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________________ भेदग्राही शब्द नय २३७ भोग २. भेदके भेद प्रसा/त. प्र./२ को नाम भेद, प्रादेशिक अताद्भाविको वा ।-भेद दो प्रकार है-अताइभाविक, व प्रादेशिक। स. सि./५/२४/२६६/४ भेदाः षोढा, उत्करचूर्ण खण्डचूर्णिकाप्रतराणू चटनविकल्पात् । भेदके छह भेद है-उत्कर, चूर्ण, खण्ड, चूर्णिका, प्रतर और अणुचटन। द्र.सं./टी./१६/५३/९ गोधूमादिचूर्णरूपेण घृतस्त्रण्डादिरूपेण बहुधा भेदो ज्ञातव्य । --पुद्गल गेहूँ आदिके चून रूपसे तथा घी, खांड आदि रूपसे अनेक प्रकारका भेद जानना चाहिए। १. उत्कर, चूर्ण आदिके लक्षण स. सि./५/२४/२६६/४ तत्रोत्कर' काष्ठादीनां करपत्रादिभिरुत्करणम् । चूर्णो यवगोधूमादीनां सक्तुकणिकादि । खण्डो घटादीना कपालशर्करादि । चूर्णिका माषमुद्गादीनाम् । प्रतरोऽभ्रपटलादीनाम् । अणुचटनं संतप्ताय पिण्डादिषु अयोधनादिभिरभिहन्यमानेषु स्फुलिङ्गनिर्गम। -करोंत आदिसे जो लकडी आदिको चीरा जाता है वह उत्कर नामका भेद है। जौ और गेहूँ आदिका जो सत्तु और कनक आदि बनती है वह चूर्ण नामका भेद है। घट आदिके जो कपाल और शर्करा आदि टुकड़े होते है वह खण्ड नामका भेद है। उडद और मूंग आदि का जो खण्ड किया जाता है वह चूर्णिका नामका भेद है। मेधके जो अलग-अलग पटल आदि होते हैं वह प्रतर नामका । भेद है। तपाये हुए लोहेके गोले आदिको घन आदिसे पीटनेपर जो फुलंगे निकलते है वह अणुचटन नामका भेद है । ( रा.वा./२/२४/१४/ ४८६/५)। * अन्य सम्बन्धी विषय २. मोक्तत्वका लक्षण रा./वा./२/७/१३/११२/१३ भोक्तृत्वमपि साधारणम् । कुत ! तल्लक्षणोपपत्ते । वीर्यप्रकर्षात परद्रव्यवीर्यादानसाम भोक्तृत्वलक्षणम्। यथा आरमा आहारादे परद्रव्यस्यापि वीर्यात्मसारकरणाभोत्ता, कर्मोदयापेक्षाभावात्तदपि. पारिणामिकम् । -भोक्तृत्व भी साधारण है क्योकि उसके लक्षणसे ज्ञात होता है। एक प्रकृष्ट शक्तिवाले द्रव्यके द्वारा दुसरे द्रव्यकी सामर्थ्यको ग्रहण करना भोक्तृत्व कहलाता है। जैसे कि आत्मा आहारादि द्रव्यकी शक्तिको खींचनेके कारण भोक्ता कहा जाता है। कर्मोके उदय आदिकी अपेक्षा नही होनेके कारण यह भी पारिणामिक भाव है। पं.का./त. प्र./२८ स्वरूपभूतस्वातन्त्र्यलक्षणसुखोपलक्षणसुखोपलम्भरूपंभोक्तृत्व । स्वरूपभूत स्वातन्त्र्य जिसका लक्षण है ऐसे सुखकी उपलब्धि रूप 'भोक्तृत्व' होता है। * अन्य सम्बन्धित विषय १. सम्यग्दृष्टि भोगोंका भोक्ता नहीं है। -दे० राग/६ । २ षट् द्रव्योंमें भोक्ता अभोक्ता विभाग । -दे० द्रव्य/३ । ३. जीवको भोक्ता कहनेकी विवक्षा। -दे. जीव/१/३। ४ भोग सम्बन्धी विषय। -दे० नीचे भोक्ता भोग्य भाव- दे० भोग । भोक्तत्व नय-दे० नय/ I8। भोगंधरी-गन्धमादन पर्वतके स्फटिक कूटकी स्वामिनी देवी। -दे० लोक/७ भोग १. सामान्य भोग व उपभोगकी अपेक्षा र. क. श्रा./८३ भुक्त्वा परिहातव्यो भोगी भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्य; । उपभोगोऽशनवसनप्रभनि पञ्चेन्द्रियो विषय' । भोजन-वस्त्रादि पंचेन्द्रिय सम्बन्धी विषय जो भोग करके पुन' भोगनेमें न आवें वे तो भोग है और भोग करके फिर भोगने योग्य हो तो उपभोग हैं। (ध. १३/५.