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________________ बल बल -१ मन, वचन, व काय बल-दे० वह वह नाम । २. तुल्य बल विरोध दे० विरोध । - -दे० ऋद्धि /६ । बल ऋद्धि बलचंद्रमणमेलगोला शिलालेख नं. ७ के अनुसार आप दिगम्बराचार्य धर्मसेन नं २ ( ई०६७५ ) के शिष्य थे। समयवि. ७५७ ( ई० ७०० ) (भ, आ (प्र. १६ / प्रेमी) | बलदेव --- १. पुन्नाट संघकी गुर्वावलीके अनुसार आप मित्रवीरके शिष्य तथा मित्रकके गुरु थे । समय ( ई० रा० १ का पूर्व ) (दे० इति ७/८); २ श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं. १५ के आधारपर कनकसेनके गुरु थे। समय - वि. ७०७ (३० ६५०) (भ.आ./प्र. १६/प्रेमी) ३ श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं. ७ के आधारपर आप धर्मसेनके गुरु थे । समय - वि० ७५७ ( ई० ७००) (भ. आ / प्र. ११ / प्रेमी जी) ४. ह. पु / वर्ग/ श्लोक में वसुदेवका पुत्र था (१२/१०) कृष्णको जन्मते ही नन्द गोके पर पहुँचाया (१३/१२) वहाँ जाकर उसको शिक्षित किया (३५/६४) द्वारकाकी रक्षाके लिए द्वैपायन मुनिसे प्रार्थना करनेपर केवल प्राण भिक्षा मिली (६१ / ४८-०६) जंगलमें जरतकुमार द्वारा कृष्णवे मारे जानेपर (६३ / ७) ६ माह तक कृष्ण के शवको लिये फिरे (६३/११-६०) फिर देवके (जो पहले सिद्धार्थ नामक सारथि था ) सम्मोधे जानेपर (६३/६१-०१) दीक्षा धारण कर (४१/७२) घोर तप किया (७५ / ११४) । सौ वर्ष तपश्चरण करनेके पश्चात् स्वर्ग में देव होकर (६/३३) सरकारको सम्बोधा (१२/४२-२४) विशेष दे० शलाका पुरुष / ३ | बलदेव सूरि - आप भगवती आराधनाकार आचार्य शिवकोट (शिवार्य) के गुरु बताये जाते हैं। आप स्वयं चन्द्रनन्दि नामक आचार्य के शिष्य थे। तदनुसार आपका समय ई० श० १ पूर्वार्ध जाता है। (भ का प्र.१६/प्रेमी जी। बलभद्र - १ सुमेरु सम्बन्धी नन्दन वनमें स्थित एक प्रधान कूट व उसका स्वामी देव । अपरनाम मणिभद्र है । - दे० लोक ३/६ । २. सनत्कुमार स्वर्गका छठा पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग /५/३, बलमद - दे० मद । बलमित्र - श्वेताम्बर आम्नायके अनुसार इनका अपरनाम बसुमित्र था। [३०] बहुमित्र बलाक पिच्छ— सघकी गुर्वावलीके अनुसार आप आचार्य उमास्वामी के शिष्य थे। समन्तभद्र आचार्य के समकालीन तथा सोहाचार्य तृतीयके सहधर्मा मे लोहाचार्य नाम नन्दिसंघमे आता है । पर इनका नाम उसी नन्दिसघके देशीय गण नं०२ में आता है। अर्थात् ये देशीय गण न. २ के अग्रणी थे। समय- वि. १००-२०० २२०-२११) विशेष दे० इतिहास / ०११, ४ बलात्कार गणनन्दि की एक शाखा दे० इतिहास /५/२ बलाधान कारण दे० निमिच / १ । बलि१. पूजा ( प प्र / २ / १३६ ); २. आहारका एक दोष-दे० आहार II / ४/४ ३. वसतिकाका एक दोष – दे० वसतिका । ४. ह. पु/२०/ श्लाक नं० उज्जयनी नगरीके राजा श्रीधर्माके ४ मन्त्री थे । बलि प्रह्लाद, बृहस्पति व नमुचि । ( ४ ) एक समय राजाके संग मुनि वन्दनार्थ जाना पडा (८) । आते समय एक मुनिसे वादविवाद हो गया जिसमें इनको परास्त होना पडा ( १० ) । Jain Education International १८१ बहिरात्मा इससे क्रुद्ध हो प्रतिकारार्थ रात्रिको मुनि हत्याका उद्यम करनेपर वनदेवता द्वारा कील दिये गये। तथा देशसे निकाल दिये गये (११)राचाद इतनागपुर मे राजा पद्मके मन्त्री हो गये। वहाँ उनके शत्रु सिहरको जीतकर राजासे वर प्राप्त किया (१७) मुनि सघ के हस्तनागपुर पधारनेपर वर के बदले में सात दिनका राज्य ले (२२) नरमेध महने महाने, सकल मुनिसंधको अग्नि होम दिया (२३) जिस उपसर्ग को विष्णु कुमार सुनिने दूर कर इन चारोको देश निकाला दिया (६०) । बलींद्र वर्तमानकालीन सातवें प्रतिनारायण थे। अपरनाम] प्रहरण व प्रह्लाद था । ( म. पु / ६६ / १०६) विशेष परिचय - दे० शलाका पुरुष / ५ बल्लाक देव कर्नाटक देशस्थ होय्सलका राजा था। इसके समयमैं कर्नाटक देशमें जैन धर्मका प्रभाव म गढा विष्णुमर्धन के उत्तराधिकारी नारसिंह और उसके उत्तराधिकारी बन्लाक देव हुए। 1 विष्णुवर्धन द्वारा किया गया जैनियोपर अत्याचार इसने दूर किया । यद्यपि ध ३ / प्र ४ के अनुसार इनका समय ई० ११०० बताया गया है, परन्तु उपरोक्त कथनके अनुसार इनका समयई० १२६३-१९१० आना चाहिए .. १/४ / HIn Jain ) । - बहल का वि/७००/८८२ / ६ तितिणी काफलरसप्रभृति च अन्यबलं । कांजी, द्राक्षारस, इमलीका सार, वगैरह गाढ पानकको बहल कहते है । बहिरात्मा - भोपा.// हत्थे फुरियमणो इदियदारेण । निग्रहं अध्यादि विडीओ II नियदेहसारे पिच्छिऊण परविग्गह पयत्तेन । अच्चेयणं पि गहिरं भाइज्जइ परमभाषण | हा = बाह्य धनादिकमे स्फुरत अर्थात् तत्पर है मन जिसका, वह इन्द्रियोंके द्वारा अपने स्वरूपसे च्युत है अर्थात् इन्द्रियोको ही आत्मा मानता हुआ अपनी देहको ही आत्मा निश्चय करता है, ऐसा मिध्यादृष्टि महिारमा है (सवा ७) (१.प्र./मू./१/१३ ) बहिरात्मा मिथ्यात्व भाव से जिस प्रकार अपने देहको आत्मा मानता है, उसी प्रकार परका देहको देख अचेतन है फिर भी उसको आत्मा माने है, और उसमें बड़ा यत्न करता है || नि. सा. / / ९४१९५२ आवास्यपरिहीण समणो सो होदि महिरप्पा १४६) अतरबाहिरजप्पे जो बट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा | १५०/-. फागनियो समय महिरप इदि विजानीहि । १५१० पर् आवश्यक क्रियाओसे रहित श्रमण वह बहिरात्मा है | १४ | और जो असा जन्यमे वर्तता है, वह महिमा है | १५० अथवा ध्यान से रहित आत्मा बहिरात्मा है ऐसा जान । १५१ । र सा / १३५-१३७ अपणाणज्भाणज्यणमुहमियरसायणप्पाण । माजी भुजइ साहु महिण्या | १३३ बेहतर पुस मित्ताविहारण भाव सो चैन वेद महररूपा | १३४ | - आत्मा के ज्ञान, ध्यान व अध्ययन रूप सुखामृतको छोड़कर इन्द्रिय सुखको भगता है, सो ही बहिरात्मा है । १३५॥ देह, कलत्र, पुत्र व मित्रादिक जो ना विभाविक रूप है, उनमें अन्नापनेकी भावना करनेवाला बहिरात्मा होता है | ११७| यो सायो / ७ मिच्छा-द सण- मोहियउ पर अप्पा ण मुणेइ। सो बहि रप्पा जिण भणिउ पुण स्सार भमेइ 191 जो मिथ्यादर्शन से मोहित जीव परमात्माको नहीं समझता, उसे जिन भगाउने महिरात्मा कहा है, यह जीव पुन पुन ससारमे परिभ्रमण करता है | ७| जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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