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________________ मीमांसा दर्शन ३११ मीमांसा दर्शन मीमांसा-दे० ऊहा-ईहा, ऊहा, अपोहा, मागणा, गवेषणा और मीमांसा ये ईहाके पर्यायनाम है । (और भी-दे० विचय) घ १३/५०६,३८/११ मीमास्यते विचार्यते अवगृहीतोऽर्थो विशेषरूपेण अनया इति मीमांसा। -अवग्रहके द्वारा ग्रहण किया अर्थ विशेषरूपसे जिसके द्वारा मीमासित किया जाता है अर्थात विचारा जाता है वह मीमांसा है। मीमांसा दर्शन-* वैदिक दर्शनों का विकास क्रम व समन्वय-दे० दर्शन। 1. मीमांसा दर्शनका सामान्य परिचय (षड्दर्शन समुच्चय/६८/६६); (स्या मं./परि० च/४३८ ) मीमासादर्शनके दो भेद हैं-१. पूर्वमीमांसा व उत्तरमीमासा । यद्यपि दोनों मौलिक रूपसे भिन्न है, परन्तु 'बौधायन' ने इन दोनों दर्शनोंको 'संहित' कहकर उन्लेख किया है तथा 'उपवर्ष' ने दोनों दर्शनोंपर टीकाएँ लिखी है, इसीसे विद्वानोका मत है कि किसी समय ये दोनों एक ही समझे जाते थे। २ इनमेसे उत्तरमीमांसाको ब्रह्ममीमासा या वेदान्त भी कहते है, इसके लिए-दे० वेदान्त) । ३. पूर्वमीमांसाके तीन सम्प्रदाय है-कुमारिलभट्टका 'भाट्टमत', प्रभाकर मिश्रका 'प्राभाकरमत' या 'गुरुमत'; तथा मंडन या मुरारी मिश्रका 'मित्रमत' । इनका विशेष परिचय निम्न प्रकार है। २. प्रवर्तक, साहित्य व समय-(स म./परि० ड/४३६) पूर्वमीमांसा दर्शनके मूल प्रवर्तक वेदव्यासके शिष्य जैमिनिऋषि' थे, जिन्होंने ई. पू. २०० में 'जैमिनीसूत्र' की रचना को। ई.श ४ में शबरस्वामी ने इसपर 'शबरभाष्य' लिखा, जो पीछे आनेवाले विचारकों व लेखकोंका मूल आधार बना। इसपर प्रभाकर मिश्रने ई० ६५० में और कुमारिलभट्ट ने ई० ७०० में स्वतन्त्र टीकाएँ लिखी । प्रभाकरकी टीकाका नाम 'वृहती' है । कुमारिलकी टीका तीन भागों में विभक्त है-श्लोकवार्तिक', 'तन्त्रवातिक' और 'तुपटीका'। तत्पश्चात मंडन या मुरारी मिश्र हुए, जिन्होने 'विधिविवेक', 'मीमांसानुक्रमणी' और कुमारिलके तन्त्रवातिकपर टीका लिखी। पार्थसारथिमिश्र ने कुमारिलके श्लोकवार्तिकपर 'न्याय रत्नाकर,' 'शास्त्रदीपिका', 'तन्त्ररत्न' और 'न्यायरत्नमाला' लिखी। सुचारित्र मिश्र ने श्लोकवार्तिक' की टीका और काशिका व सोमेश्वर भट्ट ने 'तन्त्रवार्तिक टीका' और 'न्यायसुधा' नामक ग्रन्थ लिखे। इनके अतिरिक्त भी श्रीमाधवका 'न्यायमालाविस्तर,' 'मीमांसा न्यायप्रकाश', लौगाक्षि भास्करका 'अर्थ सग्रह' और खण्डदेवकी 'भाट्टदीपिका' आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय है। ३. तपच विचार १. प्रभाकरमिश्र या गुरुमतको अपेक्षा-१ पदार्थ आठ है-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय, संख्या, शक्ति व सादृश्य । लक्षणोके लिए--दे० वैशेषिक दर्शन । २ द्रव्य नौ है-पृथिवी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, काल, आत्मा, मन व दिक। आत्मा ज्ञानाश्रय है। मन प्रत्यक्षका विषय नहीं। तम नामका कोई पृथक द्रव्य नही। ३. गुण २१ है-बैशेषिकमान्य २४ गुणों में से संख्या, विभाग, पृथक्त्व व द्वेष ये चार कम करके एक 'वेग' मिलानेसे २१ होते है। सबके लक्षण वैशेषिक दर्शनके समान है। ४. कर्म प्रत्यक्ष गोचर नही है। संयोग व वियोग प्रत्यक्ष है, उनपरसे इसका अनुमान होता है। ५. सामान्यका लक्षण वैशेषिक दर्शनवत् है। ६. दो