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________________ महेश्वर महेश्वर-महोरग जातीय एक व्यन्तर- दे० महोरग | महोदय दे०विद्यानन्द महोदय । महोरग - १३/२२१४० / ३१९/११ सर्पाकारेण धिकरणप्रिया. महोरगा नाम । = सर्पाकार रूपसे विक्रिया करना इन्हे प्रिय है, इसलिए महोरग कहलाते है । २. महोरग देवोंके भेद ति/६/३८ भुजगा भुजगतासी महत अतिकायासीय मह असणिज महसर गंभीर पियदसणा महोरगया । ३८ - भुजग, भुजगशाली, महातनु, अतिकाय स्कन्धशाली, मनोहर, अशनिजय महेश्वर, गम्भीर और प्रियदर्शन ये दश महोरग जातिके देशोंके भेद है। (शि.सा./२६१)। ★ इसके वर्ण वैभव अवस्थान आदि ६० व्यन्तर ४ मांडलीक - एक किपाबादी- १० क्रियावाद । -- मांस मांसकी अभक्ष्यताका निर्देश दे० भक्ष्याभक्ष्य /२ । १. मांसयाग व्रतके अविचार सा. घ. /३/१२ चर्मस्थमम्भ स्नेहश्च हिग्वसंहृतचर्म च सर्वं च भोज्यं व्यापन्नं दोष' स्यदामिषन्नते । १२ = चमडेमें रखे हुए जल, घी, तेल आदि चमड़ेसे आच्छादित अथवा सम्बन्ध रखनेवाली होंग और स्वादसित सम्पूर्ण भोजन आदि पदार्थोंका खाना मारा स्वाग हमें शेष है। ला सं . / २ / श्लोक - - तद्भेदा बहर सन्ति मादृशां वागगोचरा । तथापि व्यवहारार्थं निर्दिष्टाः केचिदम्याद १०१ - उन अतिचारोंके बहुतसे भेद है जो मेरे समान पुरुषसे कहे जाने सम्भव नहीं हैं, तथापि व्यवहारके लिए आम्नायके अनुसार कुछ भेद यहाँ कहे जाते है | १० | चमडेके बर्तन मे रखे हुए घी, तेल, पानी आदि । ११ । अशोचित आहार्य | १८ | त्रस जीवोंका जिसमें सन्देह हो, ऐसा भोजन | २०| बिना छाना अथवा विधिपूर्वक दुहरे छलनेसे न छाना गया, पी, दूध, तेल, जल आदि २३-२४१ शोधन विधिसे अनभिसाम या शोधन विधिसे परिचित विधर्मके हाथ से तैयार किया गया भोजन २] शोधित भी भोजन यदि मर्यादासे बाहर हो गया है तो । ३२ | दूसरे दिनका सर्व प्रकारका बासी भोजन । ३३ । पत्तेका शाक | ३५॥ पान |३७| रात्रिभोजन | ३८) आसव, अरिष्ट, अचार, मुरब्बेबादि ॥५३॥ रूप, रस, गन्ध व स्पर्शसे चलित कोई भी पदार्थ ॥५६॥ मर्यादित दूध, दही आदि |२०१ २. मांस निषेधका कारण 1 मु. आ / २५३ चत्तारि महावियदि य होति नमणीदमजमंसमधू करमा संगप्पा जनकारीओ एदाओ | १५३३ नवनीत मद्य, मांस और मधु मे चार महा विकृतियों हैं, क्योंकि वे काम मद व हिसा को उत्पन्न करते है । (पु. सि. उ. / ७१ ) । पु. सि. उ. / ६५-६६ न बिना प्राणविघातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । मासं भजतस्तस्मात् प्रसरत्यनिवारिता हिसा । ६५| यदपि किल भवति मासं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादे । तत्रापि भवति हिंसा तदाचित नियोत निर्मधनात् ॥ ६६॥ श्रामास्वपि पश्यास्वपिदिपश्य मानासु मांसपेशी सातत्येनोत्पादस्तातीनां निगोतानां ॥ ६० आमा म प वा खादति यति वा पिशितपेशि समिति सतत निचितं पिण्डं महुजीवकोटीमा १. प्राणियोंके पातके बिना मांसकी उत्पत्ति नही हो सकती, इसलिए मासभक्षीको २९३ Jain Education International मागध अनिवारित रूपसे हिंसा होती है । ६५। २ स्वयं मरे हुए भैंस व बेल आदिके मास भनमें भी हिंसा होती है, क्योंकि तदाश्रित अनन्तो निगो जीनोकी हिंसा वहाँ पायी जाती है। ईद की हो या अग्नि पर पकी हुई हो अग्निपर पक रही हो ऐसी सब ही मासकी पेशियो में, उस ही जातिके अनन्त निगोद जीव प्रति समय निरन्तर उत्पन्न होते रहते है । ६७) इसलिए कच्ची या पकी हुई किसी भी प्रकारको मांसपेशीको खाने या छूने वाला उन करोडों जीवोंका घात करता है । ६ ( यो. सा / अ / ८ /६०-६१ ) | ३. धान्य व मांसको समान कहना योग्य नहीं सा. घ. / २ / १० प्राण्यत्वे समेप्यणं भोज्यं मार्स न धामिके भोग्या विशेषेऽपि जने नाम्बिका ११० (त)पन्द्रयस्य कस्यापि येन्म यथा हि नरकप्राप्तिर्न तथा धान्यभोजनाद धान्यपाके प्राणिवधः परमेोवशिष्यते । गृहिणां देशयमिना स तु नात्यन्तबाधक ॥ यद्यपि मांस व अन्न दोनों ही प्राणी अंग होनेके नाते समान है, परन्तु फिर भी धार्मिक जनोंके लिए मांस खाना योग्य नहीं है जैसे कि स्त्रीपनेकी अपेक्षा समान होते हुए भी पत्नी ही भोग्य है माता नहीं |१०| दूसरी बात यह भी है कि पंचेन्द्रिय प्राणीको मारने या उसका मांस खानेसे जैसी नरक आदि दुर्गति मिलती है वैसी दुर्गति अन्तके भोजन करनेसे नहीं होती । धान्यके पकनेपर केवल एकेन्द्रियका ही घात होता है, इसलिए देशसंयमी गृहस्थोके लिए वह अत्यन्त बाधक नही है । * दूध व मांस समान नहीं है -- दे० भक्ष्याभक्ष्य | * अनेक वनस्पति जीवोंकी अपेक्षा एक नस जीवकी हिंसा ठीक है यह हेतु उचित नहीं दे० हिंसा/२/१ | ४. चर्म निक्षिप्त वस्तु त्यागमें हेतु ला. सं/२/११-१३ चर्मभाण्डे तु निक्षिप्ता घृततै लजलादय । त्याज्या मतस्त्रादीना शरीरपिशिताश्रिता | ११६ म चारा पुनस्तत्र सन्ति यहा न सन्ति ते वायो दुर्गा व्योमचित्र [१२] सर्व सर्वज्ञानेन दृष्ट विश्वचषा बाइया प्रमाणेन माननीय मनोचिभि 1 चमडेके गर्तन में रखे हुए थी, तेल, जलादिका त्याग कर देना चाहिए क्योकि ऐसी वस्तुओ में उस-उस जीवके मासके आश्रित रहनेवाले त्रस जीव अवश्य रहते है । ११। तहाँ ये जीव है या नहीं ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, व्योमचित्रकी भाँति योगेन दिखाई देनेके कारण ि जीव किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है ।१२) तो भी सर्वदेवने उनका वहाँ प्रत्यक्ष किया है और उसीके अनुसार आचार्योंने शास्त्रोने निर्देश किया है. अ. बुद्धिमानोको सर्वशदेवकी आशा मानकर उनका अस्तित्व वहाँ स्वीकार कर लेना चाहिए |१३| ५. सूक्ष्म त्रस जीवोंके भक्षण में पाप = सा. सं/२/१४ नोखमेतावता पापस्माद्वा न स्यादतीन्द्रियात्। अहो मासाशिनोऽम प्रोक्त जैनागमे यत । इन्द्रियो के अगोचर ऐसे सूक्ष्म जीवोके भक्षणसे पाप होता है या नहीं, ऐसी आशंका करना भी योग्य नहीं है, क्योकि मास भक्षण करनेवालोको पाप अवश्य होता है, ऐसा जैनशास्त्र में स्पष्ट उल्लेख है | १४ | ★ विधर्मी से अन्न शोधन न करानेमें हेतु - दे० आहार / २ | मागध -- लवण समुद्रकी ईशान व आग्नेय दिशामें स्थित द्वीप व उसके रक्षक देव | -- दे० लोक / ७ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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