SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मनःपर्यय २६३ १. मनःपर्ययज्ञान सामान्य निर्देश नहीं उपलब्ध होता है। पहिला पक्ष माननेपर कालका भी प्रत्यक्ष होना चाहिए, क्योकि, अन्यथा 'इतने कालमें सुख होगा या इतने काल तक सुख रहेगा; यह नहीं जाना जा सकता। परन्तु कालका मन पर्यय ज्ञानके द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान होता नहीं है क्योकि, उसकी अमूर्त पदार्थ मे प्रवृत्ति माननेमें बिरोध आता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, यहाँपर व्यवहार कालका अधिकार है । दूसरे, काल संज्ञावाले मूर्त द्रव्योंका (सूर्य, नेत्र, घडी आदिका) परिणाम अमूर्त ही होता है, ऐसा कोई नियम भी नहीं है, क्योंकि वैसा माननेपर अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है। प.क्षेत्रगत विषय सम्बन्धी स्पष्टीकरण २. द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावकी अपेक्षा त.स/१/२८ तदनन्तभागे मन पर्ययस्य । -(द्रव्यकी अपेक्षा) मन: पर्ययज्ञानकी प्रवृत्ति अवधिज्ञानके विषयके अनन्तवें भागमें होती है। (त सा./१/३३)। ध.१/१,१,२/१४/५ दव्वदो जहण्णेण एगसमयओरालियसरीरणिज्जर जाणदि । उक्कस्सेण एगसमयपडिबद्धस्स कम्मइयदब्वस्स अणं तिमभाग जाणदि । खेत्तदो जहण्णेण गाउवधत्तं, उक्कस्सेण माणुसखेत्तस्संतो जाणदि, णो बहिदा। कालदो जपणेण दो तिण्णि भवग्गहणाणि। उक्कस्सेण असंखेज्जाणि भवग्रहणाणि जाणादि। -मन'पर्ययज्ञान द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य रूपसे एक समयमें होनेवाले औदारिक शरीरके निर्जरारूप द्रव्य तकको जानता है। उत्कृष्ट रूपसे कार्मण द्रव्यके अर्थात आठ कर्मोके एक समयमें बंधे हुए समयप्रबद्ध रूप द्रव्यके अनन्त भागों में से एक भाग तकको जानता है। क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्यरूपसे गव्यूति पृथक्त्व अर्थात दो तीन कोस तक क्षेत्रको जानता है और उत्कृष्ट रूपसे मनुष्य क्षेत्रके भीतर तक जानता है, उसके बाहर नहीं। कालकी अपेक्षा जघन्य रूपसे दो तीन भवोको और उत्कृष्ट रूपसे असंख्यात भवोंको जानता है ।(भावकी अपेक्षा द्रव्य प्रमाणसे निरूपण किये गये द्रव्यकी शक्तिको जानता है) ३. मनःपर्ययज्ञानकी त्रिकाल ग्राहकता २० लक्षण नं०१ (दूसरेके मनको प्राप्त ऐसे चिन्तित अचिन्तित अर्धचिन्तित व चिन्तित पूर्व सब अर्थोंको जानता है-और भी दे० मन पर्यय/२/१०)। दे० मन पर्यय/२/४,१० (अतीतविषयक स्मृति, वर्तमानविषयक चिन्ता और अनागत विषयक मतिको जानता है। इस प्रकार वर्तमान जीवके मनोगत त्रिकाल विषयक अर्थ को जानता है।) १. मूर्त द्रव्यग्राही मनःपर्यय द्वारा जीवके अमूर्त मार्यो का ग्रहण कैसे घ. १३/५,५,६३/३३३/५ अमूत्तो जीवो कधमणपज्जवणाणेण मुत्तट्ठपरिच्छेदियोहिणाणादो हेठियेण परिच्छिज्जदे। ण मुत्तट्टकम्मेहि अणादिबंधणबद्धस्स जीवस्स अमुत्तत्ताणुववत्तीदो। स्मृतिरमूर्ता चेत-न, जीवादो पुधभूदसदीए अणुवलंभा। -प्रश्न-यत' जीव अमूर्त है अतः वह मूते अर्थको जाननेवाले अवधिज्ञानसे नीचेके मन पर्यय ज्ञानके द्वारा कैसे जाना जाता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, संसारी जीव मूर्त आठ कर्मोंके द्वारा अनादि कालीन बन्धनसे बद्ध है, इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता। प्रश्न-स्मृति तो अमूर्त है । उत्तर-नहीं, क्योंकि, स्मृति जीबसे पृथक् नहीं उपलब्ध होती है। ५. मूर्तग्राही मनःपर्यय द्वारा अमूर्त कालव्य सापेक्ष मावोंका ग्रहण कैसे ध.