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________________ प्रदेश १३७ २. प्रदेशबन्ध सम्बन्धी नियम व प्ररूपणाएँ स्वामित्व व गुणस्थान स्वामित्व व गुणस्थान प्रकृतिका नाम नं. प्रकृतिका नाम उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट जघन्य सल/च - inar . अविरत अप्रमत्त सू ल./च अनादेय अयश-कीति तीर्थ कर गोत्रउच्च नीच अन्तरायपॉचो कार्मण अंगोपांगऔदारिक वैक्रियक आहारक निर्माण बन्धन संघात सस्थानसमचतुरन शेष गैंचो संहननवज्र वृषभ नाराच शेष पाँचो १०-१३, स्पर्श, रस, गन्ध वर्ण आनुपूर्वीनरक तिर्यग व मनुष्य देव ७. एक योग निमित्तक प्रदेश बंधमें अल्पबहुत्व क्यों असंज्ञी . अविरत सम्य० ल/च . . . ध १०/४,२,४,२१३/१११/३ जदि जोगादो पदेसबधो होदि तो सब्वकम्माणं पदेसपिंडस्स समाणतं पावदि, एगकारणत्तादो। ण च एवं, पूविल्लप्पाबहुएण सह विरोहादो त्ति। एवं पच्चवद्विदसिस्सस्थमुत्तरसुत्तावयवो आगदो 'णवरि पडिविसेसेण विसेसाहियाणि' त्ति। पयडी णाम सहाओ, तस्स विसेसो भेदो, तेण पयडिविसेसेण कम्माणं पदेसमधहाणाणि समाणकारणत्ते बि पदेसेहि विसेसाहियाणि । - प्रश्न-यदि योगसे प्रदेश बन्ध होता है तो सब कर्मोके प्रदेश समूहके समानता प्राप्त होती है, क्योकि उन सबके प्रदेशबन्धका एक ही कारण है । उत्तर-परन्तु ऐसा है नहीं, क्योकि, वैसा होनेपर पूर्वोक्त अल्पबहुत्वके साथ विरोध आता है। इस प्रत्यवस्था युक्त शिष्यके लिए उक्त सूत्रके 'णवरि पडिविसेसेण विसैसाहियाणि' इस उत्तर अवयव का अवतार हुआ है । प्रकृतिका अर्थ स्वभाव है, उसके विशेषसे अभिप्राय भेदका है। उस प्रकृति विशेषसे कर्मो के प्रदेश बन्धस्थान एक कारणके होनेपर भी प्रदेशोसे विशेष अधिक है। . . ८. सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृतिकी अन्तिम फालिमें प्रदेशों सम्बन्धी दो मत अगुरुलघु उपघात परघात आतप उद्योत उच्छ्वास विहायोगति--- प्रशस्त अप्रशस्त प्रत्येक त्रस सुभग सुस्वर शुभ सुक्ष्म पर्याप्त स्थिर आदेय यश कीर्ति साधारण स्थावर दुर्भग दु.स्वर অহ্ম बादर अपर्याप्त अस्थिर .: + + amme + + + + + क पा ४/३.२२/६६३६/३३४/११ जइवसहाहरिएण उवलद्धा वे उवएसा। सम्मत्तचरिमफालीदो सम्मामिच्छत्तचरिमफाली असखे० गुणहीणा 'त्ति एगो उवएसो । अवरेगो सम्मामिच्छत्तचारिमफाली तत्तो विसेसाहिया त्ति । एत्थ एदेसि दोण्ह पि उवएसाण णिच्छयं काउमसमत्येण जवसहाइरिएण एगो एत्थ विलिहिदो अवरेगो डिदिसंकमे । तेणेद वे वि उबदेसा थप्प कादुण वत्त व्वा त्ति । -यतिवृषभाचार्यको दो उपदेश प्राप्त हुए। सम्यक्त्वकी अन्तिम फालिसे सम्यगमिध्यात्यकी अन्तिम फालि असंख्यातगुणी हीन है यह पहला उपदेश है । तथा सम्यग्मिथ्यात्वको अन्तिम फालि उससे (सभ्यक्त्वकी अन्तिम फालिसे) विशेष अधिक है यह दूसरा उपदेश है। इन दोनो हो उपदेशोका निश्चय करनेमे असमर्थ यतिवृषभाचार्यने एक उपदेश यहाँ लिखा और एक उपदेश स्थिति सक्रममें लिखा, अत' इन दोनो हो उपदेशोको स्थगित करके उपदेश करना चाहिए। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० ३-१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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