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________________ ब्रह्मचर्य निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उस आत्मामें लीन होनेका नाम ब्रह्म चर्य है। जिस सुनिका मन अपने शरीरके भी सम्बन्धमें निर्ममत्व हो चुका है, उसी ब्रह्मचर्य होता है जन ध/४/६०)। अन अ./५/५५ चरणं ब्रह्मणि गुरावस्वाध्येण यदा चरण परेनि ३-मैथुन कर्म से सर्वथा निवृत वर्णोंकी आत्म के उपदेष्टा गुरुओकी प्रीति पूर्वक अधीनता स्वीकार कर ली गयी है, अथवा ज्ञान और आत्मा के विषय में स्वतन्त्रतया की गयी प्रवृतिको चर्य कहते है। २. व्यवहारकी अपेक्षा अ / ० स तो इत्थीण तासु मुयदि दुम्भावस् । सो बम्हरमा सुखद धरदि 501 जो पुण्यात्मा कि सारे सुन्दर अंगोको देखकर उनमें रागरूप बुरे परिणाम करना छोड़ देता वही दुर्द्धर चर्यको धारण करता है। (प.नि./१/१०४) । सि./१/६/४९३/३ अनुभूतानामरणकथास्त्री सायना - सनादिवर्जनाद ब्रह्मचयं परिपूर्ण भवतिष्ठते । स्वतन्त्रवृत्तिनिवृत्यर्थो वा गुरुकुलवासी ब्रह्मचर्यम् । अनुभूत खीका स्मरण न करनेसे, स्त्री विषयक कथाके सुननेका त्याग करनेसे और खोसे बैठनेका श्याग करनेसे परिपूर्ण मह्मचर्य होता है वृत्तिका स्याग करनेके लिए गुरुकुतमे निवास करना ब्रह्मचर्य है। (रा. या ३/४/२२/६६८/२०) । भ आ / ४६/९६४ / १६ नवा ब्रह्मचर्य का पालन करना ब्रह्मचर्य है । पं. वि / १२ / २ सटकर सोने व अथवा स्वतन्त्र नव प्रकार के स्वाङ्गासंग विवर्जितै कमनसस्तद्ब्रह्मचर्यं मुने । एवं पता स्वमातृम मित्रमा वृद्धाय विजितेन्द्रियो यदि तदा स ब्रह्मचारी भवेत् |२| जो अपने शरीर मे निर्ममत्व हो चुका है, वह इन्द्रियविजयी होकर आदि खियोको क्रमसे माता, बहन और पुत्री के समान समझता है, तो वह मुनि ब्रह्मचारी होता है। का अ/यू. ४०३ जो परिहरेदि सगं महिला व परसदे रूपं कामकहादि-निरीहो णव विह बंभ हवे तस्स |४०३ | जो मुनि स्त्रियोके सगसे बचता है, उनके रूपको नहीं देखता, काम कथादि नही करता उसके नवधा ब्रह्मचर्य होता है । ४०३१ २. ब्रह्मचर्य विशेषके लक्षण १. दस प्रकारका ब्रह्मचर्य भ, आ./मू./८७-८८१ उत्थानिका- मनसा वचसा शरीरेण परशरीरगोचरव्यापारातिशयं दधात्यागाद शनिचर्य भवतीति वक्तुकामो मे विसाभितासो छविमोक्खो य मणिदरसमा सदयसेवा तदिविद्यालय चैन सकारो का अदीदसुमरणमणागद भिलासे। इससे विम्ब सविह एवं 150 एवं विसग्गिमूदं अब भ दसविषि गाय आबाद महोदवाने क - मनसे, वचनसे और शरीरसे परशरीरके साथ जिसने प्रवृत्ति करना छोड दिया है, ऐसा मुनि दस प्रकार के अब्रह्मका त्याग करता है । तब वह दस प्रकार के ब्रह्मचर्योंका पालन करता है। ग्रन्थकार अब दस प्रकारके अमाका वर्णन करते है -१ स्त्री सम्बन्धी विषयोंकी अभिलाषा, २ वत्थमोक्खो - अपने इन्द्रिय अर्थात लिंगमें विकार होना, ३ वृष्यरस सेवा - पौष्टिक आहारका ग्रहण करना, जिससे बल वीर्यकी वृद्धि हो । ४. संसक्तद्रव्यसेवा - स्त्रीका स्पर्श अथवा उसकी शय्या आदि पदार्थोंका सेवन करना । ५ तदिद्रियालोचन - स्त्रियों के सुन्दर शरीरका अवलोकन करना । ६. सत्कार - स्त्रियोका