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________________ बौद्धदर्शन 1 विज्ञान, श्रोत्रं, माण, रसना, काय और मनाविज्ञान वा अन्त देयके भावका ज्ञान । ५. धर्म-भूत और चित्तके उन सूक्ष्म तत्वोंकी धर्म कहते हैं जिनके आपात में प्रतिवाससे समस्त जगदकी स्थिति होती है। सभी धर्म सत्तात्मक हे तथा क्षणिक है। ये दो प्रकारके है - असंस्कृत व संस्कृत । नित्य, स्थायी, शुद्ध व अहेतुक (पारिगामिक) धर्मोको असंस्कृत कहते हैं. असंस्कृत धर्म हीन हैंप्रतिसंख्या निरोध, अप्रतिसंख्या निरोध तथा आकाश । प्रज्ञाद्वारारागादिक साख धर्मोका निरोध (अर्थात् धर्मध्यान) प्रति ख्या निरोध कहलाता है बिना प्रशासन धर्माका निरोध (अर्थात शुक्लध्यान) अप्रतिसंख्या निरोध कहलाता है। अतिसया हो वास्तविक निशेध है। आवरण के अभावको आकाश कहते हैं। यह नियम परिवर्तनशील है। संस्कृतधर्म पार हैं-रूप, चित्त, चैतसिक, तथा चित्त विइनमें भोरुप ११. चिका बेसिक ४६ और पित्त २६ भेद है। पाँच इन्द्रिय तथा पाँच उनके विषय तथा अविज्ञप्ति में ग्यारह रूप अर्थात् भौतिक पदार्थोके भेद है। इन्द्रियों व उनके विषयोंके परस्पर आघातसे चित्त उत्पन्न होता है। यहां मुख्य तव है । इसी में सब संस्कार रहते हैं। इसका स्वतन्त्र ससा नहीं है, क्योकि हेतु प्रत्ययमे उत्पन्न होती है। यह एक है. पर उपाधिया के कारण इसके अनेक भेद-प्रभेद है । यह प्रतिक्षण बदलता है। इस लोक व परलोकमें यही आता-जाता है । चित्त से धनिष्ट सम्बन्ध रखनेवाले मानसिक व्यापारको चेतसिक या चित संप्रयुक्त धर्म कहते हैं । इसके ४६ प्रभेद हैं। जो धर्म न रूप धर्मा में और न चित्त धर्मो में परिगणित हा, उन्हे चित्त विप्रयुक्त धर्म कहते हैं । इनकी सख्या १४ है । ८. निर्वाण-एक प्रकारका असंस्कृत या स्वाभाविक धर्म है, जिसे अहं जम सत्य मार्ग अनुसरण से हारी है। यह स्वतन्त्र, सद व नित्य है। यह ज्ञानका आधार है। यह एक है तथा सर्व भेद इसमें विलीन हो जाते हैं। यह आकाशवत् अनन्व अपरिमित व अनिर्वचनीय है। 4. हीनयान सौश्रातिककी अपेक्षा तत्र विचार ९. अन्तर जगत् सत् है पर बाह्य जगत् नहीं। वह केवल चिसमें उत्पन्न होने वाले धर्मोपर निर्भर है। इनके में हुए द 'निर्वाण' धर्मोके अनुवाद रूप है. यह असंस्कृत धर्म नहीं है, क्योंकि मार्ग के द्वारा उत्पन्न होता है । ३. इनके मत में उत्पत्तिसे पूर्व व विनाश के पश्चात दशकी स्थिति नहीं रहती. अत यह अनित्य ह ४. तागत दो वस्तुओं में कार्यकारण भाव मे लोग नहीं मानते। ६. वर्तमान कालके अतिरिक्त भूत, भविध्यद काल भी नहीं है। ६. इसके महमें परमाणु निरवयव होता है। इनके संघटित होनेपर भी यह पृथक ही रहते हैं। केवल उनका परिमाण हो बढ़ जाता है । ७, प्रतिसंख्या व अप्रतिसंख्या धर्मो में विशेष भेद नहीं मानते। प्रतिसंख्या निरोध हा द्वारा रागादिकला निरोध हो जानेगर भविष्य में उसे कोई मन होगा और अख्या निरोध कानादा हो जानेपर दुःख की निवृत हो जायेगी जिससे कि वह भवचक्रसे छूट जायेगा। । ९. महायान योगाचार या विज्ञानवादकी अपेक्षा तस्यविचार | १. बाह्य जगत असत् है । २. चित्त या विज्ञान ही एक मात्र परम तत्व है चित हो की प्रवृति मुक्ति होती है। सभी वस्तु एक मात्र चित्तकेय है। अविद्या कारण हाता ज्ञान में भेद मालूम होता है। वह दो प्रकारका हे -प्रवृत्ति विज्ञान व आलय Jain Education International १८७ बौद्धदर्शन विज्ञान । ३. आलय विज्ञानको तथागत गर्भ भी कहते हैं । समस्त