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________________ मूढता मूढ़ता मू.आ./२५६ णच्चा दसणघादी ण या कायव्य ससत्तीए । - देवमूढता आदिको दर्शनघाती जानकर अपनी शक्तिके अनुसार नही करना चाहिए । ये मिथ्यादर्शन /९/१ में नच../३०४ (नास्रिव सापेक्ष अस्तित्वको और अस्तित्व सापेक्ष नास्तित्वको नहीं माननेवाला द्रव्यस्वभाव मे मूढ होता है। यही उसका मूढता नामका मिथ्यात्व है ) । २. मुड़ता मे सू.आ./२५६सोइयवेदियसामाइए यह अग्गवेवमूढता पार प्रकारकी है-लौकिक मूडता. वैदिक मूढता, सामायिक मुसा और मूढ़ता, अन्यदेवमूढता । इ.टी./ ४१/१६६/१० देवताडलोसमयमुद्रभेदेन गूढमर्थ भवति देवता, लोकता और समताके भेदसे मूढता तीन प्रकारकी है। ३. छोकमुताका स्वरूप यू.आ./२५० कोठिमातुरच्या भारहरामायणादि वे धम्मा हो विसोती लोहडी हवदि एसो २३०१ कुटिला प्रयोजन माले पार्या व चाणक्यनीति आदिके उपदेश हिंसक यज्ञादिके प्ररूपक वैदिक धर्मके शास्त्र, और महान पुरुषोको दोष लगानेवाले महाभारत रामायण आदि शास्त्र, इनमें धर्म समझना लौकिक मूढता है । र.क.आ./२२ आपगासागरस्नानमुच्चय सितारमना मिरिपातोडग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते |२२| धर्म समझकर गंगा जमुना आदि नदियो में अथवा सागर में स्नान करना, बालू और पत्थरों आदिका ढेर करना, पर्वत से गिरकर मर जाना, और अग्निमे जल जाना होता कही जाती है। प्र. सं./टी./४९/१६०/ गंगादिनदीतीर्थमान समुद्रस्नानपारा स्नानजलप्रवेशमरणाग्निप्रवेशमरणगोग्रहणादिमरणभूम्यग्निवटवृक्षपूजादीनि पुण्यकारणानि भवन्तीति यद्वदन्ति तल्लोत्रमूढत्व विज्ञेयम् । गंगादि जो नदीरूप तीर्थ है, इनमें स्नान करना, समुद्र में स्नान करना, प्रात काल में स्नान करना, जलमें प्रवेश करके मर जाना, अग्निमें जल मरना, गायकी पूंछ आदिको ग्रहण करके मरना, पृथिवी, अग्नि और वटवृक्ष आदिकी पूजा करना, ये सब पुण्यके कारण हैं, इस प्रकार जो कहते है, उसको लोकमूढता जानना चाहिए। पं.उ./५१६-५६० कुवेणाराधनं कुर्या हिश्रेयसे कुधी । मृषालोको चारत्वादश्रेया लोकमूढता । ५६६ । अस्ति श्रद्धानमेकेषां लोकमूढवशादिह । धनधान्यप्रदा नूनं सम्यगाराधिताऽम्बिका । ५६७ - इस लोक सम्बन्धी व्यापके लिए जो मिध्यादृष्टि जीव मिथ्यादेवीकी आराधनाको करता है वह केवल मिथ्यालोकोपचारवश की जानेके कारण अकल्याणकारी लोकमूढता है । ५६६ । इस लोकमें उक्त लोक्मूढताके कारण किन्हीका ऐसा मान है कि अच्छी तरहसे आराधित की गयी अम्बिका देवी निश्चयसे धनधान्य आदिको देनेवाली है। (इसको नीचे देवता कहा है। ३१५ ४. देवमूढ़वाका स्वरूप मु. आ / २६० ईसर भाविण्हू आज्जाखं दादिया य जे देवा । ते देवभावहीणा देवतयभावेण गुहो ।२६०/- ईश्वर (महादेव), महा विष्णु. पासी, स्कन्द (कार्तिकेय) इत्यादिक देव देवपनेसे रहित है। इनमें देवपनेकी भावना करना देवमूढ़ता है। र.