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________________ कारण ( सामान्य निर्देश ) ४. कारण कार्य सम्बन्धी नियम पडि पुध पुध उप्पज्जमाणा कुंभोदंचणसरावादओ दीसंति तिचे। ण, एरथ वि कमभाविकोधादीहितो उपज्जमाणणाणावरणीयस्स दव्वादिभेदेण भेदुवलंभादो। णाणावरणीयसमाणतणेण तदेक्कं चे। ण, बहू हितो समुप्पज्जमाणघडाणं पि घडभावेण एयत्तवलं भादो। -प्रश्न-एक काये अनेक कारणोंसे कैसे उत्पन्न होता है। (अर्थात् अनेक प्रत्ययोंसे एक ज्ञानावरणीय ही वेदना कैसे उत्पन्न होती है)। उत्तर-नहीं, क्योंकि. एक कुम्भकारसे उत्पन्न किये जानेवाले घटकी उत्पत्ति अन्यसे भी देखी जाती है। प्रश्न-पुरुष भेदसे पृथक्-पृथक उत्पन्न होने वाले कुम्भ, उदंच, व शराव आदि भिन्न-भिन्न कार्य देखे जाते हैं ( अथवा पृथक्-पृथक् व्यक्तियोसे बनाये गये घड़े भी कुछ न कुछ भिन्न होते ही हैं।) ? उत्तर-तो यहाँ भी क्रमभावी क्रोधादिकोंसे उत्पन्न होने वाले ज्ञानावरणीयकर्मका द्रव्यादिकके भेदसे भेद पाया जाता है। प्रश्न-ज्ञानावरणीयत्वकी समानता होनेसे वह ( अनेक भेद रूप होकर भी) एक ही है। उत्तर-इसी प्रकार यहाँ भी बहुतोंके द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले घटोके भी घटत्व रूपसे अभेद पाया जाता है। व्यतिरेक कार्यके व्यवस्थित होते हैं, अर्थाद जो जिसका कारण होता है उसके साथ अन्वय व्यतिरेक अवश्य पाया जाता है। ध/पु.७/२, १, ७/१०/५ जस्स अण्ण-विदिरेगेहि णियमेण जस्सण्णयविदिरेगा उवलंभंति तं तस्स कज्जमियरं च कारणं । = जिसके अन्वय और व्यतिरेकके साथ नियमसे जिसका अन्यय और व्यतिरेक पाये जावें वह उसका कार्य और दूसरा कारण होता है। (ध./८/३, २०/५१/३)। ध./१२/४, २,८,१३/२८९/४ यद्यस्मिन् सत्येव भवति नासति तत्तस्य कारणमिदि न्यायाद-ज) जिसके होनेपर ही होता हैन होने पर ही यह उसका कारण होता है, ऐसा न्याय है । (ध./१४/५, ६, ६३/१२) ९. कारण अवश्य कार्यका उत्पादक हो ऐसा कोई नियम ७. कारण कार्य पूर्वोत्तर कालवी ही होते हैं ध./१२/४, २, ८, १३/२८६/८ नावश्यं कारणानि कार्यवन्ति भवन्ति, कुम्भमकुर्वत्यपि कुम्भकारे कुम्भकारव्यवहारोपलम्भाव। - कारण कार्यवाले अवश्य हों ऐसा सम्भव नहीं, क्योंकि, घटको न करनेवाले भी कुम्भकारके लिए 'कुम्भकार' शब्दका व्यवहार पाया जाता है। भ. आ./वि/१६४/४१०/१ न चावश्यं कारणानि कार्यवन्ति । धूमजनयतोऽप्यग्नेर्दर्शनात् काष्ठाद्यपेक्षस्य। -कारण अवश्य कार्यवान होते ही हैं, ऐसा नियम नहीं है, काष्ठादिकी अपेक्षा रखनेवाला अग्नि धूमको उत्पन्न करेगा ही, ऐसा नियम नहीं। न्या. दी./३/१५६/६६ ननु कार्य कारणानुमापकमस्तु कारणाभावे कार्यस्यानुपपसेः। कारणं तु कार्यभावेऽपि संभवति, अथा धूमाभावेऽपि वह्निः सुप्रतीतः । अतएव वह्निर्न धूमं गमयतीति चेत्, तन्न; उन्मीलितशक्तिकस्य कारणस्म कार्याव्यभिचारित्वेन कार्य प्रति हेतुत्वाविरोधात। = प्रश्न- कारण तो कार्यका ज्ञापक (जनानेवाला) हो सकता है, क्योंकि कारणके बिना कार्य नहीं होता किन्तु कारण कार्यके बिना भी सम्भव है, जैसे-धूमके बिना भी अग्नि देखी जाती है । अतएव अग्नि धूमकी गमक नहीं होती, (धूम हो अग्निका गमक होता है), अत' कारणरूप हेतुको मानना ठीक नहीं है । उत्तर-नहीं, जिस कारणकी शक्ति प्रकट है-अप्रतिहत है, वह कारण कार्यका व्यभिचारी नहीं होता है। अत ( उत्पादक न भी हो, पर) ऐसे कारणको कार्यका ज्ञापक हेतु माननेमें कोई दोष नहीं है। दे. मंगल/२/६ (जिस प्रकार औषधियोंका औषधित्व व्याधियोंके शमन न करनेपर भी नष्ट नहीं होता इसी प्रकार मंगलका मंगलपना विघ्नोंका नाश न करनेपर भी नष्ट नहीं होता)। श्लो.