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________________ प्रतिक्रमण ११८ ३. प्रतिक्रमण निर्देश ३. प्रतिक्रमण निर्देश १. प्रतिक्रमण व सामायिकमें अन्तर भ, आ/वि /११६/२७६/८ सामायिकस्य प्रतिक्रमणस्य च को भेद । सायद्ययोगनिवृत्ति. सामायिक । प्रतिक्रमणमपि अशुभमनोवाकायनिवृत्तिरेव तत्कथं षडावश्यकव्यवस्था । अत्रोच्यते-सव्व सावज्जजोगं पच्चत्वामाति वचनाद्विसादिभेदमनुगदाय सामान्येन सर्वसावद्ययोगनिवृत्ति' सामायिक । हिसादिभेदेन सावद्ययोगविकल्प कृत्वा ततो निवृत्ति प्रतिक्रमण । इद त्वन्याय्य प्रतिविधानं । योगशब्देन वीर्यपरिणाम उच्यते। सच क्षायोपश मिको भावस्तती मिवृत्तिरशुभकर्मादाननिमित्तयोगरूपेण अपरिणतिरात्मन' सामायिकं । मिथ्यात्वामयमकषायाश्च दर्शनचारित्रमोहोदयजा औदयिका । । तेभ्यो बिरतियावृत्ति प्रतिक्रमण । -प्रश्न -सामायिक और प्रतिक्रमणमे क्या भेद है। सावध मन वचन कायकी प्रवृत्तियोसे विरक्त होना यह सामायिकका लक्षण है। और अशुभ मनोबाकायकी निवृत्ति होना यह प्रतिक्रमण है। अर्थात् प्रतिक्रमण और सामायिक इनमें कुछ भी भेद नहीं है। इसलिए छ आवश्यक क्रियाओकी व्यवस्था कैसे होगी। उत्तर--'सर्वसावध योगोका मै त्याग करता हूँ' ऐसा बचन अर्थात प्रतिज्ञा सामायिकमे की जाती है । हिसादिकोके भेद पृथक्न ग्रहण कर सामान्यसे सर्व पापोका त्याग करन्ग सामायिक है। और हिसादि भेदसे सावध योगके विकल्प करके उससे विरक्त होना प्रतिक्रमण है। "इस रीतिसे ऊपरके प्रश्नका कोई विद्वान उत्तर देते है परन्तु यह उनका उत्तर अयोग्य है। योग शब्द. से वीर्य परिणाम ऐसा अर्थ होता है । वह वीर्य परिणाम वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है, इसलिए वह क्षायोपशमिक भाव है। ऐसे योगसे निवृत्त होना यह सामायिक है। मिथ्यात्व, असंयम और कषाय ये दर्शन व चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे आत्मामें उत्पन्न होते है । .. ऐसे परिणामोसे विरक्ति होनायह प्रतिक्रमण कहा गया है। २. प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यानमें अन्तर क. पा. १/१,१/११/१ पञ्चक्रवाणपडिक्कमणाण को भेओ। उच्चदे, सर्गगट्ठियदोसाणं दब-खेत्त-काल-भावविसयाणं परिचाओ पञ्चखाणं णाम । पच्चक्रवाणादो अपञ्चक्रवाणं गतूण पुणोपच्चक्रवाणस्सागमण पडिकमणं । प्रश्न-प्रत्याख्यान और प्रतिक्रमण में क्या भेद है। उत्तर-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाबके निमित्तसे अपने शरीरमे लगे हुए दोषोका त्याग करना प्रत्याख्यान है। तथा प्रत्यारख्यानसे अप्रत्याख्यानको प्राप्त होकर पुन: प्रत्याख्यानको प्राप्त होना प्रतिक्रमण है। ३. प्रतिक्रमणके भेदोंका परस्परमें अन्तर्भाव क पा. १/१,१/१८८/११३/६ सव्वायिचारिय-तिविहाहारचायियपटिक्कम णाणि उत्तमट्ठाणपडिकमणम्मि णिवदंति । अठ्ठावीसमूलगुणाइचारविसयसव्वपडिकमणाणि इरियावयपडिक्कमम्मि णिवदंति, अवगयअइचारविसयत्तादो। -सर्वातिचारिक और त्रिविधाहार त्यागिक नामके प्रतिक्रमण उत्तम स्थान प्रतिक्रमणमे अन्तर्भूत होते है। अट्ठाईस मूलगुणोके अतिचारविषयक समस्त प्रतिक्रमण ईर्यापथ प्रतिक्रमणमे अन्तर्भूत होते है, क्योकि प्रतिक्रमण अवगत अतिचारोको विषय करता है। * निश्चय व्यवहार प्रतिक्रमणकी मुख्यता गौणता -दे० चारित्र । प्रतिज्ञांतर-न्या.स/मय.टी//३/३/३१० प्रतिज्ञातार्थ प्रतिषेधे धर्मविकल्पात्तदर्थ निर्देश. प्रतिज्ञान्तरम् ।३। प्रतिज्ञातार्थोऽनित्य' शब्द ऐन्द्रियकत्वाइ घटवदित्युक्त योऽस्य प्रतिषेध प्रतिदृष्टान्तेन हेतु व्यभिचार. सामान्य मैन्द्रियक नित्यमिति तस्मिश्च प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्म विकल्पादिति दृष्टान्तप्रतिदृष्टान्तयो साधर्म्ययोगे धर्मभेदात्सामान्यमै न्द्रियक सर्वगतमै न्द्रियकस्त्वसर्वगतो घट इति धर्मविकल्पात्तदर्थ निर्देश इति साध्य सिद्धयर्थ कथं यथा घटोऽसर्वगत एवं शब्दोऽप्यसर्वगतो घटव देवानित्य इति तत्रानित्य' शब्द इति पूर्वा प्रतिज्ञा असर्वगत इति द्वितीया प्रतिज्ञा प्रतिज्ञान्तर तत्कथं निग्रहस्थानमिति न प्रतिज्ञाया' साधनं प्रतिज्ञान्तरं कितु हेतुदृष्टान्तौ साधनं प्रतिज्ञाया तदेतदसाधनोपादानमनर्थकमिति। अनार्थक्यान्निग्रहरथानमिति ।३। -वादी द्वारा प्रतिज्ञात हो चुके अर्थ का प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध करनेपर वादी उस दूषणका उद्धार करनेकी इच्छासे धर्मका यानी धर्मान्तरका विशिष्ट कल्प करके उस प्रतिज्ञात अर्थका अन्य विशेषणसे विशिष्टपने करके कथन कर देता है, यह प्रतिज्ञान्तर है।३। जैसे-शब्द अनित्य है ऐन्द्रियिक होनेसे घटके समान, इस प्रकार वादीके कहनेपर प्रतिवादी द्वारा अनित्यपनेका निषेध किया गया। ऐसी दशामें वादी कहता है कि जिस प्रकार घट असर्वगत है, उसी प्रकार शब्द भी अध्यापक हो जाओ और उस ऐन्द्रियक सामान्यके समान यह शब्द भी नित्य हो जाओ। इस प्रकार धर्मकी विकल्पना करनेसे ऐन्द्रियिकत्व हेतुका सामान्य नामको धारनेवाली जाति करके व्यभिचार हो जानेपर भी वादी द्वारा अपनी पूर्वकी प्रतिज्ञाकी प्रसिद्धिके लिए शब्दके सर्वव्यापकपना विकल्प दिखलाया गया कि तब तो शब्द असर्वगत हो जाओ। इस प्रकार वादीकी दूसरी प्रतिज्ञा तो उस अपने प्रकृत पक्षको साधनेमें समर्थ नहीं है। इस प्रकार वादीका निग्रह होना माना जाता है। किन्तु यह प्रशस्त मार्ग नही है। (श्लो वा.४/न्या १३०/३५४/१६ में इसपर चर्चा की गयी है)। प्रतिज्ञा-न्या दी./३/३१/७६/४ तत्र धर्मधर्मसमुदायरूपस्य पक्षस्य वचनं प्रतिज्ञा। यथा-पर्वतोऽयमग्निमान् इति । = धर्म और धर्मीके समुदायरूप पक्षके कहनेको प्रतिज्ञा कहते है। जैसे—यह पर्वत अग्निवाला है। न्या. सू/टी /१/१/३६/३८/१० साध्यस्य धर्मस्य धर्मिणा संबन्धोपादान प्रतिज्ञार्थ । अनित्य शब्द इति प्रतिज्ञा। =धर्माके द्वारा साध्य धर्मका सिद्ध करना प्रतिज्ञाका अर्थ है । जैसे-किसीने कहा कि शब्द अनिवार्य है। प्रतिज्ञाविराध-न्या. सू./म. व टी/५/२/४/३११ प्रतिज्ञाहेत्वोविरोध. प्रतिज्ञाविरोध ४ गुणव्यतिरिक्तद्रव्यमिति प्रतिक्षा। रूपादितोऽर्थान्तरस्यानुपलब्धेरिति हेतुः सोऽय प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोध कथं यदि गुणव्यतिरिक्तं द्रव्य रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धि!पपद्यते। रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धि गुणव्यतिरिक्त द्रव्यमिति नोपपद्यते गुणव्यतिरिक्त च द्रव्यं रूपादिभ्यश्चार्थान्तरस्यानुपलब्धिरिति विरुध्यते ब्याहन्यते न संभवतीति । -- प्रतिज्ञावाक्य और हेतुवाक्यका विरोध हो जाना प्रतिज्ञाविरोध है ।४। द्रव्य, गुणसे भिन्न है यह प्रतिज्ञा हुई और रूपादिकोसे अर्थान्तरकी अनुपलब्धि होनेसे, यह हेतु है। ये परस्पर विरोधी है क्योकि जो द्रव्य गुणसे भिन्न है, तो रूपादिकोसे भिन्न अर्थकी अनुपलब्धि इस प्रकार कहना ठीक नही होता है। और जो रूप आदिकोसे भिन्न अर्थ की अनुपलब्धि हो तो 'गुणसे भिन्न द्रव्य' ऐसा कहना नही बनता है। इसको प्रतिज्ञाविरोध नामक निग्रहस्थान कहते है। (श्लो वा. ४/न्या. १४२/३५६/२२ मे इसपर चर्चा)। प्रतिज्ञा संन्यास-(श्लो बा.४/मू व टी/१/२/५/३११ पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञातापिनयन प्रतिज्ञासन्यास.।। अनित्य शब्द ऐन्द्रियक्त्वादित्युक्ते परो बयारसामान्यमै न्द्रियक न चामित्यमेव शब्दोऽप्यन्द्रियको न चानित्य इति । एवं प्रतिषिद्ध पक्षे यदि व याव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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