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________________ मनक २७२ मनुष्य मनरंग लाल-कन्नौज निवासी पल्लीवाल दिगम्बर जैन थे। पिताका नाम कन्नौजीलाल था । कृतियाँ--चौबीस तीर्थकर पूजा पाठ (ई १८५७), नमिचन्द्रका, सप्तव्यसनचरित्र, सप्तर्षिपूजा, शिरवर सम्मेदाचल माहात्म्य । (ई. १८८१) । समय-ई. १८५० १८६० (हिन्दी जैन साहित्य इतिहास/पृ २११/वा. कामताप्रसाद ) । मनशुद्धि- दे० शुद्धि । मनु-१.विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर: २. कुलकरका अपर नाम-दे० शलाका पुरुष/६/३: ध. १/१,१,२/२०/१ मनुज्ञान = मनु ज्ञानको कहते है। न तहि अणु तत् । अथ सयोगविभागाभ्या मन परिणमते, न तहि नित्यम् । . अचेतनत्वाच्च मनस' अनेनै व इन्द्रियेणानेनैव चात्मना संयोक्तव्य नेन्द्रियान्तरैर्न चात्मान्तरै रिति । कर्मवदिति चत, न, कर्मण स्याच्चैतन्यम् स्यादचेतनत्व मिति बिपमा दृष्टान्त' । -प्रश्न-मन अणुरूप एक स्वतन्त्र द्रव्य हे, जो प्रत्येक आरमामे एकएक सम्बद्ध है। उत्तर-१ नहीं, क्योकि, अणुरूप होता हुआ वह सर्वात्मना तो इन्द्रिय व आत्मा दोनोसे युगपत जड नहीं सकता। भिन्नभिन्न देशोसे उन दोनोके साथ सम्बन्ध माननेपर मनका प्रदेशवत्व प्राप्त होता है।-२ आत्मा मनके माथ सर्वात्मना सम्बद्ध हानेपर या तो आत्मा अणुरूप हो जायेगा और या मन विभु बन जायेगा। और एक देशेन सम्बद्ध होनेपर आत्माको प्रदेशवत्व प्राप्त होता है। और ऐसी अवस्थामें वह किन्हीं प्रदेशोमे तो ज्ञानसहित रहेगा और किन्ही प्रदेशो में ज्ञानरहित । ३ इसी प्रकार इन्द्रियाँ मनके साथ सर्वात्मना सम्बध होनेपर या तो इन्द्रिय अणुमात्र हो जायेगी और या मन इन्द्रियप्रमाण हो जायेगा। और एकदेशेन सम्बद्ध होनेपर वह मन अणुमात्र न रह सकेगा। ४ संयोग विभागके द्वारा मनका परिणमन होनेसे वह नित्य न हो सकेगा। अचेतन होनेके कारण मनको यह विवेक कैसे हो सकेगा कि अमुक इन्द्रिय या आत्माके साथ ही सयुक्त होता है, अन्यके साथ नही। यहाँ जैनियोके कर्मका दृष्टान्त देना विषमदृष्टान्त है, क्योकि उनके द्वारा मान्य बह कर्म सर्व था अचेतन नहीं है, बल्कि कथाचित् चेतन व कथ चित् अचेतन ध १३/५,५.१४०/३६१/१० मानुषीसु मैथुनसेवका मनुजानाम | मनु यिनियोके साथ मैथुन कर्म करनेवाले मनुष्य कहलाते है। मनुष्य-मनुको सन्तान होनेके कारण अथवा विवेक धारण करनेके कारण यह मनुष्य कहा जाता है। मोक्षका द्वार होने के कारण यह गति सर्वोत्तम समझी जाती है। मध्य लोकके बीच में ४५०००,०० योजन प्रमाण ढाईद्वीप ही मनुष्यक्षेत्र है, क्योकि, मानुषोत्तर पर्वतके परभागमे जानेको यह समर्थ नही है। ऊपरकी ओर सुमेरु पर्वतके शिखर पर्यन्त इसके क्षेत्रको सीमा है। १३. बौद्ध व सांख्यमान्य मनका निरास रा. वा./५/११/३२-३४/४७२/३३ विज्ञानमिति चेत्, न, तत्सामाभावात् ॥