SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ III कारण (निमितकी गौणता मुख्यता ) आरमा अपने परिणामस्वरूप भावकर्मका ही कहा है किन्तु परिणामस्वरूप प्रव्यकर्मका नही |... इसी प्रकार) परमार्थत पुदगल अपने परिणामस्वरूप उस प्रव्यकर्मका ही पता है किन्तु आत्मा के परिणामस्वरूप भावकर्मका कर्ता नही है । १२२ । (स.सा./ मु. / १०३) कि ५. ज्ञानियोंका कर्म अकिंचित्कर है। स. सा / मू/ १६६ पुढीपिडसमाणा पुव्वणिबद्धा दु सरीरेण से मजा सम्ये वि शागिस्स ।१६। समस्त प्रत्यय मिट्टी के ढेलेके समान है और बे धे हुए है । (विशेष दे० विभाव /४/२ ) आ. अनु / १६२-१६३ निर्धनत्वं धनं येषां मृत्युरेव हि जीवित करोति विधिस्तेषां सतां ज्ञानैकचक्षुषाम् ॥ १६२॥ जीविताशा धनाशा च तेषां येषां विधिविधि कि करोति विधामा निराशा | १६-निर्धन ही जिनका धन है और मृत्यु हो जिनका जीवन है ( अर्थात् इनमें साम्यभाव रखते हैं) ऐसे साधुओको एक मात्र ज्ञानचक्षु खुल जानेपर यह दैव या कर्म क्या कर सकता है । १६२ | जिनको जीनेकी या धनकी आशा है उनके लिए ही 'देव' देव है, पर निराशा ही जिनकी आशा है ऐसे वीतरागियोको यह देव या कर्म क्या कर सकता है | १६३॥ ६. मोक्षमार्ग में आत्मपरिणामोंकी विवक्षा प्रधान है कमकी नहीं ६८ पञ्चया तस्स । कम्मउस ज्ञानी के पूर्व कार्मण शरीर के साथ रा. वा./१/२/१०-१/१०/३ ओपशमिकादिसम्यग्दर्शन मारमपरिणामवाद मोक्षकारकत्वेन वियते न च सम्यकर्मपर्याय पौगलिकरस्य परपर्यायत्वात् ॥१०॥ स्यादेतत्सम्यग्दर्शनोत्पाद आत्मनिमित्त: सम्यक्त्वपुद्गलनिमित्तश्च तस्मात्तस्यापि मोक्षकारणत्वमुपपद्यते इति; तन्न, कि कारणम्। उपकरणमात्रत्वात् । - औपशमिकादिसम्यग्दर्शन सीधे आत्मपरिणामस्वरूप होनेत मोक्षके कारणरूप से विवक्षित होते हैं, सम्यक्त्व नाम कर्मकी पर्याय नहीं क्योकि परद्रव्यकी पर्याय होनेके कारण वह तो पौद्गलिक है। प्रश्नसम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति जिस प्रकार आत्मपरिणामसे होती है, उसी प्रकार सम्यक्त्वनामा कर्मके निमित्त से भी होती है, अत उसको भी मोक्षकारणपना प्राप्त होता है। उत्तर नही, क्योंकि वह तो उपकरणमात्र है । Jain Education International ७. कर्मोंकी उपशम क्षय व उदय आदि अवस्थाएँ भी कथंचित् अयन साध्य हैं स.सि./२/३/१२/१० जनादिमिध्यादृष्टे व्यस्य कर्मोद गयः दितकालये सति कुतस्तदुपशमादिनिमितवादाच स्वामव... आदिशब्देन जातिस्मरणादि परिगृह्यते पश्नअनादि मिथ्यादृष्टि भव्यके कर्मोके उदयसे प्राप्त कलुषताके रहते हुए इनका उपशम कैसे होता है ? उत्तर - काललब्धि आदिके निमित्तसे इनका उपशम होता है । अब यहाँ काललब्धिको बताते है (दे० नियति २ ) । आदि शब्द से जातिस्मरण आदिका ग्रहण करना चाहिए (दे० सम्यग्दर्शन / IIT / २ ) । स.सि /१०/२/४६६/५ कर्माभावो द्विविध-यत्नसाध्योऽयत्नसाध्यश्चेति । तत्र चरमदेहस्य नारकतिर्यग्देवायुषामभावो न यत्नसाध्य' असत्वात् । मत्नसाध्य इस ऊर्ध्वमुच्यते असयतसम्यग्दृष्टचादिषु सप्तप्रकृतिक्षयः क्रियते । = कर्मका अभाव दो प्रकारका है-यत्नसाध्य और अननसाध्य इनमें से परमदेवानेके नरकादिचा और देवायुका अभाव यत्नसाध्य नहीं है, क्योंकि इसके उनका सव ४. निमितकी कथंचित् प्रधानता उपलब्ध नहीं होता । यत्नसाध्यका अभाव इनसे आगे कहते है असंयतष्टि आदि चार गुणस्थानो में सारा प्रकृतियोका क्षय करता है। आगे भी १०वे गुणस्थानमें यथायोग्य कमका क्षय करता है (दे० सत्त्व ) । पंध /उ/३७६,३२,२६ प्रयत्नमन्तरेणापि दृडमोहोपशमो भवेत् । अन्तर्मुहूर्तमात्रं च गुणश्रेण्यनतिक्रमात् ॥ ३७६ ॥ तस्मात्सिद्धोऽस्ति सिद्धान्तो मस्येतरस्य दर उदयोऽनुदयो वा स्यादनन्य गतिः स्वत ११२ असमुदयो वथानावे स्वतश्योपशमस्तथा उदय प्रथमो भूय स्यादर्वागपुनर्भवात् ॥ २६ ॥ - उक्त कारण सामग्रीके मिलते ही ( अर्थात् देव व कालादिलब्धि मिलते ही ) प्रयत्नके बिना भी गुणगी निर्जराके अनुसार केवल अन्तर्मुहूर्त कालमे ही दर्शन मोहनीयका उपशम हो जाता है । ३७६ | इसलिए यह सिद्धान्त सिद्ध होता है कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दोनों के उदय अथवा अनुदय ये दोनों ही अपने आप होते हैं, एक दूसरेके निमसे नहीं ||३२| जिस तरह अनादिकाल से स्वयं मोहनीयका उदय होता है उसी तरह उपशम भी काललब्धि के निमित्तसे स्वयं होता है। इस तरह मुक्ति होनेके पहले उदय और उपशम बार-बार होते रहते हैं । ४. निमित्तकी कथचित् प्रधानता १. निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध मी वस्तुभूत है - आप्त. मी / २४ अद्वैतं कान्तपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुध्यते । कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात् प्रजायते । २४| = अद्वैत एकान्तपक्ष होनेते ( अर्थात् जगत् एक मह्मके अतिरिक्त कोई नहीं है, ऐसा माननेसे ) कर्ता कर्म आदि कारक निकै बहुरि क्रियानिके भेद जो प्रत्यक्ष प्रमाण करि सिद्ध है सो विरोध हो है बहुरि सर्वथा यदि एक ही रूप होय तौ आप हो कर्ता आप ही कर्म होय । अर आप ही तै आपकी उत्पत्ति नाहीं होय । ( और भी दे० कारण / II / ३ /२), ( अष्टसहसी पृ० १४६.१५६ ) ( स्या. म. / १६/१६७/१७१ ) श्लो वा २/१/७/१२/२६६/९ राधे उपहारनयसनामय कार्यकारणभावो द्विष्ठ संबन्ध संयोगसमवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुनः कल्पनारोपित = व्यवहारनयका आश्रय लेनेपर संयोग समवाय सम्बन्धोके समान दोमें ठहरनेवाला कारणकार्य भाव सम्बन्ध भी प्रतीतियों से सिद्ध होनेके कारण वस्तुभूत ही है केवल कल्पना आरोपित ही नहीं है। २. कारणके बिना कार्य नहीं होता रा.वा./१०/२/९/६४०/२० मिध्यादर्शनादीनां पूर्वोक्तानां कर्मावहेतून निरोधे कारणाभावय कार्याभाव स्वयंभिनयकर्मादानाभावः । -- मिध्यादर्शन आदि पूर्वी आसन के हेतुओका निरोध हो जानेपर नूतन कर्मो का आना रुक जाता है' क्योंकि कारण के अभाव से कार्यका अभाव होता है । " ध. १/१.१.६२/२०६/१ अप्रमादीनां संवतानां किमित्याहारककाययोगो न भवेदिति चेन्न तत्र तदुत्थापने निमित्ताभावात् । = प्रश्नप्रमादरहित संयतोके आहारककाययोग क्यों नहीं होता है ? उत्तरक्योकि तहाँ उसे उत्पन्न करानेमें निमित्तकारणका ( असंयमकी बहुलताका) अभाव है । ध. १२/४,२, १३.१०/१८२२ च कारण बियाजमुपदि अपसंगादो कारण के बिना कहीं भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि वैसा होनेमे अतिप्रसंग दोष आता है। उत्कृष्ट समश से उत्कृष्ट प्रदेश बन्घ होनेका प्रकरण है ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy