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________________ मिथ्यादृष्टि परद्रव्येण कर्मणा सङ्गत्वात्परसमया जायन्ते । =जो व्यक्ति जीवपुद्गलात्मक असमानजातीय द्रव्यपर्यायका, जो कि सकल अविद्याओकी एक जड है, उसका आश्रय करते हुए यथोक्त आत्मस्वभावकी संभावना करने में नपुंसक होनेसे उसीमें बल धारण करते है, वे जिनकी निरर्गल एकान्त दृष्टि उछलती है, ऐसे 'यह मै मनुष्य ही हूँ, मेरा हो यह मनुष्य शरीर है' इस प्रकार अहकार ममकारसे ठगाये जाते हुए अविचलित चेतनाविलासमात्र आत्मव्यवहारसे च्युत होकर, जिसमें समस्त क्रियाकलापको छाती से लगाया जाता है ऐसे मनुष्यव्यवहारका आश्रय करके, रागी द्वेषी होते हुए परद्रव्यरूप कर्म के साथ संगतता के कारण वास्तव में परसमय होते है अर्थात् परसमयरूप परिणमित होते है । ५. मिथ्यादृष्टिकी बाह्य पहचान र.सा./१०६ देहादिसु अणुरत्ता विसयासत्ता कसायसंजुत्ता । अप्पसहावे सुता साहू सम्मपरिचता ११०६ - जो मुनि देहादिमें अनुरत है, विषय कषायसे सयुक्त है, आत्म स्वभाव में सुप्त है, वह सम्यक्त्वरहित मिध्यादृष्टि है। ३.६/१ (जिसको परमाणुमात्र भी राग है यह मिथ्याष्टि है) ( विशेष दे. मिथ्यादृष्टि / ४ ) | दे. श्रद्धान / ३ ( अपने पक्षकी हठ पकडकर सच्ची बातको स्वीकार न करने वाला मिथ्यादृष्टि है ) । पं सं./प्रा./१/६ मिच्छत्तं वेदं तो जीवो विवरीयदंसणो होइ । ण य धम्मं रोषेदिह महर पि रस जहा जरिदो मिध्यात्वको अनुभव करनेवाला जीव विपरीत श्रद्धानी होता है। उसे धर्म नहीं रुचता है, जैसे कि ज्वरयुक्त मनुष्यको मधुर रस भी नहीं रुचता है । (ध.१/ १.१.३/०६/१६२) (ता. / / १००/९४२) (गोजी../१०/४१) । का अ/मू./३१८ दोससहियं पि देव जीव हिसाइ संजुद धम्म । गंथासत्तं च गुरु जो मण्णदि सो हु कुद्दिट्ठी । -जो दोषसहित देवको, जीवहिसा आदिसे युक्त धर्मको और परिग्रह में फँसे हुए गुरुको मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है । दे नियति / १ / २ ( 'जो जिस समय जैसे होना होता है वह उसी समय वैसे ही होता है, ऐसा जो नहीं मानता वह मिथ्यादृष्टि है ) । ६. मिध्यादृष्टिमें औदयिकभावकी सिद्धि - प्रश्न घ.५/१०२/१६४/० विट्ठल्स अग्य विभाषा अस्थि, गाण दसण-गदि-लिंग- कसाय भव्वाभव्वादि-भावाभावे जीवस्स संसारिणो अभावत्पसंगा। तदो मिच्छा दिट्ठिस्स ओदइओ चैव भावो अस्थि, अण्णे भावा णत्थि त्ति णेदं घडदे ण एस दोसो, मिच्छादिस्सि अण्णे भाषा णत्थि ति हुत्ते पडिमेहाभागा किंतु मि मोसूणजे अण्णे गदि लिगादओ साधारणभावा ते मिच्छादिठित्तस्स कारण ण होति । मिच्छत्तोदओ एक्को चैव मिच्छत्तस्स कारण, ते मिच्छादिट्ठत्ति भावो ओदइओ त्ति परुविदो । -! मिथ्यादृष्टिके अन्य भी भाव होते है । ज्ञान, दर्शन, ( दो क्षायोपशमिक भाव ), गति लिग. कषाय (तीन औदयिक भाव), भव्यत्व, अभव्यत्व ( दो पारिणामिक भाव ) आदि भावोके अभाव मानने पर संसारी जीवके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। ( विशेष दे भाव / २ ) । इसलिए मिथ्यादृष्टि जीवके केवल एक औदयिक भाव ही होता है, और अन्य भाव नहीं होते है, यह कथन घटित नहीं होता है ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं; क्योकि, मिथ्यादृष्टिके औदयिक भाव के अतिरिक्त अन्य भाव नहीं होते है,' इस प्रकारका सूत्र में प्रतिषेध नही किया गया है । किन्तु मिथ्यात्वको छोडकर जो अन्य गति लिंग आदिक साधारण ( सभी गुणस्थानोके लिए सामान्य ) भाव हैं. वे मिध्यादृष्टि के कारण नहीं होते है। एक मिथ्यात्वका उदय ही Jain Education International ३०४ २. मिध्यादृष्टिके भावोंकी विशेषता मिथ्यादृष्टित्वका कारण है । इसलिए 'मिथ्यादृष्टि' यह भाव औदयिक कहा गया है। 