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________________ प्रविचार १४०० ( १३८०१ ) ( भारतीय इतिहास / पु. १ / पृ. १८६ ) विशेष दे० इतिहास /३/२१ प्रविचार स स /४/०-१/२४१-२४२/३ प्रविचारो मैथुनोपसेवनम् ०२४१ विधारी हि वेदमात्र शिकार २४२] मैथुनके उपसेवन को प्रविचार कहते है । ७१२४१। प्रविचार वेदनाका प्रतिकार मात्र है । ( रा. वा / ४/७/१/२१४/१६ ), ( रा वा /४/९/२/२१५/३२), (ध. १/ १,१,६८/३३८-३३६/६. ४ ) । प्रविष्ट कायोर्गका एक अतिचार-३० सर्ग /१। प्रवृत्ति - न्या. सू. / उत्थानिका / १ / २ / २ / २ / ५ तस्य प्रयुक्तस्य समीहा प्रवृत्तिरित्युच्यते । जानकर ) ज्ञाता के पाने या छोडनेकी प्रवृत्ति है । ५ २. प्रवृत्तिके भेद व उनके लक्षण = न्या. सू./टी./१/१/२/८/६ त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिरुद्द शो लक्षणं परीक्षा चेति । तत्र नामधेयेन पदार्थमात्रस्थाभिधानमुद्देश रात्रीदरस्य तत्यव्यवच्छेदक लक्षणस्य वालक्षण पापद्यते न वेति प्रमाणैरवधारणं परीक्षा शास्त्रकी प्रवृत्ति तीन । - प्रकारकी है जैसे उहश्य, लक्ष्य और परीक्षा, इनमेसे पदार्थोके नाममात्र कथनको उद्द ेश्य कहते है । उद्दिष्ट पदार्थ के अयथार्थ बोधके निवारण करनेवाले धर्मको लक्षण कहते है। उद्दिष्ट पदार्थ जो लक्षण किये गये है, वे ठीक है या नही, इसको प्रमाण द्वारा निश्चय कर धारण करनेको परीक्षा कहते है । ★ प्रवृत्ति में निवृत्ति अंश दे० संबर / २१ GRAY * प्रवृत्ति व निवृत्तिसे अतीत भूमिका ही व्रत है। - दे० व्रत / ३ । प्रवेणी - भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी- दे० मनुष्य / ४ ॥ प्रव्रज्या - बेराग्यको उत्तम भूमिकाको प्राप्त होकर मुमुक्षु व्यक्ति अपने सब सगे सम्बन्धियोमा मॉगकर, गुरुकी शरण में जा सम्पूर्ण परिग्रहका त्याग कर देता है और ज्ञाता द्रष्टा रहता हुआ साम्य जीवन वितानेकी प्रतिज्ञा करता है। इसे ही प्रव्रज्या या जिन दीक्षा कहते है । पंचम कालमे भी उत्तम कुलका व्यक्ति प्रवज्या ग्रहण करने के योग्य है। F ( ज्ञातु.) ईप्सा जिहासा= ( प्रमाणसे किसी वस्तुको इच्छा सहित चेष्टाका नाम ६ 19 प्रवज्या निर्देश प्रव्रज्याका लक्षण | जिन दीक्षायोग्य पुरुषका लक्षण १ २ ३ म्लेच्छ भूमिन भी कदाचित् दीक्षाके योग्य है । ४ दीक्षाके अयोग्य पुरुषका स्वरूप । ५ पंचम कालमे भी दीक्षा सम्भव है। छह संहननमे दीक्षाकी सम्भावना। स्त्री व नपुसकको निर्ग्रन्थ दीक्षाका निषेध । - दे० Jain Education International - दे० वेट/७/४। सत् शूद्रमें भी दीक्षाकी योग्यता । —दे वर्णव्यवस्था/४ । दीक्षाके अयोग्य काल मव्रज्या धारणका कारण । १४९ २ १ २ ३ दीक्षा योग्य ४८ संस्कार । - दे० संस्कार / २ । भरत पनीने भी दीक्षा धारण की थी-६० लिग ३ अवश्या विधि तत्त्वज्ञान होना आवश्यक है। प्रव्रज्या वर्ग से विदा लेनेका विधिनिषेध । सिद्धों को नमस्कार । दीक्षा दान विषयक कृतिक • दे० कृतिकर्म / ४ | द्रव्य व भाव दोनों लिंग युगपत् ग्रहण करता है । - दे० लिग /२,३ । पहले अप्रमत्त गुणस्थान होता है, फिर प्रमत्त । -३० गुणस्थान / २। आर्थिकको भी कदाचित मग्नताकी आशा । - ३० /१/४ १. प्रव्रज्या निर्देश १. प्रव्रज्याका लक्षण .. मो.पा./गाथा न हिमोहा बाबीसपरीपहा जिवकषाया। पावार भविमुक्का पन्जा एरिसा भणिया । ४५ । सत्तू मित्ते य समा पसंसणिद्दा अलद्धिलद्धिसमा । तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया व्हजायसरूवतरिसा अवलयि गिराउदा संता परकिय णिलयणिवासा पव्वज्जा एरिसा भणिया । ५११ सरीरसंक्कारवज्जिया रूपा ॥५२॥ गृह और परिग्रह तथा उनके ममत्व से जो रहित है. बाईस परीषह तथा कषायोको जिसने जीता है. पापारम्भसे जो रहित है, ऐसी प्रव्रज्या जिनदेवने कही है । ४५। जिसमें शत्रु-मित्रमें, प्रशसा - निन्दामे, लाभ व अलाभमे तथा तृण व काचनमें समभाव है, ऐसी प्रव्रज्या कही है ॥४७॥ यथाजात रूपधर लम्बायमान भुजा, निरायुध, शाना, दूसरो के द्वारा बनायी हुई षस्तिकामे दास | २१| शरीर के सस्कार से रहित, तथा तैलादिके मर्दन से रहित रूक्ष शरीर सहित ऐसी प्रव्रज्या कही गयी है । ५२१ - ( विशेष दे० बो. पा/मू. व. टी । २. जिन दीक्षा योग्य पुरुषका स्वरूप = म पू/१/१५८ समुत्तस्य ननुमत दीक्षायोग्यत्वमाम्नात सुपुखस्य सुमेधस' | १३८ | जिसका कुल गोत्र विशुद्ध है. चारित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और प्रतिमा अच्छी है, ऐसा पुरुष ही दीक्षा ग्रहण करनेके योग्य माना गया है ।१५८ यो सीआ/८/२१ मोसो वस्त्र कश्याजागो नरो योग्यो लिङ्गस्य ग्रहणे मत | ५११ - जो मनुष्य शान्त होगा उनके लिए समर्थ होगा. निर्दोष ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णोमे से किसी एक वर्णका और सुन्दर शरीर के अवयवोका धारक होगा वही निर्ग्रन्थ लिगके ग्रहण करनेमे योग्य है अन्य नही । ( अन ध // == ), ( दे० वर्ण व्यवस्था / १/४ ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only प्र. सा / ता वृ / २२ प्रक्षेपक गा० १० / ३०५ वण्णेसु तीस एको क्ल्ला + यो तो वयसा सुमुह कुधारहिंदो गगणे हवदि तवोसो । जोग्गो । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णोमे से किसी एक www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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