। = मद्यपानके समान हेय-उपादेय ज्ञानकी रहितता, यह मोहनीयकर्म की प्रकृति है। (और भी-दे० प्रकृतिबन्ध/३/१)। २. मोहनीयकमके भेद-१. दो. या २८ मेद : ष. ख.६/१,६-६/सू. १९-२०/३७ मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीस पयडीओ ।१६जं तं मोहणीय कम्मं तं दुविह, देसणमोहणीयं चारित्तमोहणीयं चेव १२० -१. मोहनीय कर्मकी २८ प्रकृतियाँ है।१६। (ष. ख. १२/४,२,१४/सूत्र १०/४८२); (प. ख, १३/५,५/सूत्र ६०/३५७ ); (म. व १/५/२८/२); (विशेष दे० आगे दर्शन व चारित्रमोहकी उत्तर प्रकृतियाँ)। २. मोहनीयकर्म दो प्रकारका है-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । (ष. ख. १३/५.६/सूत्र ११/३५७ ); (मू. आ/१२२६); (त. सू/८/8); (पं.स/प्रा/२/४ व उसको मूल व्याख्या ); (गो. क/जो./प्र/२५/१७/६); ( पं. ध./उ./ ६८५)। गो. क./जी. प्र/३३/२७/१८ दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं कषायवेदनीय नोकषायवेदनीय इति मोहनीयं चतुर्विधम् । - दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, कषायवेदनीय और अकषाय वेदनीय, इस प्रकार मोहनीय कर्म चार प्रकारका है। २. असंख्यात भेद घ. १२/४,२,१४,१०/४८२/६ पज्जवठ्ठियणए पुण अवल बिज्जमाणे मोह णीयस्स असंखेज्जलोगमेत्तीयो होति, असखेज्जलोगमेत्तउदयट्ठाणग्णहीणुववत्तीदो। -पर्यायाथिक नयका अवलम्बन करनेपर तो मोहनीय कर्मकी असंख्यात लोकमात्र शक्तियाँ है, क्यों कि, अन्यथा उसके असंरण्यातलोक मात्र उदयस्थान बन नही सकते। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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