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________________ प्रस्तर १५२ प्राण प्रस्तर-ध १४/५,६,६४१४१५/७ सग्गलोअसे डिबद्धपइण्णया विमाणपत्थडाणि णाम । तत्थ (णिरय ) तण-पइण्णया गिरयपत्थडाणि णाम।-स्वर्गलोकके श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमान प्रस्तर कहलाते है और वहाँके (नरकके) प्रकीर्णक नरक प्रस्तर कहलाते है। विशेष दे नरक /५/३, स्वर्ग 11/११ । प्रस्तार-अक्ष संचार गणितमें अंकों का स्थापन करना प्रस्तार है। विशेष दे० गणित/II/३/१॥ प्रस्ताव-न्या.वि./टी./२/१६/५३१/३ प्रस्तूयते प्रमाण-फलत्वेना धिक्रियते इति प्रस्ताव प्रस्तुयते अर्थात प्रमाणके फल रूपसे 'जिसका ग्रहण किया जाता है, ऐसा हेयोपादेय तत्त्वका निर्णय प्रस्ताव है। प्रस्थ-१.रा.बा/१/३३/७/१७/११ प्रतिष्ठन्तेऽस्मिन्निति प्रस्थ./जिसमे धान्य आदि मापे जा रहे है उसको प्रस्थ कहते है । २. तोलका एक प्रमाण विशेष-दे० गणित /1/१/२ । प्रस्थापक-ध.६/१,६-८,१२/२४७/७ कदकरणिज्जपढमसमयप्पहुडि उपरि णिठ्ठवगो उच्चदि = कृतकृत्य वेदक होनेके प्रथम समयसे लेकर ऊपरके समय में दर्शनमोहको क्षपणा करनेवाला जीव निष्ठापक कहलाता है। गो क /जो.प्र./५५०/७४४/१० दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भप्रथमसमयस्थापितसम्यक्त्वप्रकृतिप्रथम स्थित्यान्तर्मुहूर्तावशेषे चरमसमयप्रस्थापक' । अनन्तरसमयादाप्रथमस्थितिचरम निषेकं निष्ठापक । -दर्शनमोह क्षपणाके प्रारभ समयमें स्थापी गयी सम्यक्त्व प्रकृतिकी प्रथम स्थितिका अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहनेपर, उसके अन्त समय पर्यन्त तो प्रस्थापक कहलाता है। और उसके अनन्तर समयसे प्रथम स्थितिके अन्त निषेक पर्यन्त निष्ठापक कहलाता है। प्रहरण-दे० अलौद्र । प्रहरा-भरत क्षेत्रस्थ आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । हासत-१ हनुमान के पिता पधनञ्जयका मित्र (प.पु/१६/१२७) २. मातङ्ग वंशका एक राजा-दे० इतिहास/9/8। प्रहार संक्रामिणी-एक मन्त्र विद्या-दे० विद्या। प्रह्लाद-१. राजा पद्मका मन्त्री-विशेष दे० बलि । २. आदित्यपुर का राजा । हनुमानका बाबा था। (प.पु/१५/७-८)। प्राक्-पूर्व दिशा। प्राकाम्य ऋद्धि-दे० ऋद्धि/३ । प्राकार-ध. १४/५,६,४२/४०/७ जिणहरादोणं रक्खटूठप्पासेसु ट्ठविदओलित्तीओ पागारा णाम । पकिटाहि घडिदवरंडा वा पागारा णाम ।-जिनगृह आदिकी रक्षाके लिए पार्श्वमे जो भीते बनायी जाती है वे प्राकार कहलाती है, अथवा पकी हुई ईटोसे जो वरण्डा बनाये जाते है वे प्राकार कहलाते है। प्राकृत संख्या -Natural Number ( ज.प्र./प्र.१०७) । प्रागभाव-दे० अभाव। प्राच्य-१. पूर्व दिशा, २. प्राची दिशाकी प्रधानता-दे. दिशा। प्राण-कालका प्रमाण विशेष – दे० गणित/1/१/४ । प्राण--जीवमे जीवितव्यके लक्षणोको पाण कहते है, वह दो प्रकार है-निश्चय और व्यवहार । जीवकी चेतनत्व शक्ति उसका निश्चय प्राण है और पॉच इन्द्रिय, मन, वचन, काय, आयु व श्वासोच्छ्वास ये दस व्यवहार प्राण हैं। इनमें से एकेन्द्रियादि जीवोंके यथा योग्य ४,६,७ आदि प्राण पाये जाते है। १. प्राण निर्देश व तत्सम्बन्धी शंकाएँ १. प्राणका लक्षण १ निरुक्ति अर्थ पं.