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________________ पद्मदेव पद्मरथ तत्पश्चात आरण स्वर्गमें देव हुआ (१७-१८)। यह शीतलनाथ पद्मनंदि पंचविशतिका-आ० पद्मनन्दिा ई०११ का उत्तरार्ध) भगवानका पूर्वका दूसरा भव है-दे० तीर्थंकर। द्वारा सस्कृत छन्दोंमे रचित गृहस्थधर्म प्ररूपक ग्रन्थ है। इसमें २५ पद्म(देव)-१पद्माकूट वक्षारपर स्थित पद्मकूटका रक्षक देव-दे० लोक/४ अधिकार तथा कुल ८०० श्लोक है। (तो/३/१२६-१४०)! २ श्रद्धानवान् वक्षारपर स्थित पद्मकूटका रक्षक देव-दे० लोक५/४ ३. रम्यकक्षेत्रका नाभिगिरि-दे० लोक/५/३ ४. दक्षिण पुष्कराध द्वीपका रक्षक व्यन्तर देव-दे० व्यतर/४। पद्मनाभ-भट्टारक गुणको ति के शिक्षा शिष्य, संस्कृत के अधिकृत ५. कुण्डल पर्वतस्थ रजतकूट का स्वामी नागेन्द्र देव-दे० लोक/४२२ । कवि । कृतियशोधर चम्ति । समय-ई. १४०५-१४२५ । पद्मनंदि-दिगम्बर जैन आम्नायमें पद्मनन्दि नामके अनेकों (ती./४/५४). आचार्य हुए है। १. कुन्दकुन्दका अपर नाम (समय-वि० १८४ पद्मनाभ--म.पू./५४/श्लोक पूर्व धातकीखण्डमे मगलावतीदेशके २२६ (ई० १२७-१७६) । वे कुन्दकुन्द । जै०/२/८६) २. नन्दिसत्र के रत्नसंचय नामक नगरके राजा कनकप्रभका पुत्र था (१२१-१३१)। देशीयगण में चैकाल्य योगी के शिष्य और कुलभूषण के गुरु थे। अन्तमें दीक्षा धारण कर ली। तथा ग्यारह अगोका पारगामी हो प्रमेयकमल मात्तण्ड के कर्ता प्रभाचन्द्र न०४ इनके सहधर्मा तथा तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया। आयुके अन्तमे समाधिपूर्वक विद्या शिष्य थे। आमिद्धकरण तथा कौमारदेव इनके अपर नाम है। वैजयन्त विमानमें अहमिन्द्र हुआ (१५८-१६२)। यह चन्द्रप्रभु समय-ई०१३०-१०५३ । (दे०इतिहास/७/५) । (पं.वि/प्र.२/AIN. भगवान के पूर्व का दूसरा भव है-दे० चन्द्रप्रभ । Up.) के अनुसार इनका समय ई० ११८५-१२०३ है परन्तु ऐसा मानने से ये न तो प्रभाचन्द्र नं.४ (ई०६१०-१०२०) के सहधर्माठहरते है पद्मनाभचरित्र-आ० शुभचन्द्र ( ई०१५१६-१५५६) द्वारा रचित और न ही माघनन्दि कोल्हापुरीय (ई० ११०८ ११६६) के दादा गुरु हो सिद्ध होते है। ३. काष्ठा संघ की गुर्वावलो के अनुसार आप संस्कृत छन्दबद्धग्रन्थ । हेमचन्द्र के शिष्य और यश कीति के गुरु थे। समय-वि० १००५ (ई०६४८): (दे० इतिहास/७/८)। ४ नन्दिसघ देशीयगम में वीर- पद्मपुराण-पद्मपुराणनामके कई ग्रन्थ उपलब्ध है, सभी राम नन्दि के प्रशिष्य, बालनन्द के शिष्य और प्रमेयकमल मार्तण्ड के रावणकी कथाके प्रतिपादक है।-१ आ. विमल सूरी (ई. श ४) कृत कर्ता प्रभाचन्द्र न ४ के दीक्षा गुरु थे। माघनन्दि के शिष्य श्री. ० अधिकारों में विभक्त ११८ सर्ग प्रमाण अपभ्र श काव्य । (ती./२/ नन्दि के लिये आपने 'जंबूदीव पण्णति' की रचना की थी। कृतिये- २४७)। २. श्रा कीर्तिधर (ई ६००) कृत 'रामकथा के आधार पर जबूदीव पण्णति, धम्म रसायण, प्राकृत पच सग्रह को वृत्ति (संस्कृत आ. रविषेण द्वारा ई ६७७ में रचित सस्कृत पाबद्ध 'पद्य चरित', टोका) । समय-लगभग ई०१७-१०४३ । (दे० इतिहास//५), जैन जो छः खण्डों तथा १२ पत्रों में विभक्त २०,००० श्लोक प्रमाण है। २/८४-८५.(ती०/३/११०)।५ आ० वीर नन्दि के दीक्षा शिष्य और (ती/२/१७६) ३. कवि स्वयम्भू (ई ७३८.