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________________ काल आयु कुल तीन दिन की शेष रहती है। तब वे चारों ही संन्यास मरण पूर्वक कार्तिक कृष्ण अमावस्या को यह देह छोड़ कर सौधर्म स्वर्ग में देव होते हैं । १५२० -१५३३। अन्त- उस दिन क्रोधको प्राप्त हुआ असुर देव कफीको मारता है और सूर्यास्तसमय अग्नि विनष्ट हो जाती है। । १९३३ | इस प्रकार धर्मद्रोही २१ कल्की एक सागर आयुसे युक्त होकर वर्मा नरकने जाते हैं । १५३४-०५१५ (म.पु./०६/ ३६० - ४३५ ) । ६- ति प /४/१५३५-१५४४ दुषमादुषमा - २१वें कल्की के पश्चात् तीन वर्ष, आठ मास और एक पलके बीत जानेपर महाविषम वह अतिदुपना नामक छठा काल प्रविष्ट होता है। १५२३० शरीर-इस कालके प्रवेशमें शरीरकी ऊँचाई तीन अथवा साढ़े तीन हाथ और उत्कृष्ट आयु २० वर्ष प्रमाण होती है । ९५३६॥ धूम वर्णके होते है। आहार- उस कालमें मनुष्यों का आहार मूल, फल और मत्स्यादिक होते हैं । १५३७| निवास- उस समय वस्त्र, वृक्ष और मकानादिक मनुष्योंको दिखाई नहीं देते । १५३०| इसलिए सब नंगे और भवनोंसे रहित होकर बनोंमें घूमते हैं। १३३८ शारीरिक दुःख मनुष्य प्रायः पशुओं जैसा आचरण करनेवाले, क्रूर, बहिरे, अन्धे, काने, गुगे, दारिद्र्य एवं क्रोधसे परिपूर्ण दीन, मन्दर जैसे रूपयाले कुमड़े मौने शरीरवाले, नाना प्रकार की व्याधि वेदनासे विकल, अतिकषाय युक्त, स्वभावसे पापिष्ठ, स्वजन आदिसे विहीन, दुर्गन्धयुक्त शरीर एवं केशोंसे संयुक्त, तथा लीख आदि आच्यन्त्र होते हैं । ९३३८- ९२४९० आगमन निर्गमन - इस कालमें नरक और तियंचगतिसे आये हु जीव ही यहाँ जन्म लेते हैं, तथा यहाँ से मरकर घोर नरक व तियंचगतिमें जन्म लेते हैं । १५४२ । हानि - दिन प्रतिदिन उन जीवोंकी ऊंचाई, आयु और वीर्य हीन होते जाते हैं । १५४३० प्रलयउनचास दिन कम इक्कीस हजार वर्षोंके बीत जानेपर जन्तुओंको भयदायक घोर प्रलय काल प्रवृत्त होता है । ११५४४ | ( प्रलयका स्वरूप दे० प्रलय । (म. पू. /०६/४३८-४५०) (त्रि सा/२०६४) षट् कालों में अवगाहना, आहारप्रमाण, अन्तराल, संस्थान व हड्डियों आदिको वृद्धिहानिका प्रमाण दे० काल/२/११ ܕ • स.सि./३/२०/२२३/३ अर्धसंज्ञ ते ६. उत्सर्पिणी कालका लक्षण व काल प्रमाण अनुभवादिभिरुत्सर्पपशीला उत्सर्पिणी । ... अवसर्पिण्या: परिमाणं दशसागरोपमकोटीकोट्यः । उत्सर्पिण्या अपि तावत्य एव । ये दोनों (उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी) काल सार्थक नामवाते हैं जिसमें अनुभव आदिकी वृद्धि होती है वह उत्सर्पिणी काल है । (रा.वा./३/२७/५/१११/३० ) अवसर्पिणी कालका परिमाण दस कोड़ाफोड़ी सागर है और उत्सर्पिणीका भी इतना ही है। (स.सि./३/३०/२३४/१) (ध.१३/२.१. २१/३१/३०१ ) (रा.वा./३/३९/०/२०८/२१) ( ति प / ४ / ३१५ ) (ज.प./२/११५) = घ. १/४.१.४४/११/१ जन्य बलाव उरहाणं उत्सप्प उड़ती होदि सो कालो उस्सप्पिणी । जिस कालमें बल, आयु व उत्सेधका उत्सर्पण अविवृद्धि होती है यह उत्सर्पिणीका है (दि.१/४/३१४९/१५५०) (क. पा. १ / ६५६/०४/३) (म.पु. /३/२०) Jain Education International ७. उत्सर्पिणी कालके षट् भेदोंका विशेष स्वरूप 5 उत्सर्पिणी कालका प्रवेश क्रम दे० काल /४/१२ ति.प./४/१५६३ - १५६६ दुषमादुषमा- इस कालमें मनुष्य तथा तियंच नग्न रहकर पशुओं जैसा आचरण करते हुए क्षुधित होकर वनप्रदेशोंमें धतूरा आदि वृलोक फल मूल एवं पत्ते आदि स्थाते है १४६३ शरीरकी ऊँचाई एक हाथ प्रमाण होती है। १५६४० इसके आगे तेज, बल, बुद्धि आदि सब काल स्वभावसे उत्तरोत्तर बढते जाते हैं। fo ४. उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश | १५६६। इस प्रकार भरतक्षेत्र में २९००० वर्ष पश्चात अतिदुषमा काल पूर्ण होता है । १५६६ । (म.