सं./प्रा /१/४५ बाहिरपाणे हि जहा तहेव अभंतरेहि पाणेहि । जीवंति जेहि जीवा पाणा ते होंति बोहव्वा ।४५ - जिस प्रकार बाह्य प्राणके द्वारा जीव जीते है उसी प्रकार जिन अभ्यन्तर प्राणोके द्वारा जीव जीते है, वे प्राण कहलाते है ।४५॥ (ध./१,१,३४/गा.१४१/२५६) (गो. जी /मू./१२६/३४१) (प.सं/सं./१/४१)। ध./२/१.१/४१२/२ प्राणिति जीवति एभिरिति प्राणा' | जिनके द्वारा जीव जीता है उन्हे प्राण कहते है। गो.जी./जी.प्र./२/२१/ह जीवन्ति-प्राणति जीवितव्यवहारयोग्या भवन्ति जीवा यैस्ते प्राणा: ।= जिनके द्वारा यह जीव जीवितव्य रूप व्यवहारके योग्य है, उनको प्राण कहते है। २ निश्चय अथवा भाव प्राण प्रसा/त.प्र./१४५ अस्य जीवस्य सहजविजृम्भितानन्तज्ञानशक्तिहेतुके...वस्तुस्वरूपतया सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे"। इस जीवको, सहजरूपसे प्रगट अनन्त ज्ञान शक्ति जिसका हेतु है.. वस्तुका स्वरूप होनेसे सदा अविनाशी निश्चय जीवत्व होनेपर भी...। पं का./त प्र/३० इन्द्रियबलायुरुच्छ्वासलक्षणा हि प्राणा । तेषु चित्सामान्यान्वयिनो भावप्राणाः। -प्राण इन्द्रिय, बल, आयु तथा उच्छवास रूप है। उनमें (प्राणोमें) चित्सामान्य रूप अन्वय वाले वे भाव प्राण हैं। (गो.जी./जी.प्र./१२६/३४१/११) दे जीव/१/१ निश्चयसे आत्माके ज्ञानदर्शनोपयोग रूप चैतन्य प्राण है। स्या.मं /२७/३०६/६ सम्यग्ज्ञानादयो हि भावप्राणा' प्रावचनिकैर्गीयन्ते । -पूर्व आचार्योंने सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्रको भाव प्राण कहा है। ३. व्यवहार वा द्रव्य प्राण पं.का./त प्र/30 पुद्गलसामान्यान्वयिनो द्रव्यप्राणा' - पुद्गल सामान्य रूप अन्वयवाले वे द्रव्यप्राण है। गो.जी./जी.प्र./१२६/३४१/१० पौद्गलिकद्रव्येन्द्रियादिव्यापाररूपाः द्रव्यप्राणा. - पुद्गल द्रव्यसे निपजी जो द्रव्य इन्द्रियादिक उनके प्रवर्तन रूप द्रव्य प्राण है। २. अतीत प्राणका लक्षण ध. २/१,१/४१६/१ दसण्इं पाणाणमभावो अदीदपाणो णाम । दशों __ प्राणोके अभ वको अतीत प्राण कहते है। ३. दश प्राणों के नाम निर्देश म.आ/११६१चय इंदियपाणा मणवचकाया दु तिण्णि भलपाणा। आणप्पाणप्पाण्णा आउगपाणेण होंति दस पाणा ।११६१-पाँच इन्द्रिय प्राण, मन, वचन काय बल रूप तीन बल प्राण, श्वासोच्छवास प्राण और आयु प्राण इस तरह दस प्राण है। (पंसं./प्रा./१/४६) (ध २/१,१/४१२/२) (गो जी./म् /१३०/३४३) (प्र.सा /त.प्र./१४६) (का.अ././१३६) (प.सं./सं /१/१२४) (पं.ध./उ./५३१) । ४. इन्द्रिय व इन्द्रिय प्राणमें अन्तर घ२/१,१/४१२/३ नै तेषामिन्द्रियाणामेकेन्द्रियादिष्वन्तर्भाव चक्षुरादि क्षयोपशमनिबन्धनानामिन्द्रियाणामेकेन्द्रियादिजातिभि साम्या जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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