कायिक, वाचिक व मानसिक विज्ञानोंके | वासना रूप बीज आलय विज्ञानरूप चित्तमें शान्त भावसे पड़े रहते हैं, और समय आनेपर व्यवहाररूप जगत् में प्रगट होते हैं। पुनः इसी में उसका लय भी हो जाता है। एक प्रकार से यही बालय विज्ञान व्यावहारिक जीवात्मा है ४. बाल विज्ञान क्षणिक विज्ञानोंकी सन्तति मात्र है। इसमें शुभ तथा अशुभ सभा वासनाएँ रहती हैं। इन वासनाओं के साथ-साथ इस आलय में सात और भी विज्ञान हैं, जैसे-चक्षुविज्ञान, श्रोत्र, घाण, रसना, काय, मनो तथा विलष्ट मनो विज्ञान। इन सबमें मनो विज्ञान आलय के साथ सदैव कार्य में लगा रहता है और साथ ही साथ अन्य छह विज्ञान भी कार्य में लगे रहते हैं। व्यवहार में आनेवाले मे सात विज्ञान प्रवृतिविहान' कहलाते हैं मस्तुतः प्रवृति विज्ञान आलय विज्ञानपर ही निर्भर है। १०. महायान माध्यमिक या शून्यवादकी अपेक्षा तत्वविचार 1 १. व दृष्टिले न बाह्य जगत्को सत्ता है न अन्तर्जगतकी । २. सभी शुन्यके गर्भ में विलीन हो जाते हैं। यह न सत् है और न असत, न उभय हे न अनुभय । वस्तुतः यह अलक्षण है। ऐसा शून्य ही एक मात्र परम तत्व है। यह स्वलक्षण मात्र है। उसकी सत्ता दो प्रकारकी संवृति सत्य और परमार्थ सम्म ३ सवृत्ति सत्य पारमार्थिक स्वरूपका आवरण करनेवाली है। इसीको अविया मोह आदि कहते हैं। यह संवृति भी दो प्रकारकी है-तथ्य संमृति व मिथ्या संवृति । जिस घटनाको सत्य मानकर लोकका व्यवहार चलता है उसे लोक संवृत्ति या तथ्य संवृति कहते हैं और जो घटना यद्यपि किसी कारण से उत्पन्न अवश्य होती है पर उसे सभी लोग सत्य नहीं मानते, उसे मिथ्या संवृत्ति कहते हैं । ४. परमार्थ सत्य निर्माण है। इसे शुन्यता तथा कोटि धर्मा आदि भी कहते हैं। निःस्वभावता ही वस्तुतः परमार्थ सत्य है। अनिर्बंधनीम है। (बोर भी दे० शुन्यवाद। १५. प्रमाण विश्वार १. हीनयान वैभाषिक सम्यग्ज्ञानको प्रमाण कहते हैं। वह दो प्रकार है - प्रत्यक्ष व अनुमान । २. कल्पता व भ्रान्तिसे रहित ज्ञान प्रत्यक्ष है। यह चार प्रकारका है इपिज्ञान. मनोविज्ञान (ज्ञान), आत्मसंवेदन (सुख-दुःख आदि चैसिक धर्मोका अपने स्वरूप प्रगट होना ); योगिज्ञान (सहभूत अर्थोकी चरमसीमा भाला ज्ञान ), प्रत्यक्ष ज्ञान स्वक्षण है, यही परमार्थ सत्य है। ३ अनुमान दो प्रकार है-स्वार्थ व परार्थ हेतु पक्ष व विपक्षको ध्यान रखते हुए जा हाम] स्वत हो उसे स्वार्थ कहते हैं। उपदेशादि द्वारा दूसरे से प्राप्त किया गया ज्ञान परार्थानुमान है। ४. इसमें तीन प्रकारके हेतु होते हैं - अनुपलब्धि, स्वभाव व कार्य। किसी स्थान विशेषपर घटका न मिलना उसकी अनुपलब्धि है। रवभाव सत्तामात्र भावी हेतु स्वभाव हेतु हैं। धुएँ रूप कार्यको देखकर अग्नि रूप साध्यका अनुमान करना कार्य हेतु है। इन तोनोंके अतिरिक्त अन्य हेतु नहीं है। अनुमान ज्ञान बास्तविक है हेतुमें प सपक्ष और विपक्ष व्यावृत्ति मे दोनों जाते रहनी चाहिए अन्यथा वह हेलाभास होगा ५. हेत्वाभास दोन प्रकार है-असिद्ध बिरुद्ध और अनैकान्तिक। ६. अनुभव दो प्रकार है--ग्रहण व अध्यवसाय । ज्ञानका निर्विकल्प रूप ( दर्शन ) ग्रहण कहलाता है। तत्पश्चात होनेवाला साकार ज्ञान अध्यवसाय कहलाता है। चक्षु, मन व श्रोत्र दूर होते अपने विषयका ज्ञान प्राप्त करती है किन्तु अन्य इन्द्रियोंके लिए अपने-अपने farai साथ सन्निकर्ष करना आवश्यक है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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