३२॥. वर्तमान ताव द्विज्ञानं क्षणिक पूर्वोत्तरविज्ञानसबन्धनिरुत्सुक कथं गुणदोषविचारस्मरणा दिव्यापारे साचिव्य कुर्यात् । एकसंतानमतित्वात तदुपपत्तिरिति चेत्, न, तदवस्तुत्वाता. प्रधानविकार इति चेत; न, अचेतनत्वात् ।३३। तदव्य तिरेकात्तदभाव ॥३४ा--प्रश्न-(बौद्र) विज्ञान ही मन है और इसके अतिरिक्त कोई पौद्गलिक मन नही है। उत्तर-नही, क्योकि, वर्तमानमात्र तथा पूर्व व उत्तर विज्ञानके सम्बन्धमे निरुत्सुक उस क्षणिक विज्ञानमे गुणदोष विचार व स्मरणादि व्यापारके साचिव्यकी सामर्थ्य नही है। एक सन्तानके द्वारा उसकी उपपत्ति मानना भी नहीं बनता क्योकि सन्तान अवस्तु है । प्रश्न-(सांख्य ) प्रधानका विकार ही मन है, उससे अतिरिक्त कोई पौद्गलिक मन नहीं है। उत्तर नही. क्योकि, एक तो प्रधान अचेतन है और दूसरे उससे अभिन्न होने के कारण उसका अभाव है। | भेद व लक्षण १ । मनुष्यका लक्षण। २ । मनुष्यके भेद । आर्य, म्लेच्छ, विद्याधर व संमूर्च्छन मनुष्य -दे० बह-वह नाम । पर्याप्त व अपर्याप्त मनुष्य-दे० अपर्याप्त । कुमानुष-दे० म्लेच्छ । अन्त:पज । कर्मभूमिज व भोगभूमिज मनुष्य -दे० भूमि । कर्मभूमिज शब्दसे केवल मनुष्योंका ग्रहण -दे० तिर्यच!२/१२। | मनुष्यणी व योनिमति मनुष्यका अर्थ-दे० वेद/३ । नपुसकवेदी मनुष्यको मनुष्य व्यपदेश-दे० वेद/३/५ । स्त्रोवेदी व नपुंसकबेदी मनुष्य-दे. वेद । * अन्य सम्बन्धित विषय १. मनोयोग व उसमें भेद आदि। -(दे० आगे पृथवा शब्द ) २ एकेन्द्रियोंमें मनका अभाव । ३. मनोबल। -दे० प्राण। ४ मनोयोग। -दे० मनोयोग। ५ मन जीतनेका उपाय। --दे० सयम/२। ६ केवलीमें मनके सद्भाव व अभाव सम्बन्धी। --दे० केवली/५। मनुष्यगति निर्देश ऊर्ध्वमुख अधोशाखा रूपसे पुरुषका स्वरूप । मनुष्यगतिको उत्तम कहनेका कारण प्रयोजन । मनुष्योंमें गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणा स्थान आदिके स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणार-दे० सत् । मनुष्यों सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप ८ प्ररूपणाएँ। --दे०वह यह नाम । * मार्गणा प्रकरणमें भाव मार्गणाकी इष्टता तथा उसमे आयके अनुसार व्यय होनेका नियम --दे. मार्गणा। मनुष्यायुके बन्ध योग्य परिणाम-दे० आयु/३ । मनुष्यगति नामप्रकृतिका बन्ध उदय सत्व -दे०वह वह नाम । मनक-द्वितीय नरकका तृतीय या चतुर्थ पटल---दे० नरक/५/११ ! मनचिती अष्टमी व्रत-भादो मुदि आ3 दिन जान । मन चिन्ते भोजन परवान ॥ यह व्रत श्वेताम्बर व स्थानकवासी समाजमे किया जाता है । (व्रतविधान सग्रह/पृ. १२६) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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