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________________ भव्य २१२ इति । =जो उस ( केवली भगवान्‌का सुख सर्व सुखोमे उत्कृष्ट है ) । वचनको इसी समय स्वीकार (श्रद्धा) करते है वे शिवश्रीके भाजन आसन्न भव्य है । और जो आगे जाकर स्वीकार करेंगे वे दूर भव्य है । गो. जी भाषा / ००४/१९४४/२ जे धोरे कामे मुक्त होते होड़ ते आसन्न भव्य है । जे बहुत काल मे मुक्त होते होइ ते दूर भव्य है । ५. अभव्य समभव्य जीवका लक्षण पा/२/२२२/१२/१२/११ अभव्य अभयसमागमले चि गोदभावमुपगए जो भव्य है या अभीके समान निव्य fariदको प्राप्त हुए भव्य है । गो.जो. / भाषा/७०४/१९४४/३ जे विकास विषै मुक्त होनेके नाही केवल मुक्त होनेको योग्यता हो कौ धरे है ते अभव्य सम भव्य है । ६. अतीत मध्य जीवका लक्षण पं सं . / प्रा./१/१५७ ण य जे भव्त्राभव्त्रा मुत्तिसुहा होति तीदससारा । ते जीवाणायव्वा णो भव्वा णो अभव्वा य । १५७ - जो न भव्य है और न अभव्य है, किन्तु जिन्होने को कर लिया है और अतीत ससार है । उन जीवोको नो भव्य नो अभव्य जानना चाहिए। गोजी// ५५६) (पं.स./ स / २ / २८५ ) । ७. भव्य व अभव्य स्वभावका लक्षण आ.प./६ भाविकाले परस्वरूपाकारभवनाद्व भव्यस्वभाव | कालत्रयेऽपि परस्वरूपाकारा भवनादभव्यस्वभाव भाविकालमे पर स्वरूपके ( नवीन पर्यायके ) आकार रूपसे होनेके कारण भव्यस्वभाव है। और तीनो कालमें भी पर स्वरूपके ( पर द्रव्य के ) आकार रूपसे नहीं होने के कारण अभव्य स्वभाव है। यस्य सर्वदा अभूतपय भाव्यमिति द्रव्यस्य सर्वदा भूतपर्यायैरभाव्यमिति । पंक २७/०६/११ / ता वृ / निर्विकार चिदानन्दस्वभावपरिणामेन भवन परिणमम भव्यत्व अतीतमिध्यात्वरागादिभावपरिणामेनाभव नमपरिणमनमभव्यत्व | - द्रव्य सर्वदा भूत पर्याय रूपसे भाव्य (परिणमित होने योग्य ) है । द्रव्य सर्वदा भूत पर्यायी रूप से अभाव्य ( न होने योग्य ) है ( त प्र ) निर्विकार चिदानन्द एक स्वभाव रूपसे होना अर्थात् परिणमन करना सो भव्यत्व भाव है। और पं • हुए विभाव रागादि विभात्र परिणाम रूपसे नहीं होना अर्थात् परिणमन नहीं करना अभव्यत्व भाव है । ता वृ । २. भव्याभव्य निर्देश १. सम्यक्त्वादि गुणोंकी व्यक्तिकी अपेक्षा भव्य अमध्य व्यपदेश है रा. बा. /०/६/८-१/२०१ / २२ न सम्यग्दर्शनानचारित्रशक्तिभावाभावान्या भव्य कतेक २३ सम्पादिव्यक्तिभावाभावाभ्या भव्याभव्यत्वमिति विकल्प कनकेतरपाषाणवत् । यथा कनकभावव्यक्तियोगमवाप्स्यति इति कनकपाषाण इत्युच्यते तदभावादन्धपाषाण इति । तथा सम्यक्त्वादिपर्यायव्यक्तियोगार्हो य स भव्यतद्विपरीतोऽभव्य इति चोच्यते । =भव्यत्व और अभव्यत्व विभाग ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी शक्ति सद्भाव और अज्ञानकी अपेक्षा नही है। प्रश्न- तो किस आधारसे यह विकल्प कहा गया है उत्तराको प्रगट होनेकी योग्यता और अयोग्यताको अपेक्षा है जैसे जिसमे वर्ण पर्याय प्रगट होनेकी योग्यता है नह कनकपाषाण कहा जाता है और अन्य अन्धपाषाण । उसो तरह 1 Jain Education International २. भव्याभव्य निर्देश सम्यग्दर्शनादि पर्यायोकी अभिव्यक्तिकी योग्यता नाला भव्य तथा अन्य अभव्य है./८/६/३८२/६) २. भव्य मार्गमा गुणस्थानों का स्वामित्व १/११/१४२-१४३/३१४ सिद्धिया एजाज गिगति १ अभवसिद्धिया एक दियहुडि जान सि मिच्छा४ि३ भव्य सिद्ध जीव एकेन्द्रिय लेकर अयोगि केवल गुणस्थान तक होते है | १४२ ] सिद्ध जीव एकेन्द्रियसे लेकर सज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तक होते हैं । १४३ ॥ पस / प्रा./१/६७ खोणताभव्वम्मि य अभव्वे मिच्छ्रमेय तु । भव्य मार्गणाकी अपेक्षा भव्य जीवोके क्षोण कषायान्त बारह गुणस्थान होते है । ( क्योकि सयोगी व अयोगीके भव्य व्यपदेश नहीं होता ( प. स. / प्रा. टो /४/६७) अभव्य जीवोके तो एकमात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । ६७ * मध्य मार्गणा में जीवसमास आदि विषयक २० प्ररूपणाएँ - दे० सव | * मध्य मार्गणाकी सत् संख्या आदि ८ प्ररूपणाएँ -दे० वह वह नाम । ★ मध्य मार्गणा कमका अन्ध उदय सव - दे० वह वह नाम । ३. सभी भव्य सिद्ध नही होते पस / प्रा/१/१५४ सिद्धत्तणस्य जोग्गा जे जोवा ते भवति भवसिद्धा । उमलविगमेणियमा ताणं कणको पलाणमिव । जो जीव सिद्धत्व अवस्था पानेके योग्य है वे भव्यसिद्ध कहलाते है । किन्तु उनके कनकपल ( स्वर्ण पाषाण ) के समान मलका नाश होनेमें नियम नहीं है। (विशेषार्थ जिस प्रकार स्वर्ण पाषाण मे स्वर्ण रहते हुए भी उसको पृथक किया जाना निश्चित नही है। उसी प्रकार सिद्धत्व की योग्यता रखते हुए भी कितने ही भव्य जीव अनुकूल सामग्री मिलनेपर भी मोक्षको प्राप्त नही कर पाते ) | ( ध /१/१.१,४/गा १५/१५० ) (गो जी.//५४) (पं. रा स / २ / २०३) । रा वा / १/३/६/२४/२ केचित् भव्या संख्येयेन कालेन सेत्स्यन्ति, केचिदसंख्येपेन केचिदनन्तेन अपरे जनानन्तेन सेत्स्यन्ति । कोई भव्य संख्यात, कोई असख्यात और कोई अनन्तकालमे सिद्ध होंगे । और कुछ ऐसे है जो अनन्त काल में भी सिद्ध न होगे । घ. ४/१.५.३९०/४००/ ४ च सन्तिता सि पि बीए होइव्यमिदि नियमो अस्थि सव्त्रस्स ति हेमपासा स्स हेमपज्जाएण परिणमणष्पसंगा। ण च एव अणुबलभा । यह कोई नियम नही है कि rant शक्ति रखनेवाले सभी जीवो उसकी व्यक्ति होना ही चाहिए, अन्यथा सभी स्वर्ण पाषाणके स्वर्ण पर्यायसे परिणमनका प्रसंग प्राप्त होगा । किन्तु इस प्रकारसे देखा नहीं जाता । ४. मिध्यादृष्टिको कथंचिद् अभव्य कह सकते हैं कपा४/३.२२/१२/१२/२ अवसिदिय भणिमिच्छा पाओगे त्ति घेत्तम् । उक्तस्सट्ठि विअणुभागबधे पडुच्च समाणतणेण अभव्यववएस पडि विरोहाभावादो। सूत्र में अभवसिद्धिपाआगे ऐसा कहनेपर उसका अर्थ मिध्यादृष्टिके योग्य ऐसा ऐना चाहिए क्योकि स्थिति और उस्कृष्ट अनुभागको अपेक्षा समानता होनेसे मिथ्यादृष्टिको अभव्य हमे कोई विरोध नही आता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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