Jain Education International १८९ १. भेद व लक्षण सत्कार करना, ७. सम्माण - उनके देहपर प्रेम रखकर वस्त्र आदिसे सत्कार करना । अतीत स्मरण - भूतकालमे की रति, क्रीडाओका स्मरण करना, अनागताभिलाष-भविष्यत् कालमें उनके साथ ऐसी क्रीडा करूगा ऐसी अभिलाषा मनमें करना । इष्टविषय सेवामनोवांछित सौध, उद्यान वगैरहका उपभोग करना । ये अब्रह्मके दस प्रकार है । ७६८० ये दस प्रकारका अब्रह्म विष और अग्निके समान है, इसका आरम्भ मधुर, परन्तु अन्त कडुआ है । (ऐसा जानकर जो इसका त्याग करता है वह दस प्रकारके ब्रह्मचर्य का पालन करता है। अन ध/२/६१) (भा. पाटी (१६/२४६ पर उत २. न प्रकारका ब्रह्मचर्य - का अ /टी./४०३ तस्य मुने महादत्रकार कृतकारितानुमतगुणितमनोवचनकायै कृत्वा स्त्रीसंग वर्जयतीति ब्रह्मचर्य स्यात् । जो मुनि स्त्री सगका त्याग करता है उसीके मन, वचन, काय और कृतकारित अनुमोदनाके भेदसे नौ प्रकारका मचर्य होता है। (भ पा/टी./१६/२४५/२२) । ३. महाचर्य महान व अणुचतका लक्षण १ महाव्रत नि सा./मू./५६ दट्ठूण इच्छिरूवं वांछाभावं वित्तदे तासु । मेहुणपरिणामो जहव तुरीयमद ५६१ - स्त्रियोका रूप देखकर उनके प्रति या भावकी निवृत्ति अथवा मैथुनसंज्ञा रहित जो परिणाम वह चौथा व्रत है । (चा पा / टी / २८/४७/२४) । आ./२१२ मदुसुदा भगिणीवियदणित्थियि च परूि इत्यिकहादिणियत्ती तिलोयपुज्जं हवे बंभ [८] अच्चित्तदेवमाणूसतिरिया च मेहुणं बहुधा तिमिहेषण सेवाद चिंपि णीहि पदमणो । २हरा - जो वृद्धा बाला यौवनवाली स्त्रीको देखकर अथवा उनकी तस्वीरोको देखकर उनको माता पुत्री बहन समान समझ स्त्री सम्बन्धी कथादिका अनुराग छोड़ता है, वह तीनों लोकोंका पूज्य ब्रह्मचर्य महाव्रत है। चित्र आदि अचेतन, देवी, मानुषी, तिर्यचनी सचेतन स्त्री ऐसी चार प्रकार स्त्रीको मन, वचन कायसे जो नही सेवता तथा प्रयत्न मनसे ध्यानादिमें लगा हुआ है, यही २२ २. अनुक्त 5 र. क / ५६ न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । सा परदारनिवृत्तिः स्वदारसोपानामपि ॥५६॥ जो पापके भय से न तो पर स्त्रीके प्रतिगमन करे और न दूसरोको गमन कराने, वह पर स्त्री त्याग तथा स्वदार सन्तोष नामका अणुवत है । ५६ (सा, ध / ४ / ५२) । ससि /७/२०/३५८/१० उपात्ताया अनुपात्तायाश्च पराङ्गनाया संगान्नि वृचरतिगृहीति चतुर्थ मस्त गृहस्थ के रवीकार की हुई या मणुव्रतम् । बिना स्वीकार की हुई परस्त्रीका सग करनेसे रति हट जाती है इस लिए उसके परस्त्री नामका चौथा अणुवत होता है । (रा. वा./७/२०/ ४/५४७/१३) । व था / २१२ पव्वे हरियसेवा अगगकीडा सया = बंभवारी जिणेहि भणिओपणम् ॥ २१२१ अमी, चतुर्दशी आदि पर्व के दिनो स्त्री-सेवन और सदैव अनग क्रीडाका त्याग करनेवाले प्रवचन में भगवान्ने] स्थूल ब्रह्मचारी कहा है २१२/१६ का अ/मू./३३७-३३८ असुइ-मयं दुग्गंध महिला - देह विरच्चमाणो जो । रूव लावण्ण पिय मण मोहण कारणं मुणइ १३३७| जो मण्णदि परमहिले जपणी बहिणी आई सारिच्छ मग ययणे कायण विनभ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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