वा२/१/१/२३/१२१/१६ य एव आत्मन' कर्मबन्धविनाशस्य कालः स एव केवलवारख्यमोक्षोत्पादस्येति चेत्, न. तस्यायोगकेवलिचरमसमयत्वविरोधात पूर्वस्य समयस्यैव तथात्वापत्ते । =यदि इस उपान्त्य समयमें होने वाली निर्जराको भी मोक्ष कहा जायेगा तो उससे भी पहले समयमें परमनिर्जरा कहनी पड़ेगी। क्योंकि कार्य एक समय पूर्व में रहना चाहिए। प्रतिबन्धकोंका अभावरूप कारण भले कार्यकालमें रहता होय किन्तु प्रेरक या कारक कारण तो कार्य के पूर्व समयमें विद्यमान होने चाहिए-( ऐसा कहना भी ठीक नहीं है ) क्योंकि इस प्रकार द्विचरम, त्रिचरम, चतुश्चरम आदि समयोंमें मोक्ष होनेका प्रसंग हो जायेगा; कुछ भी व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अत' यही व्यवस्था होना ठीक है कि अयोग केवलीका चरम समय ही परम निर्जराका काल है और उसके पीछेका समय मोक्षका है। ध.१/१,१,४७/२७६/७ कार्यकारणयोरेककालं समुत्पत्तिविरोधात् । - कार्य और कारण इन दोनोंकी एक कालमें उत्पत्ति नहीं हो सकती है। ध.६/४,१.१/३/८ ण च कारणपुव्वकालभावि कज्जमस्थि, अणुवलं भादो। कारणसे पूर्व कालमें कार्य होता नहीं है, क्योकि वैसा पाया नहीं जाता। स्या.म./१६/१६६/२२ न हि युगपदुत्पद्यमानयोस्तयोः सव्येतरगोविषाणयोरिव कारणकार्यभावो युक्तः । नियतप्राक्कालभावित्वात् कारणस्य । नियतीत्तरकालभावित्वात कार्यस्य। एतदेवाहुः न तुल्यकाल. फलहेतुभाव इति । फलं कार्य हेतु कारणम्, तयोर्भावः स्वरूपम्, कार्यकारणभावः । स तुल्यकालः समानकालो न युज्यत इत्यर्थः । = प्रमाण और प्रमाणका फल बौद्ध लोगोके मतमें गायके बायें और दाहिने सींगोंकी तरह एक साथ उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें कार्यकारण सम्बन्ध नहीं हो सकता। क्योंकि नियत पूर्वकालवर्ती तो कारण होता है और नियत उत्तरकालवर्ती उसका कार्य होता है। फल कार्य है और हेतु कारण । उनका भाव या स्वरूप ही कार्यकारण भाव है। वह तुल्यकालमें नहीं हो सकता। का गमक हो, जिस कारण नहीं होता है। मानने में के १०. कारण कार्यका उत्पादक न ही हो यह भी कोई नियम नहीं ध./६/४, १, ४४/११७/१० ण च कारणाणि कज्जं ण जणेति चेवेति णियमो अस्थि, तहाणुवलं भादो। कारण कार्यको उत्पन्न करते ही नहीं हैं, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। अतएव किसी कालमें किसी भी जीवमें कारणकलाप सामग्री निश्चयसे होना चाहिए। ८. कारण व कार्य में व्याप्ति आवश्यक होती है आप्त,प./8/४१/२ तरकारणकत्वस्य तदन्वयव्यतिरेकोपलम्भेन व्याप्तत्वात कुलालकारणकस्य घटादेः कुलालान्वयव्यतिरेकोपलम्भप्रसिद्धे. । - जैसे कुम्हारसे उत्पन्न होनेवाले घड़ा आदिमें कुम्हारका अन्वय व्यतिरेक स्पष्टतः प्रसिद्ध है। अतः सब जगह बाधकोंके अभावसे अन्वय ११. कारणकी निवृत्तिसे कार्यकी भी निवृत्ति हो ऐसा कोई नियम नहीं रा.वा./१०/३/१/६४२/१० नायमेकान्तः निमित्तापाये नैमित्तिकानां निवृत्तिः इति । -निमित्तके अभावमें नैमित्तिकका भी अभाव हो ही ऐसा कोई नियम नहीं है । (जैसे दीपक जला चुकनेके पश्चात् जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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