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________________ मंगल २४३ २. मंगल निर्देश व तद्गत शंकाएं भी मंगल किया जाता है। इसके अतिरिक्त इष्टदेवताको नमस्कार करनेसे प्रत्युपकार किया जाता है अर्थात देवताकृत उपकारको स्वीकार किया जाता है । कहा भी है-परमेष्ठीकी कृपासे मोक्षमार्गकी प्राप्ति होती है। इसीलिए शास्त्रके आदिमे मुनिजन उनके गुणोका स्तवन करते हैं। इच्छित फलकी सिद्धिका उपाय सम्यग्ज्ञान है और वह सच्चे शास्त्रोसे होता है। शास्त्रोकी उत्पत्ति आप्तसे होती है। इस लिए उनके प्रसादसे ही ज्ञानको प्राप्ति हुई होनेसे वे पूज्य है, क्योकि, किये गये उपकारको साधुजन भूलते नही है। यह सूत्र है और परिशेष न्यायसे मगल भी है। तब फिर इसमे अलगसे मंगल क्यो किया गया। उत्तर-सूत्रके आदिमें मंगल किया गया है तथापि पूर्वोक्त दोष नहीं आता है, क्योकि, सूत्र और मगल इन दोनोसे पृथक् पृथक् रूपमें पापोंका विनाश होता हुआ देखा जाता है। निबद्ध और अनिबद्ध मंगल पठनमें आनेवाले विघ्नोको दूर करता है, और सूत्र प्रतिसमय असख्यात गुणित श्रेणीरूपसे पापोका नाश करके उसके पश्चात सम्पूर्ण काँके क्षयका कारण होता है । प्रश्न-देवता नमस्कार भी अन्तिम अवस्थामें सम्पूर्ण कर्मोका क्षय करनेवाला होता है, इसलिए मगल और सूत्र दोनो ही एक कार्य को करनेवाले है, फिर दोनोका कार्य भिन्न-भिन्न क्यो बतलाया गया । उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, सूत्रकथित विषयके परिज्ञानके बिना केवल देवता नमस्कार में कर्मक्षयको सामर्थ्य नहीं है। मोक्षकी प्राप्ति शुक्लध्यानसे होती है, परन्तु देवता नमस्कार तो शुक्लध्यान नहीं है। ध/४,१,१/३/२ दबसुत्तादो तप्पढण-गुणण किरियावावदाणं सबजीवाणं पडिसमयमसखेज्जगुण सेढीए पुव्वसचिदकम्मणिज्जरा होदि त्ति णिप्फल मिदि सुत्तमिदि । अह सफलमिद, णिप्फलं सुत्तज्झयण, तत्तो समुवजायमाण कम्मरवयस्स एत्थेवोवल भो त्ति । ण एस दोसो, सुत्तयज्झयणेण सामणकम्मणिज्जरा करिदे; एदेण पुण सुत्तज्झयणविग्घफलकम्मविणासो कीरदि त्ति भिण्ण विसयत्ताद। मुत्तज्झयणविग्धफलकम्मविणासो सामण्ण कम्मविरोहिसुत्तब्भासादो चेव होदि 'त्ति मगलसुत्तार भो अणत्थओ किण्ण जायदे । ण, सत्तत्थावगमब्भासविग्धफलकम्मे अविण8 सते तदवगमम्भासाणमसभवादो।-प्रश्न'द्रव्यसूत्रोसे उनके पढने और मनन करने रूप क्रियामे प्रवृत्त हुए सब जीवोके प्रति समय असख्यात गुणित श्रेणीरूपसे पूर्व सचित कर्मो की निर्जरा होती है। इस प्रकार विधान होनेसे यह जिननमस्कारात्मक सूत्र व्यर्थ पडता है। अथवा, यदि यह सूत्र सफल है तो सूत्रोका अर्थात शारत्रका अध्ययन व्यर्थ होगा, क्योंकि उससे होनेवाला कर्मक्षय इस जिननमस्कारात्मक सूत्रमे ही पाया जाता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है क्योकि सूत्राध्ययनसे तो सामान्य कर्मोकी निर्जरा को जाती है, और मगलसे सूत्राध्ययनमें विघ्न करनेवाले कर्मोका विनाश किया जाता है, इस प्रकार दोनोका विषय भिन्न है । प्रश्नचॅकि सुत्राध्ययनमें विघ्न करनेवाले कर्मों का विनाश सामान्य कर्मों के विरोधी सूत्राभ्याससे ही हो जाता है, अतएव मंगलसूत्रका आरम्भ करना व्यर्थ क्यो न होगा । उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, सूत्रार्थके ज्ञान और अभ्यासमें विघ्न उत्पन्न करनेवाले कर्मोंका जब तक विनाश न होगा तब तक उस ( सूत्रार्थ) का ज्ञान और अभ्यास दोनो असम्भव है । और कारणसे पूर्वकालमें कार्य होता नहीं है, क्योकि वैसा पाया नहीं जाता। पं.