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________________ प्रोषधोपवास २. प्रोषधोपवास व उपवास निर्देश तथा जो एकाशन और दूसरे दिन उपवास करके पारणाके दिन एकाशन करता है, वह प्रोषधोपवास कहा जाता है ।१०६। ३. प्रोषधोपवाद व प्रोषध प्रतिमाओं में अन्तर चा,सा/३७/४ प्रोषधोपवास मासे चतुर्वपि पर्व दिनेषु स्वकीया शक्तिमनिगृह्य प्रोषधनियम मन्यमानो भवतीति व्रतिकस्य यदुक्त शील प्रोषधोपवासस्तदस्य व्रतमिति । - प्रोषधोपवास प्रत्येक महीनेके चारों पौंमे अपनी शक्तिको न छिपाकर तथा प्रोषधके सब नियमोको मानकर करना चाहिए। व्रती श्रावकके जो प्रोषधोपवास शील रूपसे रहता था वही प्रोषधोपवास इस चौथी प्रतिमावालेके बत रूपसे रहता है। ला. सं./७/१२-१३ अस्त्यत्रापि समाधानं वेदितव्यं तदुक्तवत् । सातिचार च तत्र स्यादत्रातिचारवर्जितम् ॥१२॥ द्वादशवतमध्येऽपि विद्यते प्रोषधं व्रतम् । तदेवात्र समारख्यान विशेषस्तु विवक्षित ।१३। -व्रत प्रतिमामें भी प्रोषधोपवास कहा है तथा यहाँ पर चौथी प्रतिमा में भी प्रोषधोपवास व्रत बतलाया है इसका समाधान वही है कि व्रत प्रतिमामें अतिचार सहित पालन किया जाता है। तथा यहाँ पर चौथी प्रतिमामें वही प्रोषधोपवास व्रत अतिचार रहित पालन किया जाता है। तथा व्रत प्रतिमा वाला श्रावक कभी प्रोषधोपवास करता था तथा कभी कारणवश नही भी करता था परन्तु चतुर्थ प्रतिमा वाला नियमसे प्रोषधोपवास करता है यदि नहीं करता तो उसकी चतुर्थ प्रतिमाको हानि है। यही इन दोनोमे अन्तर है ।१३। । वसु. श्रा/टी./३७८/२७७/४ प्रोषधप्रतिमाधारी अष्टम्यां चतुर्दश्या च प्रोषधोपवासमझीकरोतीत्यर्थ । व्रते तु प्रोषधोपवासस्य नियमो नास्तीति। प्रोषध प्रतिमाधारी अष्टमी और चतुर्दशीका उपवास नियमसे करता है और व्रत प्रतिमामें जो प्रोषधोपवास व्रत बतलाया है उसमें नियम नही है। १. उपवास अपनी शक्तिके अनुसार करना चाहिए ध. १३/५,४,२६/५६/१२ पित्तप्पकोवेण उववास अक्खयेहि अद्धाहरेण उपवासादो अहियपरिस्समे हि । । - जो पित्तके प्रकोपवश उपवास करने में असमर्थ है, जिन्हे आधा आहारकी अपेक्षा उपवास करने में अधिक थकान होती है उन्हे यह अवमौदर्य तप करना चाहिए। चा. पा/टी /२५/४५/१६ तदपि त्रिविधं प्रोषधोपवास भवति यथा कर्तव्यम् । = वह प्रोषधोपवास भी उत्तम, मध्यम व जघन्यके भेदसे तोन प्रकार का है। उनमे से कोई भी यथाशक्ति करना चाहिए। सा. ध./२/३५ उपवासाक्षमै कार्योऽनुपवासस्तदक्षमै । आचाम्लनिविकृत्यादि, शक्त्या हि श्रेयसे तप ।३५॥ -- उपवास करने में असमर्थ श्रावकोके द्वारा जलको छोडकर चारो प्रकारके आहारका त्याग किया जाना चाहिए, और उपवास करनेमे असमर्थ श्रावकोके द्वारा आचाम्ल तथा निविकृति आदि रूप आहार किया जाना चाहिए, क्योकि शक्तिके अनुसार किया गया तप कल्याण के लिए होता है ।३॥ * उपवास साधुको भी करना चाहिए-दे० सयत/३ । * व्रत भंग करनेका निषेध-दे० व्रत/१॥ * उपवासमें फलेच्छाका निषेव-दे० अनशन/१ । ५. अधिकसे अधिक उपवासोंकी सीमा घ. ६/४,१,२२/८७-८६/५ जो एक्कोववास काऊणं पारिय दो उववासे करे दि. पुणरवि पारिय तिणि उबवासे क्रेदि। एवमेगुत्तरवड्ढीए जाव जीविदतं तिगुत्तिगुत्तो होदूण उबवासे क्रेतो उग्गुग्गतको णाम। एव सते छम्मासे हितो बड्ढिया उपवासा होति । तदो णेद घडदि त्ति । ण एस दोसो, घादाउआणं मुणीणं छम्मासोश्वासणियमभुवगमादो, णाप्पादाउआणं, तेसिमकाले मरणाभावो । अघादाउआ वि छम्मासोववासा चेव होति, तदुवरि सकिलेसुप्पत्तोदो त्ति उत्ते होदु णाम एसो णियमो सस किलेसाणं सोवक्कमाउआप च, ण सक्लेिसविरहिद णिरुवक्कम्माउआण तवोबलेणुप्पण्णविरियंतराइयक्खओवसमाणं तव्वलेणेव मदीकसायादावेदणीओदयाणामेस णियमो, तत्थ तबिरोहादो। तवोबलेण एरिसी सत्ती महाणम्मुपज्ज दि त्ति कध णव्वदे। एदम्हादो चेव सुत्तादो। कुदो। छम्मासे हितो उपरि उबवासाभावे उग्गुग्गतवाणुववत्तीदो। जो एक उपवासको करके पारणा कर दो उपवास करता है, पश्चात फिर पारणा कर तीन उपवास करता है। इस प्रकार एक अधिक वृद्धिके साथ जीवन पर्यन्त तीन गुप्तियोसे रक्षित होकर उपवास करनेवाला उग्रोग्रतप ऋद्विका धारक है । प्रश्न - ऐसा होनेपर छह माससे अधिक उपवास हो जाते है। इस कारण यह घटित नहीं होता ? उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्यो कि, घातायुष्क मुनियोके छह मासोके उपवासका नियम स्वीकार किया है, अघातायुष्क मुनियोके नहीं, क्योकि, उनका अकालमें मरण नहीं होता। प्रश्न-अघातायुष्क भी छह मास तक उपवास करनेवाले ही होते है, क्योकि, इसके आगे सम्लेशभाव उत्पन्न हो जाता है ! उत्तर-इसके उत्तर में कहते है कि सक्लेश सहित और सोपकमायुष्क मुनियोके लिए यह नियम भले ही हो, किन्तु सक्लेशभावसे रहित निरुपक्रमायुष्क और तपके बलसे उत्पन्न हुए वोर्यान्तरायके क्षयोपशमसे सयुक्त तथा उसके बलसे ही असाता वेदनीयके उदयको मन्द कर चुकनेवाले साधुओके लिए यह नियम नहीं है, क्योकि उनमें इसका विरोध है। प्रश्न-तपके बलसे ऐसी शक्ति किसी महाजनके उत्पन्न होती है, यह कैसे जाना जाता है। उत्तर-इसी सूत्रसे ही यह जाना जाता है, क्यो कि छह माससे ऊपर उपवासका अभाव माननेपर उग्रोग्र तप बन नहीं सकता। घ १३/५,४,२६/५५/१ तत्थ चउत्थ- छ ट्ठम-दसम-दुवालसपक्रव-मासउन-अयण-स बच्छरेसु एसणपरिचाओ अणेसणं णाम तवी । -चौथे, छठे, आठवे, दसवे और बारहवे एषणका ग्रहण करना तथा एक पक्ष, एक मास, एक ऋतु, एक अयन अथवा एक वर्ष तक एषणका त्याग करना अनेषण नामका तप है। म पु/१०/२८-२६ का भावार्थ-आदिनाथ भगवान ने छह महीनेका अनशन लेकर समाधि धारण की। उसके पश्चात् छह माह पर्यन्त अन्तराय होता रहा। इस प्रकार ऋषभदेवने १ वर्षका उत्कृष्ट तप किया। म पु/३६/१०६ गुरोरनुमतेऽधीती दधदेकविहारिताम् । प्रतिमायोगमावर्षम् आतस्थे किल स वृत ।१०६। = गुरुकी आज्ञामें रहकर शास्त्रो का अध्ययन करने मे कुशल तथा एक विहारीपन धारण करनेवाले जितेन्द्रिय बाहुबलीने एक वर्ष तक प्रतिमा योग धारण किया 1१०६। (एक ष पश्चात् उपवास समाप्त होनेपर भरतने स्तुति की तब हो केवलज्ञान प्रगट हा गया)। (म. पु/३६/१८)। ६. उपवास करने का कारण व प्रयोजन पु.सि उ /१५१ सामायिकसस्कार प्रतिदिनमारोपित स्थिरीकर्तुम् । पक्षाईयो यारपि कर्तव्योऽवश्यमुपवास ।१५१४ - प्रतिदिन अंगीकार किये हुए सामायिक रूप सस्कारको स्थिर करनेके लिए पक्षोके अर्व भाग-अष्टमी चतुर्दशी के दिन उपवास अवश्य ही करना चाहिए।१५१ ७. उपवासका फल व महिमा पु.सि उ/१५७-१६० इति य षोडशायामान् गमयति परिमुक्तसकलसावद्य । तस्य तदानी नियत पूर्ण महिसावत भवति ।१५७। भोगो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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