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________________ बंध १७२ २. द्रव्य बन्धकी सिद्धि है। कर्माके उपशम और क्षयको अविपाक कहते है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अविपाक जिस भावका प्रत्यय है उमे अविवाक प्रत्ययिक जीव भावबन्ध कहते हे। (अर्थात जीवके औपशमिक व क्षायिक भाव (दे० उपशम/६)। मौके उदय और उदीरणासे तथा इनके उपशमसे जो भाव उत्पन्न होता है, उसे तदुभय प्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहते है। ( अर्थात् जीवके क्षायोपशमिक भाव -~-दे०क्षायोपशम)। ८. विपाक अधिपाक प्रत्यायिक अजीवभावबन्ध ष. ख. १४/५,६/सू. २१-२३/२३-२६-पओगपरिणदा बण्णा पओगपरिणदा सदा पओगपरिणदा गधा पओगपरिणदा रसा पयोगपरिणदा फासापओगपरिणदा गदी पओगपरिणदा ओगाहणा पओगपरिणदा संठाणा पओगपरिणदा खंधा पओगपरिणदा खधदेसा पओगपरिणदा खधपदेशा जे चामण्णे एवमादिया पओगपरिणदसजुत्ता भावा सो सव्वो विवागपच्चइओ अजीव भावबधो णाम ।२१. जे चामण्णे एवमादिया विस्ससापरिणदा सजुत्ता भावा सो सम्बो अविवागपञ्चइओ अजीवभावबधो णाम ।२२। जे चामण्णे एकमादिया पओअविस्ससापरिणदा सजुत्ता भावा सो सव्वो तदुभयपञ्चइओ अजीवभावअधोणाम ॥२३॥ घ. १४/५,६,२०/२२/१३ मिच्छत्तासजम-कसाय-जोगेहितो पुरिसपओगेहि वा जे णिप्पण्णा अजीवभावा तेसि विवागपञ्चइओ अजीवभावबधो त्ति सण्णा । जे अजीवभावा मिच्छत्तादिकारणे हि विणा समुप्पण्णा तेसिमविवागपच्चइओ अजीवभावबधो त्ति सपणा जे दोहि वि कारणेहि समुप्पण्णा तेसिं तदुभयपञ्चइयो अजोवभावबधो त्ति सण्णा । -१, मिथ्यात्व, असयम, कषाय और योगसे या पुरुषके प्रयत्नसे जो अजीव भाव उत्पन्न होते है उनकी विपाक प्रत्ययिक अजीवभावबन्ध सज्ञा है। जैसे प्रयोग परिणत वर्ण, प्रेयोग परिणत शब्द, प्रयोग परिणत गन्ध, प्रयोग परिणत रस, प्रयोग परिणत स्पर्श, प्रयोग परिणत गति, प्रयोग परिणत अवगाहना, प्रयोगपरिणत सस्थान, प्रयोग परिणत स्कन्ध, प्रयोगपरिणत-स्कन्धदेश और प्रयोग परिणत स्कन्धप्रदेश, ये और इनसे लेकर जो दूसरे भी प्रयोग परिणत संयुक्त भाव होते है वह सब विपाक प्रत्यायिक अजीवभावबन्ध है ।२१ २ जो अजीब भाव मिथ्यात्व आदि कारणोके बिना उत्पन्न होते है उनकी अविवाक प्रत्ययिक अजीय भाव बन्ध यह सज्ञा है। जैसे पूर्व कथित वर्ण, गन्ध आदिसे लेकर इसी प्रकारके विस्रसा परिणत जो दूसरे सयुक्त भाब है वह अविपाक प्रेत्य यिक अजीव भावबन्ध है ।२२। ३. जो दोनो ही कारणोसे उत्पन्न होते है उनको तदुभय प्रत्यायक अजीव भावबन्ध यह सज्ञा है । यथा पूर्व कथित हो वर्ण-गन्ध आदिसे लेकर प्रयोग और विलसा दोनोसे परिणत जितने भी सयुक्त भाव है वह सब तदुभय प्रत्ययिक अजीव भावबन्ध है।। ९. बन्ध अबन्ध व उपरतबन्धके लक्षण गो. क./भाषा/६४४/८३८ वर्तमान काल विषै जहाँ पर नव सम्बन्धी आगामो आयुका बन्ध होई तहाँ बन्ध कहिये जो आगामी आयुका अतीतकाल विषै बन्धन भया, वर्तमान काल विषै भी न हो है। तहाँ अबन्ध कहिये । जहाँ आगामी आयुका पूर्व बन्ध भया हो और वर्तमान काल विर्षे बन्ध न होता हो तहाँ उपरतबन्ध कहिये । २. द्रव्य बन्धको सिद्धि १. शरीरसे शरीरधारी अमिन्न कैसे है ध.