SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरण वर्ती जीव मरणके समय मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको प्राप्त होकर ही मरते है। विशेष दे० जम्म १०. देव गतिमें मरण समयको लेश्या घ. ८/३,२५८/३२३/१ मध्ये देवा मुदयखणेण चैव अणियमेण असुहतिलेस्सासु णिवदति अण्णे पुण आइरिया मुददेवाणं सव्वेसि वि काउलेस्साए चैत्र परिणामन्भुपगमादो। सब देव मरण क्षण में ही नियम रहित अशुभ तीन लेश्याओं में गिरते हैं, और अन्य आधामोंके मतमे सब ही मृत देवोंका कापीत लेश्या में ही परिणमन स्वीकार किया गया है। ११. आहारकमिश्र काययोगीके मरण सम्बन्धी ध. १५ / ६४ / ९ आहारसरीरमुट्ठावेंतस्स अपज्जत्तद्वाए मरणाभावादो । • आहारक शरीरको उत्पन्न करनेवाले जीवका अपर्याप्तकालमें मरण सम्भव नहीं है। (और भी दे० मरण/३/२) । गो जी. / / २३०/५०१ अग्वाघादी अंतीमुत्ताहिदी दि पज्जतीसंपुण्णी मरणं पि कदापि संभवई आहारक शरीर अव्याघाती अपाती है, अन्तर्मुहूर्त कालस्थायी है. और पर्याशिपूर्ण हो जाने पर उस आहारक शरीरधारी मुनिका कदाचित मरण भी सम्भव है । । ४. अकाल मृत्यु निर्देश १. कदलीघातका लक्षण भापा // २५ जिस पर अकिलिस्साणं । " आहारुस्सासाणं गिरोहणा खिणए आऊ |१२| = विष खा लेने से, वेदनासे, रक्तका क्षय होनेसे तीच भयमे, शस्त्रपाठसे संपलेकी अधिकता, आहार और श्वास बास रुक जानेसे आयु क्षीण हो जाती है । ( इस प्रकारसे जो मरण होता है उसे कदलीघात कहते है ) ( ध १ / १.१,९ / गा. १२ / २३); (गो क./मू / ५७/५५)। २. बद्धायुष्ककी अकाल मृत्यु सम्भव नहीं घ. १०/४,२,४६२१/२२०/६ परममि आए कपच्या भुजमास् दीघाट जमि जहास चेन वेदेति जाणार' 'कमेण कागदो ति उत्त । परभवियाउअं बंधिय भुजमाणाउए वाज्मिा को दोसो ति उसे ण णणिभुजमागाउस्स अत्तपरभवियाउअउदयस्स चउगहबाहिरस्स जीवस्स अभावप्पसंगादो । = परभव सम्बन्धी आयुके बँधनेके पश्चात् भुज्यमान आयुका कदलीघात नहीं होता, किन्तु वह जितनी भी उतनीका हो वेदन करता है, इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'क्रमसे कालको प्राप्त होकर यह कहा है। प्रश्न- परभविक आयुको बाँधकर भुज्यमान आयुषाघात मानने में कौन सा दोष है । उत्तर-नहीं, क्योंकि जिसको भुज्यमान आयुको निर्जरा हो गयी है. किन्तु अभी तक जिसके आयुका उदय नहीं प्राप्त हुआ है, उम जीवका चतुर्गति बाह्य हो जानेमे अभाव प्राप्त होता है । ३. देव नारकियोंकी अकालमृत्यु संभव नहीं स. ३/२/२०६/१० छेदनमेदनादिभि शनीनामपि तेषां न मरणमकाले भवति । कुतः अनपत्रययुष्कत्वात् । छेदन, भेदन आदिके द्वारा उनका ( नारकियोंका ) शरीर खण्ड-खण्ड हो जाता है, तो भी उनका अकालमें मरण नहीं होता, क्योकि उनकी आयु घटती नहीं है (रावा/३/२/०/१६८/११). (ह. पृ/४/१६४) (म. पु/१०/८२) (जि.सा / ११४) ( और भी दे० नरक/३/६/७) । Jain Education International २८४ ४. अकाल मृत्यु निर्देश ध. १४/५.१.