८४०) कृत 'पउम चरिउ' शानाणे व रचयिता शुभचन्द के शिक्षा शिष्य । कृतिये-पम- नामक अपभ्रश काव्य, जो.सन्धियों में विभक्त १२००० श्लोक विशतिका (सम्कृत), चरण सार (प्राकृत), धम्मरसायण (प्राकृत)। प्रमाण है। ती/४/६८)। ४ कवि रइधू (ई. १४००-१४७६) कृत समय-वि० श०, १२, ई०२० ११ का उत्तरार्ध । वि०१२३८ तथा 'परम चरिउ' नामक अपभ्रंश काव्य (सी./४/REE)|५. चन्द्र कीर्ति १२४२ के शिला लेखो में आपका उल्लेख आता है। जै०/२/६/१६२) भट्टारक (ई. १५६७) कृत 'पद्यपुराण'(ती./१/४४१)। (ती०१३/१२५. १२१)1६. विद्यदेव के शिष्य । समय-वि० १३७३ पद्मप्रभ-म.पु/१२/श्लोक धातकीखण्डके पूर्व विदेहमें वत्सकामें स्वर्गवास हुआ। अत वि० १६१५-१३७३ (ई. १२५८-१३१६)। देशकी सुसीमानगरीके अपराजित नामक राजा थे (२-३)। फिर (प वि/२८/AN Up), (जै /२/८६)। ७ शुभ चन्द्र अध्यात्मिक उपरिम प्रैवेयकके प्रीतिकरविमानमें अहमिन्द्र हुए (१२-१४)। के शिष्य । समय-ई १२६३-१३२३ । ८. लघु पद्यनन्दि नाम के वर्तमान भवमे छठे तीथकर हुए है। विशेष परिचय-दे० भट्टारक । कृतिये--निघण्टु वैद्यक श्रावकाचार, यत्याचार कतिकुण्ड तीर्थकर ।। पार्श्वनाथ विधान, देव पूजा, रत्रय पूजा, अनन्त कथा, परमात्म- पद्मप्रभ-मलधारीदेव-बीरनन्दि के शिष्य । कृतिय-पार्श्वनाथ प्रकाश को टीका। समय-वि०१३६२ (ई०१३०१)। (जै०/२१८६), स्तोत्र, नियमसार टोका । समय-वि १२४२ में स्वर्गवास हुआ, अत: (पof०/०२८/A.N. Up), (पं०का०(१० २/५० पन्ना लाल)। वि श १३ का द्वि चरण (ई. १९४०-११४)। (जै./२/१९)3B १ शुभ चन्द्र अध्यात्मो के शिष्य । शुभ चन्द्र का स्वर्गवास वि. १२७० (ती/३/१४)। में हुआ।तदनुसार उनका समय - वि० १३५०-१३८० (ई १२६३ई १३२३) । (पंबि/प्र. २८/A.N.Up.) । १०. नन्दिसंघ बनानार पद्ममाल-१, सौधर्मस्वर्गका २३वों पटल-दे० स्वर्ग/१/३:२. गण को दिल्ली गददी की गुचिली के अनुसार आप प्रभाचन्द्रन . सौधर्मस्त्रर्गके २३चे पटलका इन्द्रक-दे० स्वर्ग।। के शिष्य तथा देवेन्द्र को तिने सकल कीर्तिके गुरु थे। ब्राह्मण कुल में एत्मन्म हुए थे। गिरनार पर्वत पर इनका श्वेताम्मरों के साथ विवाद चला था जिसमें इन्होंने ब्राह्मी देवी अथवा सरस्वती की मूर्ति को पद्मरथ-१. म पु/६०/श्लोक न घातकीखण्डमें अरिष्ट नगरीका बाचाल कर दिया था (शुभचन्द्र कृत पाण्डव पुराण श्ल १४ तथा राजा था (२-३) । धनरथ पुत्रको राज्य देकर दीक्षित हो गया। शुभचन्द्र को गुर्वावलो श्ल ६३)। (रत्ननन्दि कृत उपदेश तर गिनी तथा ग्यारह अगोका पाठी हो तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया पृ १४८)। कृतियें जीरापल्ली पार्श्वनाथ स्तोत्र, भाना पद्धति. (११)। अन्तमें सल्लेखना पूर्वक मरणकर अच्युत स्वर्ग में इन्द्रपद प्राप्त किया (१२) यह अनन्तनाथ भगवात्का दूसरा पूर्वभव हैअनन्तव्रत कथा, वर्दमान चरित्र । समय-वि १४५० में इन्होंने दे० अनन्तनाथ । २ ह.पु/२०/ श्लोक न 'हस्तिनापुरमें महापद्म चक्रआदि माथ भगवान की प्रतिमा स्थापित कराई थी। अत वि. वर्तीका पुत्र तथा विष्णुकुमारका बड़ा भाई था (१४)। इन्होंने ही १३८५-१४५० । ई. १३२८-१३६६) । (जै /२/२९१). (ती /३/२२२)। सिंहबल राजाको पकड लानेसे प्रसन्न होकर बलि आदि मन्त्रियोंको जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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