५,१३७/३८६/१४)। स, सि./२/४४/११/इन्द्रियप्रणालिकया शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोग' । - हन्द्रिय रूपी नालियोके द्वारा शब्दादिके ग्रहण करनेको उपभोग कहते है। स. सि./७/२१/३६९/७ उपभोगोऽशनपानगन्धमात्यादि.। परिभोग आच्छादनप्रावरणाल कारशयनासनगृहयानवाहनादि | भोजन,पान, गन्ध, मालादि उपभोग कहलाते है । तथा ओढना-बिछाना, अलंकार, शयन, आसन, घर, यान और वाहन आदि परिभोग कहलाते हैं। रा. वा./७/२१/९-१०/१४८/११ उपेत्यात्मसात्कृत्य भुज्यते अनुभूयत इत्युपभोग । अशनपानगन्धमाल्यादिः।। सकृद् भुक्त्वा परित्यज्य पुनरपि भुज्यते इति परिभोग इत्युच्यते। आच्छादनप्रावरणालंकार... आदि।१०।उपभोग अर्थाद एक बार भोगे जानेवाले अशन, पान, गन्ध, माला आदि। परिभोग अर्थात जो एक बार भोगे जाकर भी दुबारा भोगे जा सके जैसे-वस्त्र अलंकार आदि । (चा. सा./२३/२)। २. क्षायिक भोग व उपभोगकी अपेक्षा स, सि./२/४/१५४/७ कृत्स्नस्य भोगान्तरायस्य तिरोभावादाविर्भूतोऽ. तिशयवाननन्तो भोग क्षायिक । यतः कुसुमवृष्टयादयो विशेषाः प्रादुर्भवन्ति। निरवशेषस्योपभोगान्तरायस्य प्रलयात्प्रादुर्भूतोऽनन्तउपभोग क्षायिक' । यतः सिंहासनचामरच्छत्रत्रयादयो विभूतयः । १. द्रव्यमें कथचित् भेदाभेद । -दे० द्रव्य/४। २. द्रव्यमें अनेक अपेक्षाओंसे भेदाभेद। -दे० सप्तभंगी/५॥ ३. उत्पाद व्यय श्रीव्यमें भेदाभेद । -दे० उत्पाद/२। ४. भेद सापेक्ष वा मेद निरपेक्ष द्रव्याथिक नय-दे० नय/II/21 ५. भिन्न द्रव्यमें परस्पर भिन्नता -दे० कारक/२। ६. परके साथ एकत्व कहनेका तात्पर्य । -दे० कारक/२। भेवज्ञान-१,०ज्ञान/II, २. इसके अपरनाम-दे० मोक्षमार्ग/२/५ । भेदग्राही शब्द नय-दे० नय/III/६ ! भेदवाद-भेद व अभेदवादका विधि निषेध व समन्वय-दे० द्रव्य/४। भेद संघात-दे० संघात । भेदाभेदवाद-दे. वेदान्त । भेदाभेद विपर्यय-दे० विपर्यया। भोक्तापं. का./त. प्र/२७ निश्चयेन शुभाशुभकर्म निमित्त सुरवदुखिपरिणामाना, व्यवहारेण शुभाशुभकर्मसंपादितेष्टानिष्टविषयाणा भोवतृत्वादभोक्ता । -निश्चयसे शुभाशुभकर्म जिनका निमित्त है ऐसे सुखदुखपरिणामोका भोक्तृत्व होनेसे भोक्ता है । व्यवहारसे ( असदभूत व्यवहार नयसे) शुभाशुभ कर्मोंसे सम्पादित इष्टानिष्ट विषयोंका भोक्तृत्व होनेसे भोक्ता है। स, सा./आ./३२०/पं. जयचन्द--जो स्वतन्त्रपने करे-भोगे उसको परमार्थ में कर्ता भोक्ता कहते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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