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________________ मन १. मन सामान्यका लक्षण स. सि./१/१४/१०/३ अनिन्द्रियं मन अन्त करणमित्यनर्थान्तरम् । = अनिन्द्रिय, मन और अन्त करण ये एकार्थाची नाम है । ( रा. वा./१/१४/२/५६/१६ ); (म्या/भाष्य /१/१/२/१६); न्या. बी./२/१२/११/२) । प्र. सं./टी./१२/३० /१ नानाविकल्पजालरूपं मनो भण्यते । नानाप्रकारके विकल्पजालको मन कहते हैं। (प प्र./टी./२/१६३/२७५/१०), (तत्वबोध / शंकराचार्य ) । अर्थात ठीक प्रकार जानना मन है ।) दे. मन. पर्यय/३/२ ( कारण में कार्य के उपचार से मतिज्ञानको मन कहते है। २. मनके भेद स.सि./२/१२/१७० / ३ मना विविधद्रव्यमनो भावननश्चेति मन दो प्रकारका है - द्रव्यमन व भावमन । ( स सि /५/३/२६६/२:५/११/ २०० / ९ ) ( रा. वा./२/१९/२/१२०/२१३ ४/२/३/४४२/१५/९६/२० ४०१/९) ( १/१. ९.३०/२६१/६) चा सा./८/३) मो. जी./ जी. प्र./६०६/१०१/१०६२ / ६ ) २७० ३. द्रव्य मनका लक्षण स.सि./२/११/१७० / ३ पुद्गलविपाकिकर्मोदयापेक्षं द्रव्यमन' । स.सि./५/२/२६१/४ अन्यमनस्य रूपादियोगाव पुगलद्रव्यविकार. = द्रव्यमन पुद्गलविपाकी नामकर्म के उदय से होता है । ( रा. वा. / २ / ११ / २ / ११२ / २०) (ध. १/१.१.२५/२५६ / ६) रूपादिक गुरु होनेसे द्रव्यमन की पर्याय है (रा.वा./२/२/३/४४२/१०)। विशेष दे मूर्त / १)। ४४३/०६९ हिदि होदि गो.जी. निसियारविंद D वा | अंगोवं गुदयादो मणवग्गणखंघदो णियमा । जो हृदयस्थानमें आठ पीके कमलके आकारवाला है, तथा अंगोपान नामकर्मके उदयसे मनोमा स्कन्धसे उत्पन्न हुआ है हैं (यह अध्यन्त सूक्ष्म तथा इन्द्रियागोचर है स./टी./१२/१०/६); (पं. ५/५/०१३)। - उसे द्रव्यमन ह ० मन ) (.प्र. ४. भावमनका लक्षण मर्यान्तरायनवारणयोपशमापेक्षा स. सि./२/११/१७०/४ आत्मनो विशुद्धिर्भावमन' । स.सि./५/३/२६६/२ तत्र भवमनोज्ञान तस्य जीवगुणस्मादात्मव्यन्तर्भाव । स.सि./५/११/२८७/१ भावमनस्तावल ब्ध्युपयोगलक्षणम् । १. वोर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्मके योपशमकी अपेक्षा रखनेवाले आत्माकी निशुद्धिको भावमन कहते है (रा. ना /२/११/१९/१२५/ २०); ( घ. १ / १,१.३५ / २५६ / ६)। २ भावमन ज्ञानस्वरूप है, और ज्ञान जीवका गुण होनेसे उसका आत्मा में अन्तर्भाव होता है। ( रा. वा./५/३/३/४४२/९ ) । ३. लब्धि और उपयोग लक्षणवाला भावमन है । (रा. बा./५/९६/२०/४७१/२); (गो. जी./जी. प्र. / ६०६/१०६२/६), (बंध / ७१४)। ★ दोनों मन कथंचित् मूर्त व पुद्गल हैं - ३० मूर्त / ५. मावमनका विषय घ. ६/९.१-१.१४/१२/११ पोदिए दिदा -मनमेंट, बुरा अनुभूत पदार्थ नियमित है २८ / २२०/१५)। Jain Education International पियमिदा . १२/२-२० दे० मन / १ (संकल्प-विकल्प करना मनका काम है ) दे० मन / १०,११ (गुण-दोष विचार व स्मरणादि करना) । पं.भ./ /०१५ मूर्तस्य वेदक चमन मन मूर्त और अमूर्त दोनो प्रकारके पदार्थोंको विषय करनेवाला है । विशेष दे, श्रुतज्ञान / २ ) । * मति आदि ज्ञानोंमें मनका निमित्त नाम ★ अपर्याप्त अवस्थामें माव मन नहीं होता । * इन्द्रियोंका व्यापार मनके आधीन है ० ६. द्रव्यमन भावमनको निमित्त है मन -३० प्राण/२/०-८॥ दे० / २ ( भावमनरूपसे परिणत आत्माको गुण दोष विचार व स्मरणादि करनेमें द्रव्यमन अनुग्राहक है। ) दे० प्राण /१/७-८ [ अपर्याप्तावस्थामें द्रव्यमनका अभाव होनेके कारण वहाँ मनोबल नामक प्राण (अर्थात् भावमन) भी स्वीकार नहीं किया गया है।] दे मन / ८ / २ ( इन्द्रियोका व्यापार मनके आधीन है ) । ७. मनको इन्द्रिय व्यपदेश न होनेमें हेतु जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only ध. १/१.१,३५/२६०/५ मनस इन्द्रियव्यपदेश. किन्न कृत इति चेन्न, इन्द्रस्य लिगमिन्द्रियम्।न्द्रियाणामिन माझेन्द्रियग्राह्याभावस्तस्यै न्द्रलिङ्गत्वानुपपत्ते' । प्रश्न- मनको इन्द्रिय सज्ञा क्यो नही दी गयी उत्तर नहीं क्योंकि इन्द्र अर्थात् आत्माके निगको इन्द्रिय कहते है । जिस प्रकार शेष इन्द्रियोंका बाह्य इन्द्रियो से ग्रहण होता है, उस प्रकार मनका नही होता है, इसलिए उसे इन्द्रका लिंग नहीं कह सकते । ८. मनको अनिन्द्रिय कहने में हेतु स.सि./१/१४/१०६/३ कथं पुनरिन्द्रियप्रतिषेधेन इन्द्रलिङ्ग एव मनसि अनिन्द्रियशब्दस्य वृत्तिदर्थस्य 'नमः' प्रयोगात ईषदिन्द्रियमनिन्द्रियमिति । यथा 'अनुदरा कन्या' इति । कथमीषदर्थः । इमामीन्द्रियाणि प्रतिनियतदेशविषयाणि कालान्तरामस्थायीनि च। न तथा मनः इन्द्रस्य लिङ्गमपि सत्प्रतिनियतदेशविषयं कालान्तरावस्थायि च । प्रश्न- अनिन्द्रिय शब्द इन्द्रियका निषेध परक है। अत इन्द्रके लिंग मनमें अनिन्द्रिय शब्दका व्यापार कैसे हो सकता है। उत्तर - यहाँ 'न' का प्रयोग 'ईषद्' अर्थ में किया है, ईषत इन्द्रिय अनिन्द्रिय । ( जैसे अब्राह्मण कहनेसे ब्राह्मणस्व रहित किसी अन्य पुरुषका ज्ञान होता है. वैसे अनिन्द्रिय कहनेसे इन्द्रिय रहिव किसी अन्य पदार्थका बोध नहीं करना चाहिए, बल्कि - रा. वा ) । जैसे 'अनुदरा या यहाँ 'बिना पेट वाली लडकी अर्थ न होकर 'गर्भधारण आदिके अयोग्य छोटी लडकी' ऐसा अर्थ होता है, इसी प्रकार यहाँ 'न' का अर्थ ईषद् ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न- अनिfear में 'न' का ऐसा अर्थ क्यों लिया गया। उत्तर--ये इन्द्रियाँ नियत देशमें स्थित पदार्थोंको विषय करती है और कालान्तर में अनस्थित रहती है किन्तु मन इन्द्रका सिंग होता हुआ भी प्रतिनियत देशमें स्थित पदार्थको विषय नहीं करता और कालान्तर में अवस्थित नहीं रहता (विशेष दे० अगला शीर्षक), (रा.वा./१/ १४/२/११/११ : २/१३/२/१२/१८) । रावा / १/१६/३-४/६६/७ मनसोऽनिन्द्रियव्यपदेशाभाव: स्वविषयग्रहणे करणान्तरानपेक्षत्वाच्चक्षुर्वत् ॥ ३॥ न वा अप्रत्यक्षवाद |४| सूक्ष्मद्रव्यपरिणामात् तस्मादनिन्द्रियमित्युच्यते । रा. बा./२/१३/४/१२/२१ चरादीनां रूपादिविषयोपयोगपरिनामाद प्रा मनसो व्यापार कथम् शुक्लारिणं दिसु प्रथम मनसो .. www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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