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________________ प्रत्यक्ष बाधित पक्षाभास १२४ प्रत्यभिज्ञान होनेमे इन्द्रियोके अभावमे भी ज्ञानका अस्तित्व हो सकता है। एक कार्य सर्वत्र एक ही कारणसे उत्पन्न नही होता। इन्द्रियाँ क्षीणावरण जीवके भिन्न जातीय ज्ञानकी उत्पत्तिमे सहकारी कारण हो, ऐसा नियम नहीं है, क्योकि ऐसा माननेपर अतिप्रसंग दोष आ जायेगा, या अन्यथा मोक्षके अभावका प्रसग आ जायेगा। इस कारण अनिन्द्रिय जीवी में करण, कम और व्यवधानसे अतीत ज्ञान होता है. ऐसा ग्रहण करना चाहिए। यह ज्ञान निष्कारण भी नही है, क्योकि आत्मा और पदार्थ के सन्निधान अर्थात सामीप्यसे वह उत्पन्न होता है। ध,६/४,१,४५/१४३/३ अतीन्द्रियाणामवधि-मन पर्ययकेबलाना कथं प्रत्यक्षता। नैष दोष', अक्ष आत्मा, अक्षमई प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षमवधि-मन.पर्ययकेवलानीति तेषा प्रत्यक्षत्वसिद्धः =प्रश्नइन्द्रियोकी अपेक्षासे रहित अवधि, मन पर्यय और केवलज्ञानके प्रत्यक्षता कैसे सम्भव है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, अन शब्दका अर्थ आत्मा है, अतएव अक्ष अर्थात् आत्माकी अपेक्षा कर जो प्रवृत्त होता है वह प्रत्यक्ष है। इस निरुक्तिके अनुसार अवधि, मन - पर्यय, और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है। अतएव उनके प्रत्यक्षता सिद्ध है। (न्या. दी./२/६१८-१६/३८), (न्या दो. की टिप्पणीमें उद्धत न्या. कु./पृ. २६: न्या. नि./पृ. ११)। प्र. सा./त, प्र./१६/ उत्थानिका-कथमिन्द्रियै विना ज्ञानानन्दाविति। अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोगसामर्थ्याव प्रक्षीणघातिकर्मा, स्वपरप्रकाशकत्वलक्षणं ज्ञानमनाकुलत्वलक्षण सौख्य च भूत्वा परिणमते। एवमात्मनो ज्ञानानन्दी स्वभाव एव । स्वभावस्य तु परानपे त्वादिन्द्रियविनाप्यात्मनो ज्ञानामन्दी सभवत । -प्रश्न-आत्माके इन्द्रियोके विना ज्ञान और आनन्द कैसे होता है। उत्तर-शुद्धोपयोगकी सामर्थ्य से जिसके घातीकर्मयको प्राप्त हुए है, . स्वयमेव, स्वपर प्रकाशकता लक्षण ज्ञान और अनाकुलता लक्षण सुख होकर परिणमित होता है। इस प्रकार आत्माका शान और आनन्द स्वभाव ही है। और स्वभाव परसे अनपेक्ष है, इसलिए इन्द्रियोके बिना भी आत्माके ज्ञान आनन्द होता है। न्या. दी./२/१२२,२८/४२-२०/८ तत्पुनरतीन्द्रियमिति कथम् । इत्थम् यदि तज्ज्ञानमैन्द्रियिकं स्यात् अशेषविषयं न स्यात् इन्द्रियाणा स्वयोग्यविषय एव ज्ञानजनकत्वशक्ते सूक्ष्मादीना च तदयोग्यत्वादिति । तस्मात्सिद्ध तदशेषविषय ज्ञानमनै न्द्रियकमेवेति ।२२। तदेवमतीन्द्रियं केवलज्ञानमहंत एवेति सिद्धम् । तद्वचनप्रामाण्याच्चा. वधिमन'पर्य योरतोन्द्रिययो' सिद्धिरित्यतीन्द्रियप्रत्यक्षमनवद्यम् । = प्रश्न-(सूक्ष्म पदार्थोंका प्रत्यक्ष ज्ञान ) अतीन्द्रिय है यह कैसे। उत्तर-इस प्रकार यह ज्ञान इन्द्रियजन्य हा तो सम्पूर्ण पदार्थोको जाननेवाला नही हो सकता है, क्योकि इन्द्रियाँ अपने योग्य विषयमें हो ज्ञानको उत्पन्न कर सकती है। और सूक्ष्मादि पदार्थ इन्द्रियोके योग्य विषय नहीं है। अत वह सम्पूर्ण पदार्थ विषयक ज्ञान अनै न्द्रि यक ही है ।२२१ इस प्रकार अतीन्द्रिय केवलज्ञान अरहन्तके ही है, यह सिद्ध हो गया। और उनके वचनोको प्रमाण होनेसे उनके द्वारा प्रतिपादित अतीन्द्रिय अवधि और मन पर्यय ज्ञान भी सिद्ध हो गये। इस तरह अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है उसके मानने में कोई दोष या बाधा नही है। प्रत्यक्ष बाधित पक्षाभास-दे बाधित । प्रत्यक्ष बाधित हेत्वाभास-दे० बाधित । प्रत्यनीक-गो. क जी. प्र८००/६७६/८ श्रुततद्धरादिषु अविनयवृत्ति प्रत्यनीक प्रतिकूलतेत्यर्थ । -श्रुत व श्रुतधारको मे अविनय रूप