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________________ परमेष्ठी गुणवत २३ परिग्रह परमेष्ठी। जो इद्र, चन्द्र, धरणेन्द्र के द्वारा वन्दित ऐसे परमपदमे तिष्ठता है वह परमेष्ठी होता है । ( स.श./टी./६/२२५) । २. निश्चयसे पंचपरमेष्ठी एक आत्माकी ही पर्याय है मो.पा./५ /१०४ अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेठी। ते वि हु चिट्ठहि आधे तम्हा आदाहु मे सरणं ।१०४।-अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अर साधु ये पंचपरमेष्ठी है. ते भी आत्माविषे ही चेष्टा रूप है, आत्माकी अवस्था है, इसलिए निश्चयसे मेरे आत्मा ही का सरणा है ।१०४। * अन्य सम्बन्धित विषय १. पाँचों परमेष्ठीमें कथंचित् देवत्व-दे० देव/||१। २. अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु-दे० वह वह नाम । ३. आचार्य, उपाध्याय, साधुमें कथंचित् एकता-दे० साधु/६ । ४. सिद्धसे पहले अर्हतको नमस्कार क्यों-दे० मंत्र/२। परमेष्ठी गुणवत-अर्हन्तोके ४६, सिद्धोंके ८: आचार्योके ३६; उपाध्यायोके २५ और साधुओके २८ ये सब मिलकर १४३ गुण है। निम्न विशेष तिथियोमें एकान्तरा क्रमसे १४३ उपवास करे और नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। १४३ गुणोंकी पृथक् तिथियाँअर्डन्त भगवान्के १० अतिशयोकी १० दशमी; केवलज्ञानके अतिशयोंकी १० दशमी, देवकृत १४ अतिशयोंकी १४ चतुर्दशी, अष्ट प्रतिहार्योंकी ८ अष्टमी; चार अनन्तचतुष्टय की ४ चौथ-४६ । सिद्धोके सम्यक्त्वादि आठ गुणोंकी आठ अष्टमी। आचार्योंके बारह तपोकी १२ द्वादशी, छह आवश्यकोंकी ६ षष्ठी; पंचाचारकी पंचमी, दश धर्मोंकी १० दशमी, तीन गुप्तियोंकी तीन तीज-३६ । उपाध्यायके चौदह पूर्वोको १४ चतुर्दशी, ११ अंगोंकी ११ एकादशी-२५ । साधुओके ५ वतकी पाँच पंचमी; पाँच समितियोकी । पचमी, छह आवश्यकोंकी ६ षष्ठी, शेष सात क्रियाओंकी ७ सप्तमी-२८ । इस प्रकार कुल ३ तीज, ४ चौथ, २० पचमी: १२ छठ, ७ सप्तमी, ३६ अष्टमी, नवमी कोई नही, ३० दशमी, ११ एकादशी, १२ द्वादशी, त्रयोदशी कोई नही, २८ चतुर्दशी-१४३। (व्रतविधान संग्रह/पृ.११८ )। परमेष्ठी मंत्र- मंत्र/१/६ । परलोक-प.प्र/ती./११०/१०३/४ पर उत्कृष्टो वीतरागचिदानन्दै कस्वभाव आत्मा तस्य लोकोऽवलोकनं निर्विकल्पसमाधौ वानुभवनमिति परलोकशब्दस्यार्थः, अथवा लोक्यन्ते दृश्यन्ते जोवादिपदार्थाः यस्मिन् परमात्मस्वरूपे यस्य केवलज्ञानेन वा स भवति लोक', परश्चासौ लोकश्च परलोक' व्यवहारेण पुन' स्वर्गापवर्गलक्षण परलोको भण्यते । =१. पर अर्थात उत्कृष्ट चिदानन्द शुद्ध स्वभाव आत्मा उसका लोक अर्थाव अवलोकन निर्विकल्पसमाधिमै अनुभवना यह परलोक है। २. अथवा जिसके परमात्म स्वरूपमें या केवलज्ञानमें जोवादि पदार्थ देखे जावे, इसलिए उस परमात्माका नाम परलोक है । ३. अथवा व्यवहार नयकर स्वर्गमोक्षको परलोक कहते है। ४. स्वर्ग और मोक्षका कारण भगवानका धर्म है, इसलिए केवल) भगवानको मोक्ष कहते है। परवश अतिचार-दे० अतिचार/१। उनके दर्शन जिनके द्वारा 'परोद्यन्ते' अर्थात द्रषित किये जाते है वह राद्धान्त ( सिद्धान्त) परवाद कहलाता है। इस प्रकार परवादका कथन किया। परव्यपदश-स.