पु. /७६/४५४-४५१) ति.प./४/१५६७ - १५७५ दुषमा- इस कालमें मनुष्य- तिर्यंचों का आहार २०,००० वर्ष तक पहले के ही समान होता है । इसके प्रारम्भ में शरीरकी ऊँचाई ३ हाथ प्रमाण होती है । ९५६८ इसका एक हकार वर्षोंके रोग रहनेपर १४ कुलकरॉकी उत्पति होने लगती है ११५६६-१५७१| कुलकर इस कालके म्लेक्ष पुरुषोंको उपदेश देते हैं ११५७५ । (म.पु / ७६/४६०-४६६) (त्रि.सा./८७१) ति.प./४/१५०५-१३१६ षमासुमा इसके पश्चात दुष्पम-पमानात प्रवेश होता है। इसके प्रारम्भमें शरीर की ऊंचाई सात हाथ प्रमाण होती है । ९२०६। मनुष्य पाँच वर्ग वाले शरीरसे युक्त, मर्यादा, विनय एवं लज्जा सहित सन्तुष्ट और सम्पन्न होते हैं । १५७७| इस कालमें २४ तीर्थंकर होते हैं। उनके समय १२ चक्रवर्ती, नौ बलदेव, मौ नारायण, नौ प्रतिनारायण हुआ करते हैं।१६७८-१२१२० एस काल अन्तमें मनुष्यों के शरीरकी ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष होती है । १५६४-१५१६० म.पू./०६/४००-४८६) (त्रि.सा./८०२०) ति. प./४/१५६६ - १५६६ सुषमादुषमा- इसके पश्चात् सुषमदुष्षम नाम चतुर्थ काल प्रविष्ट होता है। उस समय मनुष्योंकी ऊंचाई पाँचौ धनुष प्रमाण होती है। उत्तरोत्तर आयु और ऊँचाई प्रत्येक कालके मल से बढती जाती है । १५६६ - १५६७ उस समय यह पृथिवी जघन्य भोगभूमि कही जाती है । १५६८ | उस समय वे सब मनुष्य एक को से होते हैं। १७१६ (म.पु. ०६/४६०-११) ति.प./४/१५६६-१६०१ सुषमा सुष्मादुषमा कालके पश्चात् पचपना नामक काल प्रविष्ट होता है । १५६६| उस कालके प्रारम्भ में मनुष्य तिचोंकी आयु व उत्सेध आदि सुषमादुषमा कालके असमय होता है, परन्तु काल स्वभावसे वे उत्तरोत्तर बढती जाती है | १६००। उस समय के अन्तके) नरनारी दो कोस कचे, पूर्ण चन्द्रमा सहा मुखवाले विनय एवं शीलसे सम्पन्न होते हैं । १६०११ ( म.पु. /७६/४१२) ति.प./४/१६०२-१६०५ सुषमासुषमा - तदनन्तर सुषमासुषमा नामक छठा काल प्रविष्ट होता है। उसके प्रवेशमें आयु आदि सुषमाकालके अन्तबद होती हैं । १६०२ ॥ परन्तु काल स्वभावके जलसे आयु आदिक भडती जाती है। उस समय यह पृथिवी उत्तम भोगभूमिके नामसे सुप्रसिद्ध है । ९६०३। उस कालके अन्तमें मनुष्योकी ऊंचाई तीन कोस होती है। ९६०४ वे बहुत परिवारकी विक्रिया करनेमें समर्थ ऐसी शक्तियोंसे संयुक्त होते हैं। (म.पु. / ७६/४६२) छह कालों में आयु, वर्ण, अवगाहनादिकी वृद्धि व हानिकी सारणी - दे० काल /४/१६) ८. छह कालका पृथक्-पृथक् स.सि./३/२७/२२३/७ तत्र सुषमसुषमा चतस्र' सागरोपमकोटी कोट्यः । तदादौ मनुष्या उत्तरकुरुमनुष्यतुल्याः । ततः क्रमेण हानौ सत्यां सुषमा भवति तिखः सागरोपमकोटोकोटयः तदादी मनुष्या हरिवर्षमनुष्यसमा ततः क्रमेण हानौ सत्यां सुषमदुष्पमा भवति द्वे सागरोपमकोटीकोट्टयौ । तदादी मनुष्या हैमवतकमनुष्यसमाः । ततः क्रमेण हानी सत्या दुष्षमसुषमा भवति एकसागरोपमकोटाकोटी द्विहिना तादी मनुष्या निवेहजनतुल्या भवन्ति । ततः क्रमेण हानौ सत्यां दुष्षमा भवति एकविंशतिवर्षसहस्राणि । ततः क्रमेण हानी सत्यामतिदुपमा भवति एकविंशतिवर्षसहस्राणि । एवमुत्सर्पग्यपि विपरीतक्रमा वेदितव्या इसमेसे सुषमसुषमा चार कोड़ाकोड़ी सागरका होता है। इसके प्रारम्भमैं मनुष्य उत्तरकुरुके मनुष्योंके समान होते है। फिर क्रमसे हानि होनेपर तीन कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण सुषमा काल प्राप्त होता है। इसके प्रारम्भ में । - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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