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________________ भोगोपभोग परि का. अ/मू./३५० जापिसा संपत्ती भोग-नोल-धमादीनं मार्ग कोरवि भोमोयं वयं तस्स ॥३३०१ जो अपनी सामर्थ्य जान कर, ताम्बूल, वस्त्र आदिका परिमाण करता है, उसको भोगोपभोगपरिमाण नामका गुणवत होता है । ३५० २. भोगोपभोग व्रतके भेद र. क. आ./०० नियमो यमश्च विहिती द्वेषा भोगोपभोगसंहार नियम' परिमाज्जीवं यमो भिभोगोपभोग याग नियम और यम दो प्रकारका त्याग विधान किया गया है। जिसमें कालको मर्यादा है वह तो नियम कहलाता है, जो जीवन पर्यन्त धारण किया जाता है, वह यम है। (सा. घ./५/१४ ) 1 रा. वा / ०/२१/२०/६५०/१ भोगपरिसंख्यानं मातानिधानिष्टानुपसेव्यविषयभेदात् प्रसधात घातप्रमाद अनिष्ट और अनुपसेव्य रूप विषयोंके भेदसे भोगोपभोग परिमाण बत पाँच प्रकारका हो जाता है। (चा. सा./२३/३ ); (सा. ध. १५/१५) । २. नियम धारण करनेकी विधि २. क. ग्रा./ ee.ap कुसुमेषु । ताम्बूल वसनभूषणमन्मयसंगतगीतेषु अद्य दिना रजनी वर पक्षो मासस्तमायया इति कालपरिप्रियाया भनेयमः भोजन, सनारी, शयन, स्नान, कुंकुमाविलेपन, पुष्प माला, ताम्बूल, वस्त्र, अलंकार, कामभोग, सगीत और गीत इन farain आज एक दिन अथवा एक रात, एक पक्ष, एक मास तथा दो मास अथवा छह मास ऋतु, अयन इस प्रकार कालके विभाग से त्याग करना नियम है । ४. भोगोपभोग परिमाण प्रतके अविश्वार त. सु./०/३५ सचितमन्धसमिश्राभिषवदुष्पाहार |२| सचि ताहार, सचित्तसम्बन्धाहार, सम्मिश्राहार, अभिषवाहार और दुक्वाहार उपभोगारिभोगपरिमाण व्रतके पाँच अतिचार है ।१५ (सा. ध./५/२०), (बा.सा./२३/१) र. क. श्री. / ६० विषय विषतोऽनुपेक्षानुस्मृतिरतिलौग्यमतिवृषानुभवी । भोगोपभोगपरिमाणव्यतिक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते । विषयरूपी विष || - 1की उपेक्षा नहीं करना, पूर्व कालमें भोगे हुए विषयोंका स्मरण रखना, वर्तमान विषयों में अति लालसा रखना, भविष्य में विषय प्राप्तिकी तृष्णा रखना, और विषय नहीं भोगते भी विषय भोगता हूँ ऐसा अनुभव करना ये पाँच भोगोपभोग परिमाण हटके अतिचार है। भोजनवाहनशयनस्नामपवित्रा ५. दुःपक्क आहार में क्या दोष है रा. मा./०/२४/६/२७८/१६ तस्याभ्यवहारे को दोष' इन्द्रियमवृद्धि स्यात्, सचित्तप्रयोगो वा वातादिप्रकोपो वा, तत्प्रतीकारविधाने स्यात पापले अतिषयश्चैनं परिहरेयुरिति प्रश्न उस (दुष्पक व । - चित्त पदार्थका ) आहार करने में क्या दोष है। उत्तर- इनके भोजनसे इन्द्रियों मत हो जाती हैं सचित प्रयोगले वायु आदि दोषोंका प्रकोप हो सकता है, और उसका प्रतिकार करने में पाप लगता है, अतिथि उसे छोड़ भी देते हैं। (चा. सा./२३/४ ) । ६. भोगोपभोग परिमाण व्रतको सचित्तादि ग्रहण कैसे हो सकता है -M Jain Education International २३९ - रा.