१०९/१६०/६ देवनेर आउअस्स करलीधावाभागादो। - देव और नारकियोंमें आयुका कदमीवात नहीं होता और भी. वे, आयु /५/४) घ. १/१,१,८०/३२१/६ तेषामपमृत्योरसस्वाद । भस्मसाद्भावमुपगतदेहानां तेषां कथं पुनर्मरणमिति चेन्न देहविकारस्या निमित्तत्वात् । अन्यथा बालावस्थात प्राप्तयौवनस्यापि मरणप्रस ङ्गात् । - नारकी जीवोंके अपमृत्युका सद्भाव नहीं पाया जाता है। प्रश्न- यदि उनकी अपमृत्यु नहीं होती है, तो जिनका शरीर भस्मीभावको प्राप्त हो गया है, ऐसे नारकियोंका पुनर्भरण कैसे बनेगा ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, देहका विकार आयु कर्म के विनाशका निमित्त नहीं है । अन्यथा जिसने बाल अवस्थाके पश्चात यौवन अवस्था को प्राप्त कर लिया है, ऐसे जीवको भी मरणका प्रसंग आ जायेगा । ४. मोगभूमियोंकी अकालमृत्यु संभव नहीं दे, आयु./५/४/ (असंख्यात वर्षकी आयुवाले जीव अर्थात् भोगभूमिज मनुष्य तिर्यच अनपम आयुवाने होते हैं।) जप / २ / ११० पढमे विदिये सदिये काले जे होंति माणुसा पवरा । ते अभियुवा एवं तहिं मंडला १०-प्रथम, द्वितीय व तृतीय काल में जो श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं वे अपमृत्युसे रहित और एकान्त सुखों से संयुक्त होते हैं । १६० । ५. चरमशरीरियों व शलाका पुरुषों में अकालमृत्युकी संभावना व असम्भावना घास /२/५/ ( अवतायुष्क मुनियोंका अकालमै मरण नहीं gher) दे. आयु./५/४/ (परमोत्तम देहधारी अनपवर्त्य आयुबाले होते हैं ) । रा. वा /२/५३/६/१५७/२५ अन्त्यचक्रधरवासुदेवादीनामायुषो ऽपवर्त दर्शनादव्याप्ति' । ६न बा; चरमशब्दस्योत्तम विशेषणत्वात् [७] उत्तमग्रहणमेवेति चेदः नः सदनिवृते । चरग्रहणमेवेति चेत्, न तस्योमरणप्रतिपादनार्थस्वाती चरमा इति मा केपांचि पाठ एरोषा नियमेनायुपवस्यमितरेषामनियम प्रश्न-उत्तम देहवाले भी अन्तिम चक्रवर्ती दत्त और कृष्ण वासुदेव तथा और भी ऐसे लोगों की अकाल मृत्यु मुनी जाती है, अत यह लक्षण ही अव्यापी है। उत्तर- चरमशब्द उत्तमका विशेषण है, अर्थात् अन्तिम उत्तम देहवालोंकी अकाल मृत्यु नहीं होती। यदि केवल उत्तम पद देते तो पूर्वोक्तदोष बना रहता है। यद्यपि केवल 'परम' पद देनेसे कार्य चल जाता है, फिर भी उस चरम देहकी सर्वोत्कृष्टता बतानेके लिए उत्तम विशेषण दिया है। वहीं 'चरमदेहा" यह पाठ भी देखा जाता है। इनकी अकालमृत्यु कभी नहीं होती. परन्तु इनके अतिरिक्त अन्य व्यक्तियोंके लिए यह नियम नहीं है। स. बृ./२/५३ / ११०/ परमोडल उतमदेह शरीर येषां ते परमोत्तमदेहा तमश्मनिर्वाणयोग्यास्तीर्थ करपरमदेवा ज्ञातव्या गुरुदत्तपाण्डवादीनामुपसर्गेण मुक्तत्वदर्शनान्नास्त्यनपर्यायुनियम इति न्यायकुमुदचन्द्रोदये प्रभाषन्गोतमस्ति । तथा चोत्तमदेवत्वेऽपि भीमब्रह्मदत्तायुर्दर्शनाव, कृष्णस्य च जरत्कुमारबाणेनापमृत्यदर्शनात सकलार्थ चक्रवतिनामध्यनयन्यनियमो नास्ति इति राजवातिकाद्वारे प्रोत्तमस्ति । चश्मा वर्थ है अन्तिम और उत्तमका अर्थ है उत्कृष्ट । ऐसा है शरीर जिनका वे, उसी भवसे मोक्ष प्राप्त करने योग्य तीर्थकर परमदेव जानने चाहिए, अन्य नहीं; क्योंकि, चरम देही होते हुए भी गरुडदन, पाण्डव आदिका मोक्ष उपसर्ग के समय हुआ है - ऐसा श्री प्रभाचन्द्र आचार्यने न्याय कुमुदचन्द्रोदय नामक ग्रन्थमें कहा है, और उत्तम देही होते हुए भी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy