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________________ कार्मण ७६ २. कार्मण योग निर्देश कहिये आत्माके कर्म ग्रहण शक्ति धरै प्रदेशनिका चंचलपना सो कार्मणकाययोग है, सो विग्रहगति विर्षे एक, दो, अथवा तीन समय काल मात्र हो है, अर केबल समुद्धातविष प्रतरद्विक अर लोकप्तरण इन तीन समयनि विर्षे हो है, और समय विर्षे कार्मणयोग न हो है। २. कार्मण काययोगका स्वामित्व कार्मण और औदारिकादि भिन्न हैं। . कार्मण शरीरपर ही औदारिकादि शरीरोंके योग्य परमाणु जिन्हे विखसोपचय कहते है. आकर जमा होते है, इस दृष्टि से भी कार्मण और औदारिकादि भिन्न है। प्रश्न-निनिमित्त होनेमे कार्मण शरीर असद है ! उत्तर-ऐसा नहीं है। जिस प्रकार दीपक स्वपरप्रकाश है, उसी तरह कार्मणशरीर औदारिकादिका भी निमित्त है, और अपने उत्तर कार्मणका भी। फिर मिथ्यादर्शन आदि कार्मण शरीरके निमित्त हैं। ३. नोकर्मोंके ग्रहणके अमावमें भी इसे कायपना कैसे प्राप्त है ध.१/१,१,४/१३८/३ कार्मणशरीरस्थानां जीवानां पृथिव्यादिकम भिश्चितनोकर्मपुद्गलाभावादकायत्वं स्यादिति चेन्न, तच्चयनहेतुकर्मणस्तत्रापि सत्त्वतस्तव्यपदेशस्य न्याय्यत्वात् । = प्रश्नकार्मणकाययोगमे स्थित जीवके पृथिवी आदिके द्वारा संचित हुए नोकर्म पुद्गलका अभाव होनेसे अकायपना प्राप्त हो जायेगा ? उत्तर-ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि नोकम रूप पुद्गलोके संचयका कारण पृथिवी । आदि कर्म सहकृत औदारिकादि नामकर्मका सत्त्व कार्मणकाययोगरूप अवस्थामें भी पाया जाता है. इसलिए उस अवस्थामें भी कायपनेका व्यवहार बन जाता है। ४. अन्य सम्बन्धित विषय १. पाँचों शरीरों में सूक्ष्मता तथा उनका स्वामित्व- दे० शरीर/१ २. कार्मण शरीर मूत है -दे० मूर्त ५ ३. कामण शरीरका स्वामित्व, अनादि बन्धन बद्धत्व व निरुपभोगत्व -दे० ते जस/१ ४. कामण शरीरकी संघातन परिशातन कृति -दे० ध,६/०५५-४११ ५. कार्मण शरीर नामकर्मका बन्ध उदय सत्त्व -दे० वह वह नाम ष वं.१/१.१/सू० ६०,६४/२६८,३०७ कम्मइयकायजोगो बिग्गहगई समावण्णाणं केवलीणं वा समुग्घाद-गदाण ।६०। कम्मइयकायजोगो एइंदिय-प्पडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।६४ = विग्रहगतिको प्राप्त चारो गतियोके जीवोके तथा प्रतर और लोकपूरण समुद्धातको प्राप्त केवली जिनके कार्मणकाययोग होता है ।६०। कार्मण काययोग ऐकेन्द्रिय जीवोसे लेकर सयोगिकेवली तक होता है। (रा.वा./१/७/ १४/३६/२४) (त.सा./२/९७) विशेष दे० उपरला शीर्षक । त.सू./२/२५/ विग्रहगतौ कर्मयोगः २५॥ विग्रहगतिमें कमयोग (कार्मण योग) होता है। २५। ध.४/विशेषार्थ (१,३,२/३०/१७ आनुपूर्वी नामकर्मका उदय कार्मणकाय योगवाली विग्रहगतिमे होता है। ऋजुगतिमें तो कार्मण काययोग न होकर औदारिकमिश्र व वैक्रियकमिश्र काययोग ही होता है। ३. विग्रहगतिमें कार्मण ही योग क्यों गो.क जी.प्र /३१८/४५१/१३ ननु अनादिसंसारे विग्रहाविग्रहगत्योमिथ्यादृष्टयादिसयोगान्तगुणस्थानेषु कार्मणस्य निरन्तरोदये सति 'विग्रहगतौ कर्मयोग' इति सूत्रारम्भ. कथं 1 सिद्ध सत्यारभ्यमाणो विधिनियमायेति विग्रहगतौ कर्मयोग एव नान्यो योग' इत्यवाधरणार्थ । -प्रश्न-जो अनादि संसार विषै विग्रहगति अविग्रहगति विषै मिथ्यादृष्टि आदि सयोग पर्यन्त सर्व गुणस्थान विर्षे कार्माणका निरन्तर उदय है. 