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________________ मतिज्ञान अथवा ततोऽनादमतिस्मृत्यादयोऽसाधारणत्वा अन्यज्ञानासभाविनोऽभिनिबोधादनन्यत्वात्तस्य लक्षणम् । इतश्च पर्यायशब्दो [[]][कस्मात् कामतिः या स्मृतिरिति उत स्मृतिरिति गला बुद्धि प्रत्यागच्छति का स्मृति या मतिर्शित। एवमुत्तरेष्वपि । ४. यदि शब्दमेव भव है तो शब्द अभेदसे अर्थ अमेव भी होना चाहिए। और इस प्रकार पृथिवी आदि ग्यारह शब्द एक 'गो' अर्थके वाचक होनेके कारण एक हो जायेंगे । ५ अथवा मतिज्ञानावरण से उत्पन्न मतिज्ञानसामान्यकी अपेक्षासे अथवा एक आत्मद्रव्यकी दृष्टिसे मध्यादि अभिन्न है और प्रतिनियतस तव पर्यायही दृष्टिसे भिन्न है। जैसे- मननं मति", "स्मरणं स्मृति इत्यादि । प्रश्न- ६, मति आदि आभिनिबोधके पर्यायवाची शब्द है । वे उसके लक्षण नहीं हो सकते, जैसे मनुष्य, मानव, मनुज आदि शब्द मनुष्यके लक्षण नहीं है। उत्तर-नहीं, क्योकि, वे सब अनन्य है । पर्याय पर्यायी से अभिन्न होती है। इसलिए उसका वाचक शब्द उस पर्यायीका लक्षण होता है, जैसे अग्निका लक्षण उष्णता है। उसी प्रकार मति आदि पर्यायवाची शब्द अभिनिबोधिक सामान्य ज्ञानात्मक मतिज्ञानरूप पर्यायीके लक्षण होते है, क्योंकि, वे उससे अभिन्न है । ७ मतिज्ञान कौन' यह प्रश्न होनेपर बुद्धि तुरन्त दौड़ती है कि जो स्मृति आदि' और 'स्मृति आदि कौन ऐसा कहनेपर 'जो मतिज्ञान' इस प्रकार गत्वा प्रत्यागत न्यायसे भी पर्याय शब्द लक्षण बन सकते है । ५. स्मृति और प्रत्यभिज्ञान में अन्तर न्या. दी./३/११०/२७/३ केचिदाहु - अनुभवस्मृतिव्यतिरिक्त प्रत्यभिज्ञानं नास्तीति तत्सतः अनुभवस्य वर्त्तमानकालवनिवर्तमात्र प्रकाशकत्वम् स्मृतेश्चाविव संयोकत्यमिति तावद्वस्तुगत | कथ' नाम तयोरतीत वर्त्तमान संकलिते क्यसादृश्यादिविषयावगाहित्वम् । तस्मादस्ति स्मृत्यनुभवातिरिक्तं तदनन्तरभा बिस कलनज्ञानम् । तदेव प्रत्यभिज्ञानम् । प्रश्न-अनुभव और स्मरणसे भिन्न प्रत्यभिज्ञान नहीं है। उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनुभव तो वर्तमानकालीन पर्यायको ही विषय करता है और स्मरण भूतकालीन पर्यायका ही चोतन करता है। इसलिए ये दोनो अतीत और वर्तमान पर्यायो में रहनेवाली एकता सदृशता आदिको कैसे विषय कर सकते हैं। अत स्मरण और अनुभव से भिन्न उनके भाव होनेवासा तथा उन एकता सहता आदिको विषय करनेवाला जो जोडरूप ज्ञान होता है, वही प्रत्यभिज्ञान है । ६. स्मृति आदिको अपेक्षा मतिज्ञानका उत्पत्तिक्रम न्या. दी / ३ / ९३ / ५३ तत् पञ्चविधम्-स्मृति, प्रत्यभिज्ञानम्, तर्क, अनुमानम् आगमश्चेति । पञ्चविधस्याप्यस्य परोक्षस्य प्रत्ययान्तरसापेन वपत्ति तद्यथा-स्मरणस्य प्राक्तनानुभवापेक्षा, प्रत्यभिज्ञानस्य स्मरणानुभवापेक्षा तर्कस्यानुभवस्मरणप्रत्यभिज्ञानापेक्षा, अनुमानस्य च निदर्शनाद्यपेक्षा । २५४ • न्या दी./३/३ नं. / पृष्ठ न. अवग्रहाद्यनुभूतेऽपि धारणाया अभावे स्मृतिजननायोगात । तदेतद्धारणाविषये समुत्पन्नं तत्तोल्लेखिज्ञानं स्मृतिरिति । (5४/२१)। अनुस्मृतिहेतुक संकलनात्मक ज्ञान प्रत्यभिज्ञान (24) अत्र सर्वत्राप्यनुभवस्मृतिसाद - तुकम्प | ( SE / ५० ) | स्मरण प्रत्यभिज्ञानमयदर्शन प्रस् च मिलित्वा तादृशमेकं ज्ञानं जनयन्ति यद्वयाप्तिग्रहण समर्थमिति, एम (१९०/६४) ज्ञानं व्यातिस्मरणादिसहकृतमनुमानोत्पत्ती निवन्धन मिसमैच । (११०/६०)। परोक्ष प्रमाणके पाँच मेद स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क अनुमान और आगम ये पाँचो हो परोक्ष प्रमाण ज्ञानान्तरकी अपेक्षासे उत्पन्न होते है। स्परणमें Jain Education International ४. एक बहु आदि विषय निर्देश पूर्व