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________________ मैत्री मैत्री प्रा./ सू९६२६/२०१६/९२ की मिचिता मेन्ती' - जीवेसु मित्तचिता अनंतकाल चतसृषु गतिषु परिभ्रमता घटीयन्स प्राणभृतोऽपि कृतमहोपकारा कृति तेषु मा चिता मैत्री = अनन्तकालसे मेरा आत्मा घटोयत्र के समान इस दुर्गमय ससारमै भ्रमण कर रहा है। इस ससारमे सम्पूर्ण प्राणियोने मेरे ऊपर अनेकबार महान् उपकार किये है' ऐसा मनमे जो विचार करना, वह मैत्री भावना है । स.सि./७/१९/३४६/० परेषा खानुपश्यभिलाषा मैत्री दूसरोको दुख न हो ऐसी अभिलाषा रखना मैत्री है (रा. ना. /०/११/१/ ५३९/१४) । झा. २०१६-० रविकल्पेषु चरस्थिरशरीरिषुलास्था मृतेषु नानापीनिमग्नेषु समन राधिका सामी महत्वमापत्रा मतिमंत्रीति पते । जीवन्तु अन्तर सर्वे क्लेशव्यसनमर्जिता । प्रान्तारं पाप पराभवम् 1७1 == सूक्ष्म और बादर भेदरूप त्रस स्थावर प्राणी सुख-दुखादि अवस्थाओ मे जैसे-तैसे तिष्ठे हो तथा नाना भेदरूप योनियो में प्राप्त होनेवाले जीवोमें समानतासे विराधनेवाली न हो ऐसी महत्ताको प्राप्त हुई समीचीन बुद्धि मैत्री भावना कही जाती है|६| इसमें ऐसी भावना रहती है कि ये सब जीव कष्ट व आपदाओ से हो जाओ तथा पाप अपमानको छोडकर मुखको प्राप्त होओ |७| - स्त्रीपसयोश्चारित्रमहोदये मैथुन - १. स. सि /७/१६/३५३/१० सति रागपरिणामावियो परस्परस्पर्शन प्रति इच्छा मिथुनम् । मिथुनस्य भाव मैथुनमित्युच्यते चारित्रमोहका उदय होनेपर राग परिणामसे युक्त स्त्री और पुरुष जो एक दूसरेको स्पर्श करनेकी इच्छा होती है वह मैथुन कहलाता है। (रा. वा. / ७ /१६/५४३ / २६ ) (विशेष दे०ह्मचर्य /४/९ ) । १२/४.२८.४/२८२/- रविवारी मणययण-कायरूवो मेहुण । एत्थवि अनर गमेहुणस्सेन बहिर गमेहुणस्स आस्वभावो वत्तव्वो । स्त्री और पुरुष के मन, वचन व कायस्वरूप विषयव्यापारको मैथुन कहा जाता है । यहॉपर अन्तरंग मैथुनके समान बहिरगमैथुनको भी (कर्मबन्धका कारण बतलाना चाहिए। ★ मैथुन व अब्रह्म सम्बन्धी शकाएँ -- दे० ब्रह्मचर्य / ४ 1 = * वेद व मैथुनमें अन्तर मैथुन संज्ञा - ३० खा मैनासुन्दरी - मालवदेशमें उज्जैनी नगरी राजा पडुपातकी पुत्री थी । पिताके सन्मुख कर्मको बलवत्ता का बखान करनेके कारण क्रोध मा० ३-४१ Jain Education International -दे० १० सज्ञा । पिताने कुष्ट के साथ विवाह दी। पतिकी खूब सेवा की, तथा मुनियों के बहनेपर कि विधान करके उसके गन्धोदक द्वारा उसका कुष्ट दूर किया । अन्तमे दीक्षा धारण करके स्त्रीलिंगका छेदकर सोलहवे स्वर्ग में देव हुआ श्रीरामचरित्र मोक"भरतक्षेत्र मध्य आर्टखण्डका एक देश ।--मनुष्य / ४ | मोक्ष- -शुद्ध रत्नत्रयकी साधना से अष्ट कर्मोंकी आत्यन्तिकी निवृत्ति इयमोक्ष है और रागादि भावोकी निवृति भाषमोक्ष है। मनुष्य गति से ही जीवको मोक्ष होना सम्भव है। आयुके अन्त में उसका शरीर काफूरवत् उड जाता है और वह स्वाभाविक ऊर्ध्व गतिके कारण लोकशिखरपर जा विराजते है, जहाँ वह अनन्तकाल तक अनन्त अतीन्द्रिय सुखका उपभोग करते हुए अपने चरम शरीर के आकार रूपसे स्थित रहते है और पुन शरीर धारण वरके जन्ममरण के चक्कर में कभी नही पडते । ज्ञान ही उनका शरीर होता है। ३२१ मोक्ष जैन दर्शनकर उसके प्रदेशोंकी सर्व व्यापकता स्वीकार नही करते है. न ही उसे निर्गुण व शून्य मानते है। उसके स्वभावभूत अनन्त ज्ञान आदि आठ प्रसिद्ध गुण है। जितने जीव मुक्त होते है उतने ही निगोद राशि व हारराशिमे आ जाते है. इससे लोक जीवोसे रिक्त नहीं होता । भेद व लक्षण मोक्ष सामान्यका लक्षण । मोक्षके भेद । ३ द्रव्य व भाव मोक्षके लक्षण । मक्त जीवका लक्षण । ५ जीवन्मुक्तका लक्षण । ६ २ १ २ ३ ६ ३ १ ३ ४ ५ ६ ४ १ २ ३ अजीव, जीव व उभय बन्ध के लक्षण । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश सिजीव व सिद्धगतिका लक्षण । सिद्धलोकका स्वरूप | मोक्ष व मुक्त जीव निर्देश सिद्ध भगवान्के अनेकों नाम -३०/१/५। --दे० परमात्मा ! अव सिद्ध कथंचिद् भेदाभेद । वास्तवमें भावमोक्ष ही मोक्ष है। मुक्तनीय निश्चयसे स्वमे रहते है, सिद्धालय में रहना व्यवहार है। अपुनरागमन सम्बन्धी शका-समाधान | जितने जीव मोक्ष जाते है उतने ही निगोद से निकलते है । जीव मुक्त हो गया है, इसके चिह्न । सिद्धों में कथंचित् विग्रहगति । सिद्धों को जाननेका प्रयोजन । सिद्धोंकी प्रतिमा सम्बन्धी विचार - दे० विग्रह गति । -३० श्ययालय /१ सिद्धों के गुण व भाव आदि सिद्धोंके आठ प्रसिद्ध गुणका नाम-निर्देश | आठ गुणोंके लक्षण आदि । सिद्धों में अन्य गुणका निर्देश | सिद्धों में गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाएँ । - दे० सत् । For Private & Personal Use Only - दे० वह वह नाम । सर्वशत्वकी सिद्धि । उपरोक्त गुणोंके अवरोधक कर्मोका निर्देश। -०ज्ञान/ सूक्ष्मत्व व अगुरुलघुत्व गुणोंके अवरोधक कर्मोंकी स्वीकृति हेतु । सिद्धोंमें कुछ गुणों व भावोंका अभाव। इन्द्रिय व सयमके अभाव सम्बन्धी शका | मोक्षप्राप्ति योग्य द्रव्य क्षेत्र आदि सिद्धो अपेक्षाकृत कथंचित् भेद- निर्देश मुक्तियोग्य क्षेत्र-निदेश । मुक्तियोग्य काल-निर्देश। www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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