'विग्रहगतौ कर्मयोग ' ऐसे सूत्र विर्षे कार्माणयोग कैसे कहया । उत्तर-'सिद्ध सत्यारम्भो नियमाय' सिद्ध होते भी बहुरि आरम्भ सो नियमके अर्थि है तातें इहाँ ऐसा नियम है जो विग्रहगतिविर्षे कार्मण योग ही है और योग नाहीं। ४. कार्मण योग अपर्याप्तकों में ही क्यों २. कार्मण योग निर्देश १. कामण काययोगका लक्षण 4.सं./प्रा./१/RE कम्मेव य कम्मइयं कम्मभवं तेण जो दु संजोगो । कम्मइयकायजोगो एय-विय-तियगेसु-समएस 188) = कर्मों के समूहको अथवा कार्मण शरीर नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले कायको कार्मणकाय कहते हैं, और उसके द्वारा होनेवाले योगको कार्मणकाययोग कहते हैं। यह योग निग्रहगतिमें अथवा केवलिससुघातमें, एक दो अथवा तीन समय तक होता है । (ध'१/१,१,५७/१६६/ २६५) (गो.जी /मू./२४१) (पं.सं/सं./१/१७८) ध. १/१,१,५७/२६/२ तेन योगः कार्मशकाययोगः। केवलेन कर्मणा जनितवीर्येण सह योग इति यावत् । --उस ( कार्मण) शरीरके निमित्तसे जो योग होता है, उसे कामण काययोग कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि अन्य औदारिकादि शरीर वर्गणाओं के बिना केवल एक कर्म से उत्पन्न हुए वीर्यके निमित्तसे आत्मप्रदेश परिस्पन्द रूप जो प्रयत्न होता है उसे कार्मण काययोग कहते है। गो.जी.जी./२४१/५०४/१ कर्माकर्षशक्तिसंगतप्रदेशपरिस्पन्दरूपो योग' स' कार्मणकाययोग इत्युच्यते। कार्मणकाययोग. एकद्वित्रिसमयविशिष्टविग्रहगतिकालेषु केवलिसमुद्धातसंबन्धिप्रतरद्वयलोकपूरणे समयत्रये च प्रवर्तते शेषकाले नास्तीति विभाग' तुशब्देन सूच्यते। -तीहिं (कार्मण शरीर ) कार्मण स्कंधसहित वर्तमान जो सप्रयोगः ध.१११,१,६४/३३४/३ अथ स्याद्विग्रहगतौ कार्मणशरीराणां न पर्याप्तिस्तदा पर्याप्तीनां षण्णां निष्पतेरभावात् । न अपर्याप्तास्ते आरम्भारप्रभृति आ उपरमादन्तरालावस्थायामपर्याप्तिव्यपदेशात् । न चानारम्भकस्य स व्यपदेश. अतिप्रसङ्गात् । ततस्तृतीयमप्यवस्थान्तरं वक्तव्यमिति नैष दोषः तेषामपर्याप्तेष्वन्तर्भावात् । नातिप्रसङ्गोऽपि ।...ततोऽशेषसंसारिणामवस्थाद्वयमेव नापरमिति स्थितम् । = प्रश्न-विग्रहगतिमें कार्मण शरीर होता है, यह बात ठीक है। किन्तु वहाँपर कार्मण शरीरवालोके पर्याप्ति नहीं पायी जाती है, क्योंकि विग्रहगतिके काल में छह पर्याप्तियोकी निष्पत्ति नहीं होती है। उसी प्रकार विग्रहगतिमें वे अपर्याप्त भी नही हो सकते है; क्योंकि पर्याप्तियोके आरम्भसे लेकर समाप्ति पर्यन्त मध्यकी अवस्थामे अपर्याप्ति यह संज्ञा दी गयी है। परन्तु जिन्होने पर्याप्तियोका आरम्भ ही नहीं किया है ऐसे विग्रहगति सम्बन्धी एक दो और तीन समयवर्ती जीवों को अपर्याप्त संज्ञा नहीं प्राप्त हो सकती है, क्योंकि ऐसा मान लेनेपर अतिप्रसंग दोष आता है। इसलिए यहाँपर पर्याप्त और अपर्याप्तसे भिन्न कोई तीसरी अवस्था ही होनी चाहिए । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि ऐसे जीवोंका अपर्याप्तोंमें ही अन्तर्भाव किया गया है। और ऐसा मान लेनेपर अतिप्रसंग दोष भी नहीं आता है...अत: सम्पूर्ण प्राणियोकी दो अवस्थाएँ ही होती है। इनसे भिन्न कोई तीसरी अवस्था नहीं होती है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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