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________________ काल ८८ ४. उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश लिका आदिसे तीनों लोकों के प्राणियों की कर्म स्थिति, भवस्थिति, और कायस्थिति आदिका परिच्छेद होता है। इसीसे संख्येय असंख्येय और अनन्त आदिकी गिनती की जाती है। ध./४/३२०/६ इहत्येणेव कालेण तेसि ववहारादो। सि ववहारादा । यहाँके कालसे ही यहाक कालस ही देवलोकमे कालका व्यवहार होता है। ..काल प्रमाण स्थित कर देनेपर अनादि भी सादि बन जायेगाध.३/१,२,३/३०/५ अणाइस्स अदीदकालस्स कधं पमाणं ठविज्जदि । ण, अण्णहा तस्साभावपसंगादो। ण च अणादि त्ति जाणिदे सादितं पावेदि, विरोहा ।-प्रश्न-अतीतकाल अनादि है, इसलिए उसका प्रमाण कैसे स्थापित किया जा सकता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि यदि उसका प्रमाण नहीं माना जाये तो उसके अभावका प्रसंग आ जायेगा। परन्तु उसके अनादित्वका ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसे सादित्वकी प्राप्ति हो जायेगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। ६. जब सब द्रव्योंका परिणाम काल है तो मनुष्य क्षेत्रमें इसका व्यवहार क्यों ध./४/१,५,१३२१/१ जीव-पोग्गलपरिणामो कालो होदि, तो सब्वेसु जीवपोग्गलेसु संठिएण कालेण होदव्वं; तदो माणुसखेत्तेक्कसुज्जमंडलट्ठिदो कालो त्ति ण घडदे। ण एस दोसो, निखज्जत्तादो। कितु ण तहा लोगे समए वा संववहारो अत्थि; अणाइणिहणरूवेण सुज्जमंडल किरियापरिणामेसु चेव कालसंववहारो पयट्ठो। तम्हा एदस्सेव गहण कायव्वं । प्रश्न-यदि जीव और पुद्गलोका परिणाम हो काल है; तो सभी जीव और पुद्गलोंमें कालको संस्थित होना चाहिए। तब ऐसी दशामें 'मनुष्य क्षेत्रके एक सूर्य मण्डल में ही काल स्थित है' यह बात घटित नहीं होती। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि उक्त कथन निर्दोष है। किन्तु लोकमें या शास्त्रमें उस प्रकारसे संव्यवहार नहीं है, पर अनादिनिधन स्वरूपसे सूर्यमण्डलकी क्रिया-परिणामोंमे ही कालका संव्यवहार प्रवृत्त है। इसलिए इसका ही ग्रहण करना चाहिए । ९. निश्चय व व्यवहार कालमें अन्तररा. वा./१/८/२०/४३/२० मुख्यकालास्तित्वसंप्रत्ययार्थ पुन' कालग्रहणम् । द्विविधो हि कालो मुख्यो व्यावहारिकश्चेति । तत्र मुख्यो निश्चयकालः । पर्यायिपर्यायावधिपरिच्छेदो व्यावहारिकः । मुख्य कालके अस्तित्वकी सूचना देनेके लिए स्थितिसे पृथक कालका ग्रहण किया है। "व्यवहार काल पर्याय और पर्यायीकी अवधिका परिच्छेद करता है। ४. उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश १. कल्पकाल निर्देश सं. सि./३/२७/२२३/७ सोभयी कल्प इत्याख्यायते । = ये दोनों ( उत्सपिणी और अवसर्पिणी) मिल कर एक कल्पकाल कहे जाते है । (रा. वा./३/२७/५/१६९/३)। ति. प./४।३१६ दोणि वि मिलिदेकप्प छन्भेदा होंति तत्थ एकेक्क.... -इन दोनोंको मिलानेषर बोस कोडाकोड़ी सागरोपमप्रमाण एक कल्पकाल होता है । (ज० प०/२/११५ ) । २. कालके उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी दो भेदस, सि /३/२७/२२३/२ स च कालो द्विविधः-उत्सर्पिणी अवसर्पिणी चेति ।