प्रवृत्ति का प्रतिकूल होना प्रत्यनीक कहलाता है । प्रत्यभिज्ञानस. सि 12/३१/३०२/३ तदेवेद मिति स्मरण प्रत्यभिज्ञानम् । तदकस्मान भवतीति योऽस्य हेतु स तद्भाव । भवनं भाव । तस्य भावस्तद्भाव' । येनात्मना प्रारदृष्ट वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते। वह यही है' इस प्रकारके स्मरणको प्रत्यभिज्ञान कहते है। वह अकस्मात् तो होता नहीं, इसलिए जो इसका कारण है वही तदभाव है। तात्पर्य यह है कि पहले जिस रूप वस्तुको देखा था, उसी रूप उसके पुन होनेसे 'बहो यह है' इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान होता है। (स्या, म /१८/२४५/१) (न्या. सू /मू. व. टी /३/२/२/ १८५)। प, मु./२/५ दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञान. ।। प्रत्यक्ष __ और स्मरणको सहायतासे जो जोड रूप ज्ञान है, वह प्रत्यभिज्ञान है। स्या. मं./२८/३२१/२५ अनुभवस्मृतिहेतुक तिर्य गूर्वतासामान्यादिगोचर संकलनात्मक ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् । यथा तज्जातीय एवार्य गोपिण्ड' गोसदृशो गवय. स एवाय जिनदत्त इत्यादि । -वर्तमानमें क्सिी वस्तु के अनुभव करनेपर और भूत काल में देखे हुए पदार्थ का स्मरण होनेपर तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य आदिको जानने वाले जोड रूप ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते है। जैसे---यह गोपिड उसी जातिका है, यह गवय गौके समान है, यह बही जिनदत्त है इत्यादि (न्या. दी/३/८/५६/२) । न्या. दी./३/१०/५७/३ केचिदाहु'-अनुभवस्मृतिव्यतिरिक्तं प्रत्यभिज्ञानं नास्तीति, तदसव, अनुभवस्य वर्तमानकालवति विवर्त्तमात्रप्रकाशकलम स्मृतेश्चातीतविवर्त्तद्योतकत्वमिति तावद्वस्तुगति । कथ नाम तयोरतीतवर्तमान.. | कोई कहता है कि अनुभव व स्मृतिसे अतिरिक्त प्रत्यभिज्ञान नामका कोई ज्ञान नही है। सो ठीक नहीं है क्योकि अनुभव केवल वर्तमान कालबर्ती होता है और स्मृति अतीत विवर्त द्योतक है, ऐसी वस्तुस्थिति है। ( परन्तु प्रत्यभिज्ञान दोनो का जोड रूप है। २. प्रत्यभिज्ञानके भेद न्या.वि/टो./२/५०/७६/२४प्रत्यभिज्ञा द्विधा मिथ्या तथ्या चेति द्विप्रकारा प्रत्यभिज्ञा दो प्रकारको होती है-१. सम्यक् व २. मिथ्या । प. मु./३/... प्रत्यभिज्ञान तदेबेद तत्सहशं तद्विलक्षण तातियोगीत्यादि । -१. यह वही है, २ यह उसके सदृश है, ३. यह उससे विलक्षण है. ४. यह उससे दूर है, ५. यह वृक्ष है इत्यादि अनेक प्रकारका प्रत्यभिज्ञान होता है। न्या. दी./३/६/६/६ तदिदमेकत्व सादृश्य तृतीये तु पुन वैसादृश्यम्- प्रत्यभिज्ञानम् । एवमन्येऽपि प्रत्यभिज्ञाभेदा यथाप्रतीति स्वयमुत्पेक्ष्या । -वस्तुओमें रहने वाली १. एक्ता २, सादृशता और ३ विसदृशता प्रत्यभिज्ञाके विषय है। इसी प्रकार और भी प्रत्यभिज्ञानके भेद अपने अनुभवसे स्वयं विचार लेना। ३. प्रत्यभिज्ञानके भेदोंके लक्षण न्या. वि./मू. व.टी./२/५०-५१/७६ प्रत्यभिज्ञा द्विधा [ काचित्सादृश्यविनिबन्धना ] 101 काचित् जल विषया न तच्चका दिगोचरा साहशस्य विशेषेण तन्मात्रातिशायिना रूपेण निबन्धनं व्यवस्थापन यस्या सा तथेति । सैव कस्मात्तथा इत्याह-प्रमाणपूर्विका नान्या [दृष्टिमान्द्यादिदोषत ] इति ॥५१॥ प्रमाण प्रत्यक्षादिपूर्व कारणं यस्या सा काचिदेव नान्या तच्चक्र विषया यत .. दृष्टेमरीचिकादर्शनस्य मान्द्य यथावस्थिततत्परिचित्ति प्रत्य पाटबम् आदिर्यस्य जलाभिलाषादे स एव दोषस्तत इति । -१. सम्यक् प्रत्यभिज्ञान प्रमाण पूर्वक होता है जैसे-जल में उठने वाले चक्रादि को न देख कर केवल जल मात्रमे, पूर्व गृहीत जलके साथ सादृश्यता देखनेसे 'यह जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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