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________________ [परिशिष्ट] परिशिष्ट १-(आगम विचार) कर्म प्रकृति-१. श्रुतज्ञानके 'दृष्टिप्रवाद' नामक बारहवें अग के अन्तर्गत 'अग्रायणी' नामक द्वितीय पूर्व है। उसके पांचवें वस्तु अधिकारसे सम्बद्ध चतुर्थ प्राभृतका नाम 'महाकर्म प्रकृति' है (दे० श्रुतज्ञान1I/१)। आचार्य परम्परा द्वारा इसका ही कोई अश आचार्य गुणधर तथा धरसेन को प्राप्त था। आ० धरसेन से इसी का अध्ययन करके आ० भूतबलिने 'षटूबण्डागम' की रचना की थी (दे० आगे पटवण्डागम)। २.इसी प्राभूत (कर्म प्रकृति के उच्छिन्न अर्थ की रक्षा करनेके लिये श्वेताम्बराचार्य शिवशर्म सूरि (वि० ५००) ने 'कम प्रकृति के नाम से ही एक दूसरे प्रन्थ की रचना की थी, जिसका अपर नाम 'कर्म प्रकृति संग्रहिणी' है ।२६३। इस ग्रन्थमें कर्मों के मन्ध उदय सत्त्व आदि वश करणोंका विवेचन किया गया है।२९। इसकी अनेकों गाथायें षट्खण्डागम तथा कषाय पाहुडको टीका धवला तथा जयधवलायें और यतिवृषभाचार्यके चूर्णिसूत्रों में पाई जाती है।३०॥ मा. मलयगिरि कृत संस्कृत टीकाके अतिरिक्त इसपर एक प्राचीन प्राकृत चूणि भी उपलब्ध है ।२६३' (जै०/१/पृ०) । कर्मस्तव-१५ प्राकृत गाथाओं वाला यह ग्रन्थ कर्मोके बन्ध उदय सत्त्वको विवेचना करता है। दिगम्बर पंचसंग्रह वि० श०१) के 'कर्मस्तव' नामक तृतीय अधिकारमें इसकी ५३ गाथाओका ज्योंका श्यों ग्रहण कर लिया गया है ।३२२। दूसरी ओर विशेषावश्यक भाष्य (वि०६५०) में इसका नामोल्लेख पाया जाता है । इसका रचना काल (वि००७-६) माना जा सकता है ।२५। इस प्रन्थपर २४ तथा ३२ गाथावाले दो भाष्य उपलब्ध है, जिनके रचयिताके विषयमें कुछ ज्ञात नहीं है। तीसरी एक संस्कृत वृत्ति है जो गोविन्दाचार्य कृत है १४३२॥ (जै०/१/पृष्ठ संख्या )। कषायपाहड़-साक्षात भगवान महावीरसे आगत द्वादशांग शुतहान के अन्तर्गत होनेसे तथा सूत्रात्मक शैली में निबद्ध होनेसे दिगम्बर आम्नाय में यह ग्रन्थ आगम अथवा सूत्र माना जाता है। (ज००/६/ पृ०१३-१५४) में आ० वीरसेन स्वामीने इस विषय में विस्तृत चर्चा की है। चौदह पूर्वो में से पचम पूर्व के दसवें वस्तु अधिकारके अन्तर्गत 'पेजपाहुड़' नामक तृतीय पाहुड इसका विषय है ।।१६००० पद प्रमाण इस का मूल विषय वि०पू० प्रथम शताब्दी में ज्ञानोच्छेदके भय से युक्त आ० गुणधर देव द्वारा १८० सूत्र गाथाओं में उपसहत कर दिया गया। १८० सूत्र गाथा परिमाण यह ग्रन्थ कर्म प्रकृति आदि १५ अधिकारों में विभक्त है।' आ० गुणधर द्वारा कथित मे १८० गाथायें आचार्य परम्परासे मुख दर मुख आती हुई आर्यमक्ष और नागहस्ती को प्राप्त हुई। आचार्य गुणधरके मुख कमलसे विनिर्गत इन गाथाओं के अर्थ को उन दोनों आचार्योंके पादमूल में सुनकर आ. यतिवृषभने ई. १५०-१८० में १००० चूर्ण सूत्रोंकी रचना की। इन्ही चूर्ण सूत्रों के आधारपर ई०१८० के आसपास उच्चारणाचायने विस्तृत उच्चारणा वृत्ति लिखी, जिसको आधार बनाकर ई००५-४ में आ० पदेन ने ६०,००० श्लोक प्रमाण एक अन्य टीका लिखो। इन्हीं बप्पदेवसे सिद्धान्तका अध्ययन करके ई० ८१६ के आस-पास श्री वीरसेन स्वामीने इसपर २०,००० श्लोक प्रमाण जयधबला नामक अधरी टीका लिखी जिसे उनके पश्चात् ई०८३७ में उनके शिष्य आजिनमेन ने ४०००० श्लोक प्रमाण टीका लिखकर पूरा किया इस प्रकार इस ग्रन्थ का उत्तरोत्तर विस्तार होता गया। यद्यपि ग्रन्थमें आ० गुणधर देवने १८० गाथाओं का निर्देश किया है, तदपि यहाँ १८० के स्थानपर २३३ गाथायें उपलब्ध हो रही हैं। इन अतिरिक्त ५३ गाथाओं की रचना किसने की. इस विषयमें आचार्यों तथा विद्वानोका मतभेद है, जिसकी चर्चा आगे की गई है। इन ५३ गाथाओंमें १२ गाथायें विषय-सम्बन्धका ज्ञापन कराने वाली हैं, ६ अद्धा परिमाणका निर्देश करती है और ३५ गाथायें सक्रमण वृत्ति से सम्बद्ध हैं |(तो०/२/३३), (जै०/१/२८)। ___ अतिरिक्त गाथाओं के रचयिता कौन !-श्री वीरसेन स्वामी इन ५३ गाथाओं को यद्यपि आचार्य गुणधरको मानते हैं (दे. उपर) तदपि इस विषयमें गुणधरदेवकी अज्ञताका जो हेतु उन्होंने प्रस्तुत किया है उसमें कुछ बल न होने के कारण विद्वान लोग उनके अभिमतसे सहमत नहीं है और इन्हें नागहस्ती कृत मानना अधिक उपयुक्त समझते हैं। इस सन्दर्भ में वे निम्न हेतु प्रस्तुत करते हैं। १ यदि ये गाथायें गुणधरकी होती तो उन्हें १८० के स्थानपर २३३ गाथाओं का निर्देश करना चाहिये था। २. इन ५३ गाथाओंकी रचनाशैलो मूल वाली १८० गाथाओसे भिन्न है। ३. सम्बन्ध ज्ञापक और अदा परिमाण वाली १८ गाथाओंपर यतिवृषभाचार्य के चूर्णसूत्र उपलब्ध नहीं है । ४. संक्रमण वृत्तिवाली ३५ गाथाओं में से १३ गाथायें ऐसी हैं जो श्वेताम्बराचार्य श्री शिवशर्म सूरि कृत 'कर्म प्रकृति' नामक ग्रन्थ में पाई जाती हैं, जबकि इनका समय वि. श. ५ अथवा ई. श. ५ का पूर्वाध अनुमित किया जाता है । ५. ग्रन्थके प्रारम्भमें दी गई द्वितीय गाथामें १८० गाथाओंको १५ अधिकारों में विभक्त करने का निर्देश पाया जाता है। यदि वह गाथा गुणधराचार्य की हुई होती तो अधिकार विभाजनके स्थानपर वहाँ "१६००० पद प्रमाण कषाय प्राभृत को १८० गाथाओं में उपसंहृत करता है" ऐसी प्रतिज्ञा प्राप्त होनी चाहिये थी, क्योंकि वे ज्ञानोच्छेदके भयसे प्राभृतको उपसंहृत करने के लिये प्रवृत्त हुए थे। (तो./२/३४); (जै./१/२८-३०)। गाहा जयि गाहा जम्मि अत्यम्मि ॥ (२० पा० १/२/१०११)। पुणा ताओ सुत्त गाहाओआइरिय परंपराए गच्छमाणाओ अज्जमखुणागहत्यीण पत्ताअ।।। (ज० 2०1पृ०८८)। 'पुणो ते सिं दोण्ई पि पादमूले असीदिसदगाहाणं गुणहरमुह कमलविणिग्गायाणमत्थं सम्मं सोऊण जयिवसह भडारएण पवयणवच्छलेग चुणिमुत्तं कयं । (ज० ५० १/६८/८८) । टिप्पणी:- पुबम्मि पंचम्मि दु दसमे वत्थुम्हि पाहुडे तदिए। पेज ति पाहुम्मि दु हवदि कसायाण पाहुडंणाम ॥ (क० पा० १/६८/८७)। एदं पेज्जदासपाहुड सोलसपदसहस्सपमाणं होतं असीदि सदमेत गाहाह उवसंधारिदं । (ज० ध०१/६६८/८७)। गाहासदे असीदे अत्ये पण्णरसधा विहत्तम्मि। वोच्छामि सुत्स जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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