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________________ माद अतिचार १४६ प्रयोज्यता .पु/६२/३०५ काय पाकचेतसा वृत्तिव॑तानां मनकारिणी। या सा प्रमार्जन-दे० प्रमाजित । षष्ठगुणस्थाने प्रमादो बन्धवृत्त ये ३०५ = छठवें गुणस्थानमे व्रतीमें सशय उत्पन्न करनेवाली जो मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति है उसे प्रमाजित-स सि ७/३३/३७०/8 मृदूपकरणेन यत्क्रियते प्रयोजन प्रमाद कहते है, यह बन्धका कारण है। तत्प्रमार्जितम् । कोमल उपकरणमे जो (जीवोको बचानेका ) प्रयो1. सा/आ./३०७/क. ११० क्षायभरगौरवादलसता प्रमादो यत.। जन साधा जाता है । वह प्रमार्जित (या प्रमार्जन) कहलाता है। - कषायके भारके भारी होनेको आलस्यका होना कहा है, उसे प्रमाद (रा. वा /७/३४/२/५५७/२४ ) (चा. सा./२२/५) । कहते है। प्रमिति-न्यास/प, १/११ यदर्थविज्ञानं सा प्रमिति ।-जाँचने1 सा./५/१० शुद्धयष्टके तथा धर्मे क्षान्त्यादिदशलक्षणे । योऽनुत्साह पर जो ज्ञात हो उसे प्रमिति कहते है। स सर्वज्ञैः प्रमाद परिकीर्तित ।१० -आठ शुद्धि और दश धर्मोमे जो उत्साह न रखना उसे सर्वज्ञदेवने प्रमाद कहा है। प्रमृशा-भरत क्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४। । सं./टो /३०/८८/४ अभ्यन्तरे निष्प्रमादशुद्वात्मानुभूतिचलनरूप., प्रमेय-स्या, में /१०/११०/२६ द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु प्रमेयम्, इति बहि विषये तु मूलोत्तरगुण मलजनश्चेति प्रमादः । - अन्तर गमें प्रमाद तु समीचीनं लक्षणं सर्वसंग्राहकत्वात् । -द्रव्य पर्याय रूप वस्तु ही रहित शुद्धात्मानुभवसे डिगाने रूप, और बाह्य विषयमे मूलगुणो तथा प्रमेय है यही प्रमेयका लक्षण सर्व सग्राहक होनेसे समीचीन है। उत्तरगुणोमें मैल उत्पन्न करने वाला प्रमाद है। न्या. सू./वृ. १/११ योऽर्थ. प्रमीयते तत्प्रमेयं । - जो वस्तु जॉची जावे २. अप्रमादका लक्षण उसे प्रमेय कहते है। घ.१४/५,६,६२/६/११ पंच महब्बयाणि पंच समदीयो तिण्णि गुत्तीओ प्रमेयकमलमातण्ड-आ० माणिक्यनन्दि ( ई०६२५-१०२३) णिस्सेसक्सायाभावो च अप्पमादो णाम। - पाँच महाव्रत, पाँच कृत परीक्षामुखपर आ० प्रभाचन्द (ई०६५०-१०२०) द्वारा रचित समिति, तीन गुप्ति और समस्त कषायों के अभावका नाम अप्रमाद है। विस्तृत टोका। यह न्याय विषयक ग्रन्थ है। (जै ।।३८८)। ३. प्रमादके भेद प्रमेयत्व गुण-आ. १./६ प्रमेयस्य भाव. प्रमेयत्वम् । प्रमाणेन स्वपरस्वरूप परिच्छेद्य प्रमेयम् । -प्रमेयके भावको प्रमेयत्व कहते पं.सं./प्रा /१/१५ विकहा तहा कसाया इंदियणिदा तहेव पणओ य । है। प्रमाणके द्वारा जो जानने योग्य स्व पर स्वरूप वह प्रमेय है। चदु चदु पण एगेग होति पमादा हु पण्णरसा ।१३ -- चार विकथा, प्रमेयरत्न कोश-आ० चन्द्रप्रभ सुरि ( ई० १९०२) द्वारा विरचार कषाय, पाँच इन्द्रिय, एक निद्रा, और एक प्रणय ये पन्द्रह प्रमाद होते है ।१५। (ध. १/१,१,१४/गा. ११४/१७८) (गो. जी /म् /३४/ चित न्यायविषयक ग्रन्थ । ६४)(पं.