4.4/1.0.10/206/ सम्मामिच्छत्तराव्यचादिफदयाणमुदमरण - सिमे सम्मत्तसादिकयाणमुदयख तेसि चैन संतोक्तमेण अणुदओवसमेण वा मिच्छत्तसव्व घादिफद्दयाणमुद एण मिच्छाइट्ठी उप्पज्जदित्ति खओवसमिओ सो किण्ण होदि । उच्चदे - ण ताव सम्मत्तसम्मामिच्छत्तदेसघादिफद्दयाणमुदयक्ख ओ संतावसमो अणुदओवसमो वा मिच्छादिट्ठीए कारणं, सव्वहिचारितादो । जं जदो नियमेण उप्पज्जदि त तस्स कारणं, अण्णहा अणवत्थापसंगादो । जदि मिच्छत्तप्पज्जणकाले बिज्जमाणा तक्कारणत्तं पडिवज्जति तो णाण-दंसण असंजमादओ वि तक्कारणं होति । या चेवं तहाविमवहाराभावा मिच्छादिट्ठीए पुण मित्र कारणं, तेण विणा तदणुप्पत्तीए । प्रश्न- सम्यगमिथ्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धको उदयक्षयसे, उन्होंके सदवस्थारूप उपशमसे, सम्यकृति देशमाती स्पर्मको के उदयसे उन्ह सदयस्थारूप उपशमी और मिध्यात्वप्रकृतिके सर्वघाती स्पर्धा उदयसे मिथ्यादृष्टिभाव उत्पन्न होता है, इसलिए उसे क्षयोपशम क्यों न माना जाये । उत्तर-न तो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनो प्रकृतियोंके देशघाती स्पर्धकोंका उदय, क्षय, अथवा सदवस्थारूप उपशम, अथवा अनुदयरूप उपशम मिथ्यादृष्टि भावका कारण है, क्योकि, उस में व्यभिचार दोष आता है। जो जिससे नियमत. उत्पन्न होता है, वह उसका कारण होता है। यदि ऐसा न माना जावे, तो अनवस्था दोषका प्रसंग आता है। यदि यह कहा जाये कि मिथ्यात्वको उत्पत्ति के कालमें जो भाव विद्यमान है, वे उसके कारणपनेको प्राप्त होते है। तो फिर ज्ञान, दर्शन, असंयम आदि भी मिध्यात्वके कारण हो जायेंगे किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि इस प्रकारका व्यवहार नहीं पाया जाता है। इसलिए यही सिद्ध होता है कि मिध्यादृष्टिका कारण मिथ्यात्वका उदय ही है, क्योंकि, उसके बिना मिध्यात्वकी उत्पत्ति नहीं होती है। ३. मिथ्यादृष्टिके भावोंकी विशेषता १. मिध्यादृष्टिके सर्वभाव अज्ञानमय हैं स.सा./मू / १२ अण्णाणमया भावा अण्णाणो चैव जायए भावो । जम्हा तम्हा भावा अण्णाणमया अणाणिस्स । - - अज्ञानमय भावमेंसे अज्ञानमय ही भाव उत्पन्न होता है, इसलिए अज्ञानियोंके भाव अज्ञानमय ही होते है । स.सा./आ./ १२६/क ६७ ज्ञानिनो ज्ञाननिवृत्ता सर्वे भावा भवन्ति हि सर्वे ज्ञाननिता ज्ञानिनस्तु ते । हामी के सर्वभाव ज्ञानसे रचित होते हैं और अज्ञानी के समस्त भाव अज्ञानसे रचित होते है। ये मिध्यादर्शनादि पासता हुआ भी वह पापी है) । मार/ २ / २ (मतादि पालता हुआ भी यह अज्ञानी हैं। २. अज्ञानी के सर्वभाव बन्धके कारण हैं। स. सा/मू./२११ अण्णाणी पुणरतो सञ्चदव्वेसु कम्ममज्भगदो । लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममभे जहा लोहं । २१११ - अज्ञानी जो कि सर्व द्रव्योके प्रति रागी है, वह कर्मोके मध्य रहा हुआ कर्म रजसे लिप्त होता है, जैसे लोहा कीचडके बीच रहा हुआ जंगसे लिप्त हो जाता है। दे. मिध्यादृष्टि /१/१/२ ( मिथ्यादृष्टि जीव सदा परद्रव्यों में रत रहनेके कारण कर्मोंको बाँधता हुआ संसारमें भटकता रहता है) । दे. मिथ्यादृष्टि / २/२ (सांगोपांग धर्म व चारित्रका पालन करता हुआ भी वह संसार में भटकता है ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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