सि 19/३६/३७२/१ अन्यदातृदेयार्पणं परव्यपदेश । - इस दानकी वस्तुका दाता अन्य है यह कहकर देना परव्यपदेश है। (रा. वा/७/३६/३/५५८/२४); (चा. सा./२७/५) परव्यपदेश नय-दे० नय/HI/५ । परशुराम यमदग्नि तापसका पुत्र ( बृहत् कथाकोष/कथा ५६/१० । परसंग्रह नय-दे० नय/III/४! परसमय-दे० मिथ्यादृष्टि। २ परसमय व स्वसमयके स्वाध्यायका क्रम-दे० उपदेश/३/४-५ । परस्त्रा -दे०स्त्री;२ पर स्त्री गमनका निषेध-दे० ब्रह्मचर्य/३ । परस्थान सन्निकर्ष-दे० सन्निकर्ष । परस्पर कल्याणक व्रत-दे. कल्याणक व्रत । परस्पर परिहार लक्षण विरोध-दे० विरोध । परा--का.अ/मू./१६६ णोसेस-कम्म-णासे अप्प-सहावेण जा समुप्पत्ती। कम्मज-भाव-खए-विय सा विय पत्ती परा होदि ।समस्त कौंका नाश होनेपर अपने स्वभावसे जो उत्पन्न होता है उसे परा कहते है। और कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले भावोके क्षयमे जो उत्पन्न होता है उसे भी परा कहते है ।१६। मो पा./टी /६/३०८/१८ परा उत्कृष्टा । परा अर्थात् उत्कृष्ट । पराजय-शास्त्रार्थ में हार जीत सम्बन्धो-दे० न्याय/२ । परात्मा -स.श./टो.६/२२५/१५ परात्मा ससारिजीवेम्य. उत्कृष्ट आत्मा । ससारीमेसे जो उत्कृष्ट आत्मा बन जाती है उसे परात्मा कहते है। परार्थ प्रमाण-दे० प्रमाण/१ । -दे० अनुमान /१। परावर्त-अशुभ नामकर्मकी २६ प्रकृतिमें-दे०प्रकृति बंध/२ । पराशर-पा.प्र./७/श्लोक-राजा शान्तनुका पुत्र (७६) तथा गागेय (भीष्म ) का पिता था (७८-८०)। एक समय धीवरकी कन्या गुणावतीपर मोहित हो गया। और उसकी सन्तानको ही राज्य मिलेगा' ऐसा वचन देकर उससे विवाह किया (८३-११५) । परिजा-भरत क्षेत्र आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । परिकम-दृष्टिप्रवाद अगका प्रथम भेद-दे० श्रुतज्ञान/III/२. आचार्य कुन्दकुन्द (ई. १२७--१७६) द्वारा षटूखण्डागमके प्रथम तीन खण्डोंपर प्राकृत भाषामें लिखी गयी टीका । (दे०कुन्दकुन्द), (विशेष दे० परिशिष्ट)। परिकमोष्टक-गणित विषयक-सकलन, व्यकलन, गुणकार, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन और घनमूल ये ८ विषय परिकर्माष्टक कहलाते है (विशेष दे० गणित /I11१)। परिगणित-Mathematics. (ज.प./प्र.१०७) । परिगृहीता-स.सि./७/२८/३६८/१। या (स्त्री) एकपुरुषभर्तृका सा परिगृहोता। जिसका कोई एक पुरुष भर्ता है वह परिगृहीता कहलाती है । (रा.वा./७/२८/२/५५४/२८)। परिग्रह-परिग्रह दो प्रकारका है-अन्तरंग व बाह्य । जीवोका राग अन्तरंग परिग्रह है और रागी जीवोंको नित्य ही जो बाह्य पदार्थों परवाव-ध.१३/५,५०१०/२८८/१ "मस्करी-कणभक्षाक्षपाद-कपिलशौद्धोदनि-चार्वाक-जैमिनिप्रभृतयस्तदर्शनानि च परोद्यन्ते दूष्यन्ते अनेनेति परवादो राद्धान्तः । परवादो ति गर्द।" मस्करी, कणभक्ष, अक्षपाद, कपिल, शौद्धोदनि, चार्वाक और जैमिनि आदि तथा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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