सं./स./१/३३) । प्रमेय रत्नाकर-40 आशाधर ( ई०११७३-१२४३) द्वारा रचित रा. वा./-/१/३०/५६४/२६ प्रमादोऽनेकविध ।३०। भावकायविनयेर्या न्याय विषयक संस्कृत भाषा बद्ध ग्रन्थ । पथभक्ष्यशयनासनप्रतिष्ठापनवाक्यशुद्धिलक्षणाष्ट विधसयम- उत्तम - क्षमामार्दवार्जबशौचसत्यस यमतपस्त्यागाकिचन्यब्रह्मचर्यादिविष - प्रमाद--स. सि./७/११/३४६/७ बदनप्रसादादिभिरभिव्यज्यमानासानुत्साहभेदादनेकविधं प्रमादोऽवसेय । -भाव, काय, विनय, न्तर्भावितराग' प्रमोद। -मुखकी प्रसन्नता-आदिके द्वारा भीतर ईपिथ, भक्ष्य, शयन, आसन, प्रतिष्ठापन और वाक्यशुद्धि इन भक्ति और अनुरागका व्यक्त होना प्रमोद है। (रा.वा./७/११/२/आठ शुद्धियो तथा उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जब, शौच, सत्य, सयम, ५३०/१६)। तप, त्याग, आकिचन्य और ब्रह्मचर्य इन धर्मोमे अनुत्साह या अना भ आ/वि./१६६६/१५१६/१५ मुदिता नाम यतिगुणचिन्ता यतयो हि दर भावके भेदसे प्रमाद अनेक प्रकारका है । (स सि /८/९/३७६/३)। बिनीता, विरागा, विभया, विमाना, विरोषा, विलोभा इत्यादिका । भ. आ./वि १६१२/८१२/४ प्रमाद पञ्चविधः। विकथा , कषाया', = यतियों के, गुणोका विचार करके उनके गुणो में हर्ष मानना यह इन्द्रियविषयासत्तता, निद्रा, प्रणयश्चेति । अथवा प्रमादो नाम प्रमोद भावनाका लक्षण है। यतियोमें नम्रता, वैराग्य, निर्भयता, संक्लिष्टहस्तकर्म, कुशीलानुवृत्ति, बाह्यशास्त्रशिक्षण, काव्यकरण, अभिमान रहितपना, निदोर्षता और निर्लोभपना ये गुण रहते है। समितिष्वनुपयुक्तता। -प्रमादके पाँच प्रकार है-विकथा, कषाय, इन्द्रियोके विषयोमे आसक्ति, निद्रा और स्नेह, अथवा सबिलष्ट हस्त (ज्ञा०/२७/११-१२) कर्म, कुशीलानुवृत्ति, बाहाशास्त्र, काव्यकरण और समितिमें उप- प्रयोग-ध १४/४, २, ८१/२८६/६ पओएण जोगपच्चओ परूविदो । योग न देना ऐसे भी प्रमादके पाँच प्रकार है। मन, वचन एवं काय रूप योगोको प्रयोग शब्दसे ग्रहण किया गया है। * अन्य सम्बन्धित विषय प्रयोग कर्म-दे० कर्म । १. प्रमादके ३७५०० भेद तथा इनकी अक्षसंचार विधि । प्रयोग क्रिया-दे० क्रिया/३/२। --दे० गणित/II/३। प्रयोग बन्ध-दे० बध/१ । २. प्रमाद कर्मबन्ध प्रत्ययके रूपमें । -~-दै० बन्ध/१॥ ३. प्रमादका कषायमें अन्तर्भाव । --दे० प्रत्यय/१। प्रयोजन-न्या सू./म् /टी/१/१/२४/३० यमर्थ मधिकृत्य प्रवर्तते ४. प्रमाद व अविरति प्रत्ययमें अन्तर । -दे० प्रत्यय/१। तत्प्रयोजनम् ।२४। समर्थ माप्तव्य हातव्यं बाध्यवसाय तदास्ति हानी५. साधुको प्रमाद वश लगनेवाले दोषोकी सीमा -दे० स यत/३ । मायमनुतिष्ठति प्रयोजन तद्वेदितव्यम्। - जिस अर्थ को पाने या छोडने योग्य निश्चय करके उसके पाने या छोडनेका उपाय करता प्रमाद अतिचार-दे० अतिचार१। है, उसे प्रयोजन कहते है। प्रमाद चरित-दे० अनर्थदण्ड । प्रयोज्यता--प्रयोजनके वश । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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