वा./०/३३/४/२६८/१९ न पुनरस्य सचित्तादिषु वृत्तिः प्रमादसंमो हाभ्यां सचितादिषु वृतिः पिपासारवाद स्वरमाणस्य सचि सादिषु अशनाय नायानुलेपनाय परिधानाय वा वृतिर्भवति । प्रश्न- इस भोगोपभोग परिमाण व्रतधारीकी सच्चित्तादि पदार्थोंमें भोजक बुि वृत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर- प्रमाद तथा मोहके कारण क्षुधा, तृषा आदि पीडित व्यक्ति जल्दी-जल्दी में सचित्त आदि भोजन, पान, अनुलेपन तथा परिधान आदिने प्रवृत्ति हो जाती है। ७. सचित सम्बन्ध व सम्मिश्र अन्तर 1 रा. वा. / ०/२५/२-४/५५८/४ तेन चित्तता द्रव्येोपरि संबन्ध हत्यामाय || तेन सचितेन द्रव्येण व्यतिकीर्णः संमिश्र इति कथ्यते |४| वाग्मतम् संबन्धेनाविशिष्ट संमिश्र इति न किं कारणम् । तत्र संसर्गमा सचितसंगन्ये हि संसर्गमात्र मम ह तु सूक्ष्मजन्तुव्याकुलत्वे विभागीकरणस्याशक्यत्वात् नानाजातीयद्रव्यसमाहार. सूक्ष्मजन्तुप्राय आहारः संमिश्र इष्ट - सचित्तसे उपश्लिष्ट या सर्गको प्राप्त सचित सम्बन्ध कहलाता है | ३| और उससे व्यतिकीर्ण समिश्र कहलाता है |४| प्रश्न सम्बन्धसे अशिष्ट ही संमिश्र है। इन दोनों में अन्तर ही क्या है उत्तर ऐसा नहीं है, क्योंकि सम्बन्धमें केवल संसर्गविवक्षित है तथा समिश्र में सूक्ष्म जन्तुओ से आहार ऐसा मिला हुआ होता है जिसका विभाग न किया जा सके। नाना जातीय द्रव्योंसे मिलकर बना हुआ आहार सूक्ष्म जन्तुओंका स्थान होता है, उसे सम्मिश्र कहते है। (चा. सा./२५ (२) । ८. भोगोपभोग परिमाण व्रतका महत्व - / पु. सि. उ. १५८, १६६ भोगोपभोगती स्वायरहिसा भनेरिकलामीषाम् । भोगोपभोगविरहाद्भवति न लेशोऽपि हिसाया |१| इति य परिमितिभोगे संतुष्यति महतरा मोगा महुतरहिसा विरहात्तस्याहिसामिशिष्ठा स्वाद १६६ निश्चय करके इन देशमतो आपको भोगोपभोग हेतु स्थावर जीवोंकी हिंसा होती है, किन्तु उपवासधारी पुरुषके भोग उपभोगके स्यागसे लेश मात्र भी हिंसा नहीं होती है । १५८। जो गृहस्थ इस प्रकार मर्यादा रूप भोगों से होकर अधिकतर भोगोको छोड़ देता है, उसका बहुत हिंसाके त्याग उत्तम अहिंसामत होता है, अर्थात् अहिसा मका उरकर्ष होता है |१६| : * अन्य सम्बन्धित विषय १. इस व्रतमें कन्द, मूल, पत्र, पुष्प आदिका त्याग । २. इस व्रतमें मद्य मांस मधुका त्याग। २. प्रत व भोगोपभोगानर्थक्य नामा अतिचारमै जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only - दे० भक्ष्याभक्ष्य 1 -दे० १० वह वह नाम । अन्तर -दे० अनर्थदण्ड | ४. भोगोपभोग परिमाण व्रत तथा सचित्त त्याग प्रतिमामें अन्तर । -दे० सचित्त । भोजराजा भोजको वशावलीके अनुसार (दे० इतिहास ) राजा मुके पुत्र व जयसिह पिता थे। मालवा देश (मगध ) के राजा थे । धारा व उज्जैनो इनकी राजधानी थी। संस्कृत विद्या के आश्रयदाता थे। मुजकी वंशावलीके तथा प्रेमी जीके अनुसार इनका समय - वि. १०७८-१९१२ ई.१०२१-२०५५, AN Up के अनुसार वि १००५-१११० ई. १०१०-९०६०६ पं. केसाराचन्द्र के अनुसार मि. १००५-१११० ई. १०१०-२०११ इतिहास के अनुसार ई. १००८ - १०५५ विशेष (दे० इतिहास / ३ / १:७/८ ) । २. योग दर्शन सूत्रोके भाष्यकार : समय ई श १० दे० योगदर्शन । भोजक वृष्णि मथुराके स्वामी सुवीरके पुत्र थे तथा उग्रसेन के पिता थे । ( ह. पु. /१८/११-१६ ) । www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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