का./ता, बृ./१/4/- शास्त्रं मङ्गलममङ्गल वा। मङ्गल चेत्सदा मङ्गलस्य मङ्गल कि प्रयोजनं, यद्यमङ्गल तहि तेन शास्त्रेण कि प्रयोजन । आचार्या परिहारमाहु -भवत्यर्थ मङ्गलस्यापि मङ्गल क्रियते । तथा चोक्तम्-प्रदोनार्चयेदकमुदकेन महोदधिम्। वागीश्वरा तथा वाग्भिमंगलेनैव मङ्गलम् । किच इष्टदेवतानमस्कारकरणे प्रत्युपकार कृत भवति । तथा चोक्त-श्रेयोमार्गस्य संसिद्धि प्रसादात्परमेष्ठिन.। इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ मुनिपुगवा' । अभिमतफल सिद्धरभ्युपायः सुबोधः, स च भवति सुशास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धिर्न हि कृतमुपकार साधवो विस्मरन्ति । प्रश्न-शास्त्र मगल है या अमगल । यदि मगल है तो मगलका भी मंगल करनेसे क्या प्रयोजन । और यदि वह अमगल है तो ऐसे शास्त्रसे ही क्या प्रयोजन ? उत्तर-भक्ति के लिए मगलका भी मंगल किया जाता है। कहा भो है--दीपकसे सूर्यकी, जलसे सागरकी तथा वचनोसे वागीश्वरीकी पूजा की जाती है, इसी प्रकार मगलसे मगलका ६. मंगल व निर्विघ्नतामें व्यभिचार सम्बन्धी शका ध.६४,१,१/५/१ मंगलं काऊण पारद्धकज्जाणं कहि पि विग्घुवलंभादो तमकाऊण पारद्धकज्जाणं पि कत्थ वि विग्धाभावदसणादो जिणिदणमोक्कारो ण विग्धविणासओ त्ति । ण एस दोसो, कयाकयभिसयाणं वाहीणमविणास-विणासदसणेणावगयचियहिचारस्स वि मारिचादिगणस्स भेसयत्तु वलभादो। ओसहाणमोसहत्तं ण विणस्सदि, असझवाहिवदिरित्तसज्झवाहिविसरा चेव तेसि वावारभुवगमादो त्ति चे जदि एवं तो जिणिदणमोक्कारो वि विग्धविणासओ, असज्झविग्धफलकम्ममुज्झिदूण सज्झविरघफलकम्मविणासे वासरदसणादो। ण च ओसहेण समाणो जिणिदणमोक्कारो, णाणज्झाणसहायस्स संतस्स णिविग्धग्गिस्स अदज्झिधणाण व असज्झविग्धफलकम्माणमभावादो। णाणज्झाणपओ णमोक्कारो संपुष्णो, जहण्णो मंदसहहणाणुविद्धो बोद्धव्वो, सेसअसंखेज्जलोगभेयभिण्णा मज्झिमा। ण च ते सव्वे समाणफला, अइप्पसगादो - प्रश्न-मंगल करके प्रारम्भ किये गये कार्योके कहीपर विघ्न पाये जानेसे और उसे न करके भी प्रारम्भ किये गये कार्यों के कही पर विघ्नोंका अभाव देखे जानेसे जिनेन्द्र नमस्कार विघ्न विनाशक नहीं है । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, जिन व्याधियोकी औषध की गयी है उनका अविनाश, और जिनकी औषध नहीं की गयी है उनका विनाश देखे जानेसे व्यभिचार ज्ञात होने पर भी काली मिरच आदि औषधि द्रव्योमें औषधिय गुण पाया जाता है। प्रश्न-औषधियोका औषधित्व तो इसलिए नष्ट नहीं होता, कि असाध्य व्याधियोको छोडकर केवल साध्य व्याधियोके विषयमे ही उनका व्यापार माना गया है। उत्तर--तो जिनेन्द्र नमस्कार भी ( उसी प्रकार ) विघ्न विनाशक माना जा सकता है; क्यो कि, उसका भी व्यापार असाध्य विघ्नोने कारणभूत कौंको छोड़कर साध्य विघ्नोंके कारणभूत कर्मोंके विनाशमे देखा जाता है । २ दूसरी बात यह है कि ( सर्वथा) औषधके समान जिनेन्द्र नमस्कार नहीं है, क्योकि, जिस प्रकार निर्विघ्न अग्निके होते हुए न जल सकने योग्य इन्धनो का अभाव - रहता है ( अर्थात सम्पूर्ण प्रकारके इन्धन भस्म हो जाते है), उसी प्रकार उक्त नमस्कारके ज्ञान व ध्यानकी सहायता युक्त होनेपर असाध्य विघ्नोत्पादक कर्मोंका भी अभाव होता है (अर्थात् सब प्रकारके कर्म विनष्ट हो जाते है ) तहाँ ज्ञानध्यानात्मक नमस्कारको उत्कृष्ट, एवं मन्द श्रद्धान युक्त नमस्कारको जघन्य जानना चाहिए। शेष असंख्यात लोकप्रमाण भेदोसे भिन्न नमस्कार मध्यम है। और वे सब समान फलवाले नहीं होते, क्योकि, ऐसा माननेपर अतिप्रसग दोष आता है। पं. का./ता.'वृ./१/६/४ यदुक्त त्वया व्यभिचारो दृश्यते तदप्ययुक्त । कस्मादिति चेत। यत्र देवतानमस्कारदानपूजादिधर्मे कृतेऽपि विघ्नं भवति तत्रेदं ज्ञातव्य पूर्व कृतपापस्यैव फलं तत् न च धर्मदूषणं, यत्र पुनर्देवतानमस्कारदानपूजादिधर्माभावेऽपि निर्विघ्न दृश्यते तत्रेदं ज्ञातव्यं पूर्व कृतधर्मस्यैव फलं तत् न च पापस्य । - आपने जो यह कहा है कि (मंगल करने या न करनेपर भी निर्विघ्नताका अभाव या सद्भाव दिखायी देनेसे) तहाँ व्यभिचार दिखायी देता है, सो यह जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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