६/४,१,६३/२७०/५ कध सरोरादो सरीरी अभिण्णो। सरीरदाहे जीवे दाहोपल भादो, सरीरे भिज्जमाणे छिज्जमाणे च जीवे वेयणोवल भादो सरीरागरिसणे जीवागरिसणदं सणादो, सरीरगमणागमणेहि जीवस्स गमणागमण सणादो, पडियारख ड्याण व दोणं भेदाणुवल भादो, एगीभूददुद्वोदय व एगतेणुवल भादो। -प्रश्न-शरीरसे शरीरधारी जीब अभिन्न केसे है। उत्तर-चू कि शरीरका दाह होनेपर जीवमे दाह पाया जाता है, शरीरके भेदे जाने और छेदे जानेपर जीवमें वेदना पायी जाती हे, शरीरके खीचनेमे जीवका आकर्षण देखा जाता है, शरीरके गमनागमनमें जीवका गमनागमन देखा जाता है, प्रत्याकार (म्यान) और खण्डक (तलवार) के समान दोनोमे भेद नही पाया जाता है। तथा एकरूप हुए दूध और पानी के समान दोनो एकरूपसे पाये जाते है । इस कारण शरीरसे शरीरधारी अभिन्न है । २. जीव व कर्मका बन्ध कैसे जाना जाये क पा १/१,१/३ ४०/५७/७ तं च कम्म जीवसबद्ध चैव । तं कुदो णव्वदे। मुत्तेण सरीरेण कम्मज्जेण जीवस्स सवधण्णहाणुववत्तीदो। ण च सबथो; सरीरे छिज्जमाणे जीबस्स दुनखुवल भादो। जीवे गच्छते ण सरीरेण गंतव्य, जीवे रुठे कंप पुलउग्गमघम्मादओ सरीरम्मि ण होज्ज सव्वेसि जीवाणं केवलणाण. . सम्मत्तादओ होज्ज; सिद्धाण वा तदो चेव अण तणाणादिगुणा ण होज्ज । ण च एव, तहाणभुवगमादो। प्रश्न--कर्म जीवसे सम्बद्ध ही है यह कंसे जाना जाता है। उत्तर-१. यदि कर्मको जीवसे सम्बद्ध न माना जाये तो कर्म के कार्य रूप मूर्त शरीरसे जीवका सम्बन्ध नही बन सकता है. इस अन्यथानुपपत्तिसे प्रतीत होता है कि कर्म जीवसे सबद्ध ही है। २. शरीरादिके साथ जीवका सबन्ध नही है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि शरीरके छेदे जानेपर जीवको दुख की उपलब्धि होती है। ३. जीवके गमन करनेपर शरीरको गमन नहीं करना चाहिए।४ . जीवके रुष्ट होनेपर शरीरमे कप, दाह पसीना आदि कार्य नही होने चाहिए। जीवकी इच्छासे शरीरका गमन सिर और अगुलियोका सचालन नही होना चाहिए। ६. सम्पूर्ण जीवोके केवलज्ञान.. सम्यक्त्वादि गुण हो जाने चाहिए । ७. या सिद्धोके भी ( यह केवल ज्ञानादि गुण ) नही होने चाहिए । ८. यदि कहा जाये कि अनन्तज्ञानादि गुण सिद्धोके नही होते है तो मत होओ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योकि ऐसा माना नही गया है। ३. जीवप्रदेशोमें कर्म स्थित है या अस्थित घ १२/१, २,११, १/३६४/६ जदि कम्मपदेसा ठ्ठिदा चेव होति तो जीवेण देस तरगदेण सिद्धसमासेण होदव । कुदो। सयलकम्मा भावादो। ध. १२/४,२,११, २/३६५/७ जीवपदेसेसु दिअद्दजल ब संचरतेसु तत्थ समवेदकम्मपदेसाण पि सचर णुवल भादो। जीवपदेसेसु पुणो कम्मपदेसा ठ्ठिदा चेव, पूविल्लदेस मोत्तूण देसतरे दिठदजीवपदेसेसु समवेदकम्मवरख धुवल भादो। ध १२/४, २, ११,३/३६६/५ छतुमत्यस्स जीवपदेसाण के सि पि चलणा भावादो तत्थ दि कम्मरवधावि टिदा चेत्र होति, लत्थेव केसि जीवपदेसाणं संचालुवल भादो तत्थ दिक्म्मपखंधा वि सचल ति, तेण ते अदिठदा त्ति भग्ण ति ।-प्रश्न-(जीव प्रदेशमे समबायको प्राप्त कर्म प्रदेश स्थित है कि अस्थित) उत्तर-१. यदि कर्म प्रदेश स्थित ही हो तो देशान्तरको प्राप्त हुए जीवको सिद्ध जीवके समान हो जाना चाहिए, क्योकि उस समय उसके समस्त कर्मोका अभाव है। २. मेघोमें स्थित जलके समान जीव प्रदेशोका संचार होने पर उनमे समवायको प्राप्त कर्म प्रदेशोका भी सचार पाया जाता है। परन्तु जीव प्रदेशो मे कम प्रदेश स्थित ही रहते है, क्योकि, जीव प्रदेशोके पूर्व के देशको छोडकर देशान्तरमे जाकर स्थित जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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