क. श्रा./२३ वरोपलिप्सयाशावान् रामद्वेषमलीमसा | देवता यदुपासीत Jain Education International मूढता देवतामूढमुच्यते | २३ | = आशावान होता हुआ बरकी इच्छा करके राग-द्वेषरूपी मेल मलिन देवताओकी जो उपासना की जाती है. सोदेवता कही जाती है। सं/टी ४१/१६०१ वीतरागसर्व देवतास्वरूपमजान स्वाति नामरूपता यसौभाग्यपुत्रकलत्रराज्यादिविभृतिनिमित्तं रागद्वेषी पह तानं रौद्रपरिक्षेत्रपालचण्डिकादि मिध्यावेनाना यदाराधनं करोति जीवस्यते न च ते देवा किमपि प्रति किमिति चेत् ।... मह योऽपि विद्या समाराधितास्ताभि न किमपि रामस्वामिपाण्डवनारायणानाम् हैस्तु यद्यपि मिथ्यादेवता नानुकूलितास्तथापि निर्मससम्यक्स्वोपार्जितेन पूर्वपुण्येन सर्व निर्विघ्न जातमिति । वीतराग सर्वज्ञदेव के स्वरूपको न जानता हुआ, जो व्यक्ति ख्याति, सन्मान, लाभ, रूप, लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री, राज्य आदि सम्पदा प्राप्त होनेके लिए राग-द्वेष युक्त, आर्त्तरौद्र ध्यानरूप परिणामो वाले क्षेत्रपाल, चण्डिका [ पद्मावती देवी(पं. सदासुखदास )) आदि मिथ्यादृष्टि देवोका आराधन करता है. उसको कहते है ये वे कुछ भी फल नही देते है (र क. श्री / पं. सदासुखदास / २३) । प्रश्न- फल कैसे नहीं देते। उत्तर( रावण, कौरवो तथा कसने रामचन्द्र, लक्ष्मण, पाण्डव व कृष्णको मारने के लिए ) बहुत-सी विद्याओंकी आराधना की थी, परन्तु उन विद्याओने रामचन्द्र आदिका कुछ भी अनिष्ट न किया। और रामचन्द्र आदिने मिथ्यादृष्टि देवोंको प्रसन्न नहीं किया तो भी सम्यग्दर्शनसे उपार्जित पूर्वभवके पुण्यके द्वारा उनके समान दूर हो गये । | पंध. / / ४६५ अदेवे देवबुद्धि' स्यादधर्मे धर्मधीरिह । अगुरौ गुरुबुद्धिर्या ख्याता देवादिमढता १५६५ - इस लोक में जो कुदेव में देव बुद्धि, अधर्म मे धर्मबुद्धि और कुगुरुमें गुरुबुद्धि होती है, वह देवमूढ़ता, धर्ममूढता गुरुता कही जाती है। ५. समय या गुरुमूढ़ता का स्वरूप 1 आ./२५१ रसवडचरगतावसपरिहस्तादीय अण्णयासंडा संसारतारयदि समय सो २५६-बौद्ध नैयायिक पि, जटाधारी, सांख्य आदि पाशुपत कापालिक आदि अन्य लिगी है वे ससारसे तारनेवाले हैं-- इनका आचरण अच्छा है, ऐसा ग्रहण करना सामयिक मूढता है। र कथा / २४ सम्भारम्भहिसाना संसारावर्त्तवर्तिना पाखण्ड पुरस्कारो ज्ञेयं पाण्डिमोहन २४- परिग्रह आरम्भ और हिसा सहित, संसार चक्र में भ्रमण करनेवाले पाखण्डी साधु तपस्वियोका आदर, सत्कार, भक्ति-पूजादि करना सब पाखंडी या गुरुमूढता है। ३. सं/टी./४१/१६०/१० अज्ञानिजनचित्तचमत्कारोत्पादक ज्योतिष्कमादादिकदृष्ट्या वीतरागसप्रणीतसमयं विहाय देवागम लिदिना भयाशास्नेोर्धर्मार्थ प्रणामविनय पुरस्कारादिक समयावमिति अज्ञानी लोगोके पिसमें चमत्कार अर्थाव आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले ज्योतिष, मन्त्रवाद आदिको देखकर, राग सर्व द्वारा कहा हुआ जो धर्म है उसको छोडकर मिथ्यादृष्टि" मिध्या आगम और खोटा तप करनेवाले कूलिंगीका भवसे मासे, स्नेहसे और लोभसे जो धर्म के लिए प्रणाम, विनय, पूजा, सरकार आदि करना सो समयमूढता है । दे० / ४ . ( अगुरुमे गुरुगुद्धि गुरुता है। ↑ ६. वैदिकमूढताका स्वरूप . बा. २५० वेदसामवेदा मागवादादिवेदसत्यात पेन्टर वेदियो हद एसी २६८-वेद सामवेद, प्रायश्चित्तादि बाकू मनुस्मृति आदि अनुवाकू आदि शब्द से यजुर्वेद, अथर्ववेद-ये जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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