अनुभवकी अपेक्षा होती है, प्रत्यभिज्ञानमें स्मरण और अनुभवकी तर्कमे अनुभव स्मरण और प्रत्यभिज्ञानकी और अनुमानमें लिग दर्शन, व्याप्तिस्मरण आदिकी अपेक्षा होती है । पदार्थ मे अवग्रह आदि ज्ञान हो जानेपर भी (दे० मतिज्ञान /३/२) धारणाके अभाव में स्मृति उत्पन्न नही होती। इसलिए धारणाके विषयमें उत्पन्न हुआ 'वह' शब्द से उल्लिखित होनेवाला यह ज्ञान स्मृति है, यह सिद्ध होता है। अनुभव और स्मरणपूर्वक होनेवाले जोडरूप ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते है। सभी प्रत्यभिज्ञानोमे अनुभव और स्मरणकी अपेक्षा होने से उन्हे अनुभव और स्मरण हेतुक माना जाता है। स्मरण प्रत्यभिज्ञान और अनेकों बारका हुआ प्रत्यक्ष ये तोनों मिलकर एक वैसे ज्ञानको उत्पन्न करते है, जो व्याप्तिके ग्रहण करनेने समर्थ है, और वहाँ तर्क है उसी प्रकार उपाप्तिस्मरण आदि सहित होकर गिज्ञान अनुमानकी उत्पत्ति में कारण होता है। भागार्थ (विषय विषयोंके जितके अनन्तर क्रम उस सम्बन्धी दर्शन, अमग्रह, ईहा और अवाय पूर्वक उस विषय सम्बन्धी धारणा उत्पन्न हो जाती है, जो कालान्तर में उस विषय के स्मरणका कारण होता है। किसी समय उसी विषयका या वैसे ही विषयका प्रत्यक्ष होनेपर तत्सम्बन्धी स्मृतिको साथ लेकर 'यह वही है' या 'यह वैसा ही है' ऐसा प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता है। पुन' पुन' इसी प्रकार अनेको बार उसी विषयका प्रत्यभिज्ञान हो जानेपर एक प्रकारका व्याप्तिज्ञान उत्पन्न हो जाता है, जिसे तर्क कहते है। जैसे जहाँ धूम होगा वह अग्नि अवश्य ही होगी', ऐसा ज्ञान। पीछे किसी समय इसी प्रकारका कोई लिंग देखकर उस तर्क के आधारपर लिगी जान लेना अनुमान है। जैसे पर्वतमे धूम देखकर यहाँ अग्नि अवश्य है' ऐसा निर्णयात्मक ज्ञान हो जाता है। उपरोक्त सर्व विकल्पों से तर्क पर्यन्तके सर्व विकल्प गतिज्ञान भेद है जो उपरोक्त क्रमसे ही उत्पन्न होते है, अक्रमसे नहीं। तर्क पूर्वक उत्पन्न होनेवाला अन्तिम विकल्प अनुमान तज्ञानके आधीन है। इसी प्रकार किसी शब्दको सुनकर वाच्यवाचकको पूर्व गृहीत व्यासिके आधारपर उस शब्द वाच्यका ज्ञान हो जाना भी श्रुतज्ञान है ।) ४. एक बहु आदि विषय निर्देश १. बहु व बहुविध ज्ञानोंके लक्षण स.सि./१/१६/११२/५ नहुशन्दस्य संख्याने पुश्यामि ग्रहणमदि वाद संख्यावाची यथा एको हो महनइति यवाची यथा महुरोदनो महसूप इति 'निधशष्य प्रकारयाची' 'बहु' शब्द सख्यानाची और पुण्यवाची दोनों प्रकारका है। इन दोगीका यहाँ ग्रहण किया है, क्योकि उनमे कोई विशेषता नहीं है । संख्यावाची 'बहु' शब्द यथा - एक, दो, बहुत 1 वैपुल्यवाची बहु शब्द यथाबहुत भात, बहुत दाल । 'विध' शब्द प्रकारवाची है । ( जैसे बहुत प्रकारके घोडे, गाय, हाथी आदि-४८ /६/१३. गो जी.) (रावा./१/१६/१/६२/१२.६/१२/१४). (प. १ / १.१-१-१४/११/३-२०/१): (घ. ६/४.१.४५ / १४६/१. १५१/४): (. १२/४,१.२२/२२२/१,२२७/१). (गो. जी / जी. प्र / ३११/६६७/११) । रा.वा./१/१६/१६/६३/२८ प्रकृष्ट क्षयोपशम उपलम्भात् युगपत्सतवि ततपनसुधिरादिशब्दश्रवणाइ बहुब्धमयगृहातितादिशि पस्य प्रत्येकमेकद्वित्रिचतु संख्यस्यैयामन्त गुणस्थानकवाद विधनगृहाति एवं धागाद्यवयपि योज्य / ६५६ ) 1 - द्रावरणादिका प्रकृष्ट क्षयोपशम होनेपर युगपत् तत, वित, घन, सुषिर आदि बहुत शब्दोको सुनता है, तथा तत आदि शब्दो के एक दो तीन चार संख्यात असंख्यात अनन्त प्रकारोको ग्रहण कर बहुविध शब्दोको जानता है । इसी प्रकार घ्राणादि अन्य इन्द्रियोमे भी लागू करना चाहिए (भ. १३/५.२.१/२१०/२) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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