अयुतसिद्धोमें समवाय सम्बन्ध है जो नित्य पदार्थों में नित्य और अनित्य पदार्थो में । अनित्य होता है। ७. संख्याका लक्षण वैशेषिकदर्शनवत् है। सभी द्रव्यो में अपनी-अपनी शक्ति है, जो द्रव्यसे भिन्न है। ६. जातिका नाम सादृश्य है जो द्रव्यसे भिन्न है। (भारतीय दर्शन।) २. कुमारिल भट्ट या 'भाट्टमत'की अपेक्षा१. पदार्थ दो है-भाव व अभाव । २. भाव चार है-द्रव्य, गुण, कर्म व सामान्य। ३ अभाव चार है-प्राक, प्रध्वंस, अन्योन्य व प्रत्यक्ष । ४. द्रव्य ११ है-प्रभाकर मान्य ह में तम व शब्द और मिलानेसे ११ होते है। 'शब्द' नित्य ब सर्वगत है। 'तम' व 'आकाश' चक्षु इन्द्रियके विषय है। 'आत्मा' व 'मन' विभु, है। ५. 'गुण' द्रव्यसे भिन्न व अभिन्न है। वे १३ है-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, तथा स्नेह । ६. कर्म प्रत्यक्षका विषय है। यह भी द्रव्यसे भिन्न तथा अभिन्न है। ७ सामान्य नामा जाति भी द्रव्यसे भिन्न व अभिन्न है। (भारतीय दर्शन)। ३. मुरारि मिश्र या 'मिश्रमत'की अपेक्षा १. परमार्थतः ब्रह्म ही एक पदार्थ है। व्यवहारसे पदार्थ चार हैधर्मी, धर्म, आधार व प्रदेश विशेष । २. आत्मा धर्मी है। ३. सुख उसका धर्म विशेष है। उसकी पराकाष्ठा स्वर्गका प्रदेश है। (भारतीय दर्शन)। ४. शरीर व इन्द्रिय विचार १. प्रभाकर मिश्र या 'गुरुमत'की अपेक्षा १ इन्द्रियों का अधिकर शरीर है, जो केवल पार्थिव है, रचभौतिक नहीं । यह तीन प्रकारका है - जरायुज, अण्डज व स्वेदज । बनस्पतिका पृथकसे कोई उद्भिज्ज शरीर नहीं है। २. प्रत्येक शरीरमे मन व त्वक ये दो इन्द्रियाँ अवश्य रहती है। मन अणुरूप है, तथा ज्ञानका कारण है। २. कुमारिल भट्ट या 'भाट्टमत' की अपेक्षा मन, इन्द्रियाँ व शरीर तीनों पांचभौतिक है। इनमेंसे मन व इन्द्रियों ज्ञानके करण है। बाह्य वस्तुओं का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा मन ब आत्माके संयोगसे होता है। ५. ईश्वर व जीवात्मा विचार १. 'गुरु' व 'भट्ट' दोनों मतोंकी अपेक्षा ( स म /परि०ड/४३०-४३२,४३३); (भारतीय दर्शन) १. प्रत्यक्ष गोचर न होनेसे सर्वज्ञका अस्तित्व किसी प्रमाणसे भी सिद्ध नहीं है। आगम प्रमाण विवादका विषय होनेसे स्वीकारणीय नही है। (षड् दर्शन समुच्चय/६८/६७-६६) । २ न तो सृष्टि और प्रलय ही होती है और न उनके कर्तारूप किसी ईश्वरको मानना आवश्यक है। फिर भी व्यवहार चलानेके लिए परमात्माको स्वीकार किया जा सक्ता है । ३. आत्मा अनेक है। अहं प्रत्यय द्वारा प्रत्येक व्यक्तिमे पृथक्-पृथक् जाना जाता है व शुद्ध, ज्ञानस्वरूप, विभु व भोक्ता है । शरीर इसका भोगायतन है। यही एक शरीरसे दूसरे शरीरमें तथा मोक्षमें जाता है। यहाँ इतना विशेष है कि प्रभा. कर आत्माको स्वसंवेदनगम्य मानता है. परन्तु कुमारिल ज्ञाता व शेयकों सर्वथा भिन्न माननेके कारण उसे स्वसंवेदनगम्य नहीं मानता। (विशेष-दे० आगे प्रामाण्य विचार ) (भारतीय दर्शन)। ६. मुक्ति विचार १. प्रभाकर मिश्र या 'गुरुमत'की अपेक्षा । १ वेदाध्ययनसे धर्म की प्राप्ति होती है। धर्म तर्क का विषय नहीं। वेद विहित यज्ञादि कार्य मोक्षके कारण है (षड् दर्शनसमुच्चय/६६. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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