वह काल (व्यवहार काल) दो प्रकारका है-उत्सर्पिणी और अवसपिणी । (ति. ५/४/३१३) (रा. वा./३/२७/३/१६१/२६ ) (क. पा. १/१५६/७४/२) ७. भूत वर्तमान व भविष्यत कालका प्रमाण नि. सा./मू. व. टी./३१, ३२ तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु ॥३९॥ अतीतकालप्रपंचोऽयमुच्यते-अतीतसिद्धानां सिद्धपायप्रादुर्भावसमयात् पुरागतो ह्यावल्यादिव्यवहारकाल स कालस्यैषां संसारावस्थानां यानि संस्थानानि गतानि तैः सदृशत्वादनन्तः। अनागतकालोऽप्यनागतसिद्धानामनागतशरीराणि यानि ते सशत्याः (1) मुक्ते' सकाशादित्यर्थः टी०॥ जीवादु पुग्गलादोऽणं तगुणा चावि संपदा समयाः । अतीतकाल ( अतोत) संस्थानोंके और संख्यात आवलिके गुणाकार जितना है ॥३॥ अतीतकालका विस्तार कहा जाता है; अतीत सिद्धोंको सिद्धपर्यायके प्रादुर्भाव समयसे पूर्व बीता हुआ जो आवलि आदि व्यवहारकाल वह उन्हें संसार दशामे जितने संस्थान बीत गये हैं उनके जितना होनेसे अनन्त है। (अनागत सिद्धोंको मुक्ति होने तकका ) अनागत काल भी अनागत सिद्धोके जो मुक्ति पर्यन्त अनागत शरीर उनके बराबर है। अब, जीवसे तथा पुद्गलसे भी अनन्तगुने समय हैं। घ.४/१,५.१/३२१/५ केवचिरं कालो। अणादिओ अपज्जव सिदो । -प्रश्न--काल कितने समय तक रहता है। उत्तर-काल अनादि और अपर्यवसित है, अर्थात् कालका न आदि है न अन्त है। घ. ४/ सर्वदा अतोत काल सर्वजीव राशिके अनन्तवें भाग प्रमाण रहता है. अन्यथा सर्व जीवों के अभाव होनेका प्रसंग आता है। गो. जी./मू./५७८, ५७६ ववहारो पुम तिविहो तीदो वदृतगो भविस्सो दु । तोदो संखेज्जावलिहदसिद्धाणं पमाणो दु ।५७८। समयो हु वट्टाणो जीवादो सव्वपुग्गलादो वि । भावी अणतगुणिदो इदि ववहारो हवे कालो ।५७६। व्यवहार काल तीन प्रकार है-अतीत, अनागत और वर्तमान । तहाँ अतीतकाल सिद्ध राशिकौं संख्यात आवलीकरि गुण जो प्रमाण होइ तितना जानना ।५७८१ बर्तमानकाल एक समयमात्र जानना। बहुरि भावो जो अनागतकाल सो सर्व जीवराशि” वा सर्व पुद्गलराशि तें भी अनंतगुणा जानना। ऐसे व्यवहार काल तीन प्रकार कहा ।५७६॥ ३. दोनोंके सुषमादि छः छः भेद स. सि./३/२७/२२३/४ तत्रावसर्पिणी षड् विधा-सुषमसुषमा सुषमा सुषमदुप्षमा दुषमसुषमा दुष्षमा अतिदुष्षमा चेति । उत्सपिण्यपि अतिदुष्षमाद्या सुषमसुषमान्ता षड् विधैव भवति । अवसर्पिणीके छह भेद है-सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुष्षमा, दुष्षमसुषमा, दुष्षमा और अतिदुष्षमा। इसी प्रकार उत्सर्पिणी भी अतिदुष्षमा लेकर सुषमसुषमा तक छह प्रकारका है। (अर्थात दुष्षमदुष्षम, 'दुष्षमा, दुष्षमसुषमा, सुषमदुषमा, सुषमा. और अतिसुषमा । (रा.वा./३/ २७/५/१६१/३१) (ति. प./8/३१६) (ति प./४/१९५५-१५५६) (क. पा. १/७५६/७४/३) (ध.१/४,१,४४/११६/१०)। ४. सुषमा दुषमा आदि का लक्षण म पु/३/१९ समाकाल विभागः स्यात् सुदुसावह गह यो.। सुषमा दुषमेत्यमतोऽन्वर्थ त्वमेतयो ।१६। =समा कालके विभागको कहते हैं तथा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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