१३/५,५,६३/३३४/५ एत्तिए णकालेण सुह होदि त्ति कि जाणादि आहो ण जाणादि त्ति। विदिएण पचक्खेण सुहावगमो, कालपमाणावगमाभावादो। पढमपक्रखे कालेण वि पचक्खेण होदव्वं, अण्णहा सुहमेत्तिएण कालेण एत्तियं वा काल होदि त्ति वोत्तमजोगादो। ण च कालो मणपज्जवणाणेण पच्चक्खमवगम्मदे, अमुत्तम्मि तस्स बुत्तिविरोहादो त्ति । ण एस दोसो, बवहारकालेण एत्थ अहियारादो। ण च मुत्ताणं दव्याण परिणामो कालसण्णिदो अमुत्तो चेव होदि ति णियमो अस्थि, अव्ववत्थावत्तीदो। -प्रश्न-इतने कालमें सुख होगा, इसे क्या वह जानता है अथवा नही जानता। दूसरा पक्ष स्वीकार करनेपर प्रत्यक्षसे सुखका ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि, उसके कालका प्रमाण घ.६/४,१,११/६७/१० एगागाससेडीए चेव जाणदि त्ति के वि भणति । तण्ण घडदे, देव-मणुस्सविज्जाहराइसु णाणस्स अप्पउत्तिपसंगादो। 'माणुसुत्तरसेलस्स अभंतरदो चेव जाणेदि णो बहिद्धा' त्ति वग्गणसुत्तेण णिविट्ठादो माणुसखेत्तअभंतरट्ठिदसव्वमुत्तिदव्वाणि जाणदि णो बाहिराणि त्ति के वि भणं ति । तण्ण घडदे, माणुस्सुत्तरसेलसमावे ठइदूण बाहिरदिसाए कओवयोगस्स णाणाणुप्पत्तिप्पसंगादो। होदु च ण, तदणुप्पत्तीए कारणाभावादो। ण ताव खोवसमाभावे... अणि दियस्स पच्चक्खस्स...माणुमुत्तरसेलेण पडिघादाणुववत्तीदो। तदो माणुसुत्तरसेलब्भतरवयणं ण खेतणियामयं, कितु माणुमुत्तरसेलम्भतरपणदालीसजोयणलवरवणियामयं, विउल मदि मदिमणपज्जयणाणुज्जोयसहिदखेत्ते धणागारेण ठइदे पणदालीसजोयणलक्खमेत्तं चेव होदि त्ति। -आकाशकी एक श्रेणीके क्रमसे ही जानता है ऐसा कितने ही आचार्य कहते है, किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर देव, मनुष्य एवं विद्याधरादिकोमें विपुलमति मन'पर्ययज्ञानकी प्रवृत्ति न हो सकनेका प्रसंग आवेगा। 'मानुषोत्तरदौलके भीतर ही स्थित पदार्थको जानता है, उसके बाहर नही' (दे० मन पर्यय/२/१०/३) ऐसा वर्गणासूत्र द्वारा निर्दिष्ट होनेसे, मनुष्यक्षेत्रके भीतर स्थित सब मूर्त द्रव्योको जानता है, उससे बाह्यक्षेत्रमें नहीं; ऐसा कोई आचार्य कहते है। किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योकि, ऐसा स्वीकार करनेपर मानुषोत्तर पर्वतके समीपमें स्थित होकर बाह्य दिशामें उपयोग करनेवालेके ज्ञानकी उत्पत्ति न हो सकनेका प्रसंग होगा। यह प्रसंग आवे तो आने दो, यह कहना भी ठीक नही, क्योकि, उसके उत्पन्न न हो सकनेका कोई कारण नहीं है। क्षयोपशमका तो अभाव है नही. और न ही मन पर्ययके अनिन्द्रिय प्रत्यक्षका मानुषोत्तर पर्वतसे प्रतिघात होना सम्भव है। अतएव 'मानुषोत्तर पर्वतके भीतर' यह वचन क्षेत्र नियामक नहीं है, किन्तु मानुषोत्तर पर्वतके भीतर ४५००,००० योजनोका नियामक है. क्योंकि, विपुल मतिज्ञानके उद्योत सहित क्षेत्रको घनाकारसे स्थापित करनेपर ४५०००,०० योजन मात्र ही होता है। (इतने क्षेत्रके भीतर स्थित होकर चिन्तवन करनेवाले जीधोके द्वारा विचार्यमाण दव्य मनःपर्ययज्ञानकी प्रभासे अवष्टब्ध क्षेत्रके भीतर होता है, तो जानता है, अन्यथा नही जानता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है-(ध. १३); (ध. १३/५,५,७७/३४३/8): (गो, जी /जी प्र/४५६/८६६/१५)। ७. मनःपर्ययज्ञानके भेद पं का./ता, वृ./ प्रक्षेपक गाथा/४३-४ विउलमदि पुण णाणं अज्जवणाणं च दुविह मणणार्ण । -मन.पर्ययज्ञान दो प्रकारका है-अजुमति और विपुलमति । (म.बं. १/६२/३), (दे० ज्ञानावरण/३/२); (त. सू. १/२३); (स.सि./१/२३/१२६/७); (रा. वा/१/२३/६/०४/२७); (ह. पु/१०/१५३), (क. पा. १/१-१/१४/२०/१); (ध.६/१,६-१, १४/२८/७), (ज. १/१३/५२); ( गो, जी /मू /४३६/८५८)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy