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________________ मन: पर्पय मदिणाणेण । कधं मदिणाणस्स मणव्ववएसो कज्जे कारणोवयारादो। मणम्नि भवं लिंगं माणस, अधवा मणो चेव माणसो । पडिविदन्ता चेत्तूण पच्छा मणपज्जवणाणेण जाणदि । मदिणाणेण परेसि मणं घेतून गवाणेण मणम्मि दिये जागदिति मि होदि । मम द्वारा feet wine मनपर्ययज्ञान कालसे विशेषित दूसरोकी सज्ञा, स्मृति, मति आदि पदार्थोंको भी जानता है विशेष दे. मन पम/२/४/९ तथा २/१०/१) (गम १/१२/२४/ १); (रा. वा /९/२३/१८३/३) (१/११/५२) कारण कार्यके उपचारसे यहाँ मतिज्ञानकी मन संज्ञा है । अथवा मनमे उत्पन्न हुए चिह्नको ही मानस कहते है । 'पडिविदत्ता' अर्थात् ग्रहण करके पश्चात् मन:पर्ययके द्वारा जानता है । मतिज्ञानके द्वारा दूसरो के मानसको या द्रव्यमनको - ( सूत्र ७१ की टीका ) ) ग्रहण करके ही (पीछे) मन पर्यय ज्ञानके द्वारा मनमे स्थित अर्थोंको जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । (नोट- उक्त सूत्र ऋजुमतिके प्रकरणका है। सूत्र ७१-७२ में शब्दशः यही बात विपुलमतिके लिए भी कही गयी है ) । दर्शन (उपयोग)/६/३-४ (मनः पर्ययज्ञान अवधिज्ञानकी तरह स्यमुखसे विषयको नही जानता, किन्तु परकीय मनकी प्रणाली से जानता है । अत जिस प्रकार मन अतीत व अनागत अर्थोंका विचार तो करता है, पर देखता नहीं उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानी भी भूत व भविष्यत् को जानता तो है, पर देखता नहीं और इसीलिए इसकी उत्पत्ति दर्शनपूर्वक न मानकर मतिज्ञानपूर्वक मानी गयी है। ईहा मतिज्ञान ही इसका 'दर्शन' है ।) २६८ ध. ६/४,१.१०/६३/३ मदिणाणेण वा सुदणाणेण वा मण वचिकायभेद जादूण पच्छातत्यदिमत्थं पच्चवखेण जाणं तस्स मणपज्जवणाणिस्स दव्या भावभेषण विसओ चउन्निही सत्य उमदी । = मतिज्ञान अथवा श्रुतज्ञानसे मन वचन व कायके भेदोको जानकर पीछे वहाँ स्थित अर्थको जाननेवाले मन पर्यानीका विषय द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावके भेदसे चार प्रकारका है। इनमें ऋजुमतिका विषय यहाँ कहा जाता है और विपुलमतिका अगले सूत्र में कहा गया है । ध. १/१.१,११५ / ३५८/२ साक्षान्मनः समादाय मानसार्थानां साक्षात्करण मन. पर्ययज्ञानम् । = मनका आश्रय लेकर मनोगत पदार्थोंके साक्षात्कार करनेवाले ज्ञानको मन. पर्ययज्ञान कहते है । सं./टी./५/१०/२ स्वकीयमनोऽवलम्बनेन परकीयर्समर्थ देशप्रत्यक्षेण सविकल्प जानाति तदीहा मतिज्ञानपूर्वकं मन. पर्ययज्ञानम् । जो अपने मनके अवलम्बन द्वारा परके मनमे प्राप्त हुए सूपदार्थको एक प्रत्यासविकल्प जानता है वह ईहामतिज्ञान पूर्वक मन:पर्ययज्ञान है। ३. ऋजुमतिमें इन्द्रियों व मनकी अपेक्षा होती है, विपुलमतिमैं नहीं = ध. १३/५.६३/३३३/१ एसो नियमो विजतमस्स अचितिदाणं पि अट्ठा निसईकरणादो। यह (मतिज्ञानसे दूसरे जीवके मानसको जानकर पीछे मन:पर्ययज्ञानसे तद्गत अर्थको जाननेका) नियम विपुलमति ज्ञानका नहीं है, क्योंकि वह अचिन्तित वर्थोंको भी विषय करता है । घ. १३/५,५६२/३३१/६ जदि मणपज्जबणाणमिदिय णोइ दियजोगादिणिरवेक्ख सतं उप्पज्जदि तो परेसि मणवयणकायवावारणिरवेक्ख संत किण्ण उप्पज्जदि । ण विउलमइमणपज्जवणाणस्स तहा उत्पत्ति दसणादो। उज्जुनदिमा तणिरवेणि उपज ण, मन पर्ययज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमस्य बेचिय - प्रश्न- यदि मन पर्ययज्ञान स्पर्शनादिकप्रियो मोहन्द्रिय, Jain Education International २. मन:पर्ययज्ञानमें स्वव पर मनका स्थान और मन वचन काय योग आदिको अपेक्षा किये बिना उत्पन्न होता है, तो वह दूसरो के मन वचन कायके व्यापारको अपेक्षा किये बिना ही क्यो नही उत्पन्न होता (दे० मन पर्यय / २ / ३) उत्तर - नहीं, क्योकि मिल मन ज्ञानकी उस प्रकार उत्पत्ति ली जाती है। प्रश्न- जुमति उसकी अपेक्षा किये बिना क्यों नहीं उत्पन्न होता उत्तर-महीं, क्योकि मन पर्ययज्ञानावरणके यो पशमकी यह विचित्रता है कि जुमति तो इनकी अपेक्षासे जानता है और विद्युतमति अवधिज्ञान प्रत्यक्ष जानता है-गो. स.) (गो. जी. ४४६४४६/८६३) । ४. मनकी अपेक्षामात्र से यह मतिज्ञान नहीं कहा जा सकता स.सि / १/६/१४/४ मतिज्ञानसंग इति चेत न, अपेक्षामाश्रय क्षयोपशमात्र हि तत्व परमनोभिर्व्यपदिश्यते । यथा अभ्रे चन्द्रमसं पश्येति । स. सि. / २ / २३/२२६/११ परकीयमनसि व्यविस्थतोऽर्थ अनेन ज्ञायते इत्येतावदत्रापेक्षते । == प्रश्न- इस प्रकार तो मन:पर्ययज्ञानको मतिज्ञानका प्रसग प्राप्त होता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, यहाँ मनकी अपेक्षामात्र है । यद्यपि वह केवल क्षयोपशम शक्तिसे अपना काम करता है, तो भी स्व व परके मनकी अपेक्षा केवल उसका व्यवहार किया जाता है । यथा- 'आकाश में चन्द्रमाको देखो' यहाँ आकाशकी अपेक्षामात्र होने से ऐसा व्यवहार किया गया है । ( परन्तु मतिज्ञानवत् यह मनका कार्य नही है - रा. वा. ) दूसरेके मन में अवस्थित अर्थको यह जानता है, इतनी मात्र यहाँ मनकी अपेक्षा है । (रा. वा./२/६/५/४४/२४, १/२३/२/०४/१) । ५. मतिज्ञान पूर्वक होते हुए भी इसे श्रुतज्ञान नहीं कहा जा सकता . १२/२०१२/ ३३१/१ चिति कहिये ते दिजादि सो ग वणाणस्स दणाणत पसज्जदि ति बुत्ते-ण एवं रज्जं एसो राया वाकेन्तियाणि वस्सणि मंददि त्ति वितिय एवं चैव बोल्लिदे संते पञ्चखेण रज्जसंताणपरिमाण रायाउट्ठिदि च परिच्छंद तस्स सुदणाणत्तविरोहादो । १२/४५ ०१ / २४२/४ दिनमा मदि होदि तो तरस दापदिति णासंकणिज्य पदवस वर्गहिदाणवगहित्थे वट्टमाणस्स मणप्रज्जवणाणस्स सुदभावविरोहादो । १ प्रश्नचिन्तित अर्थ को कहनेपर यदि ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान जानता है तो उसके श्रुतज्ञानपना प्राप्त होता है। उत्तर-नहीं, क्योकि, यह राज्य या यह राजा कितने दिन तक समृद्ध रहेगा, ऐसा चिन्तवन करके ऐसा ही कथन करनेपर यह ज्ञान कि यो राज्यपरम्पराकी मर्यादाको और राजाकी आयुस्थितिको जानता है, इसलिए इस ज्ञानको तहान माननेमें विरोध आता है प्रश्न यदि मन:पर्ययज्ञान मतिपूर्वक होता है, तो उसे श्रुतज्ञानपना] प्राप्त होता है। उत्तरऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि अवग्रहण किये गये और नही अग्रहण किये गये पदार्थोंमे प्रवृत्त होनेवाले और प्रत्यक्षस्वरूप मन पर्यज्ञानको थुतज्ञान माननेमें विरोध आता है। ६. मन:पर्ययज्ञान इन्द्रिय निरपेक्ष है ध. १३/५,५,२१/२१२/ ओहिणाण व एदं पि पञ्चक्ख अणिदियजन्त्तादो । = अवधिज्ञानके समान यह ज्ञान भी प्रत्यक्ष है, क्योंकि, यह इन्द्रियो से नहीं उत्पन्न होता है । - ( विशेष दे, प्रत्यक्ष ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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