SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 623
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियति २. काललब्धि निर्देश तत्व की माँधता सूत्र में चारा अणंतगुणकमेण वड्ढमाण विसोहीए आइरियोवदेसोवलंभस्स य तत्थेव संभवादो। - इन ही सर्व कर्मोकी जब अन्तःकोडाकोड़ी स्थितिको बाँधता है, तब यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है। २. इस सूत्रके द्वारा क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि और प्रायोग्यलब्धि ये चारों लब्धियाँ प्ररूपण की गयी हैं। प्रश्न-सूत्रमें केवल एक काललब्धि ही प्ररूपणा की गयी है, उसमें इन शेष लब्धियोंका होना कैसे सम्भव है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, प्रति समय अनन्तगुणहीन अनुभागकी उदीरगाका ( अर्थात क्षयोपशमलन्धिका ), अनन्तगुणित क्रम द्वारा बर्द्धमान विशुद्धिका (अर्थात् विशुद्धि लब्धिका ); और आचार्यके उपदेशकी प्राप्तिका (अर्थात देशनालब्धिका ) एक काललब्धि (अर्थात प्रायोग्यलन्धि)में होना सम्भव है। ३. काललब्धिकी कथंचित् प्रधानताके उदाहरण १. मोक्ष प्राप्तिमें काललब्धि मो. पा./मू./२४ अइसोहणजोएणं सुद्ध हेमं हवेइ जह तह या कालाईलद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि ।२४। - जिस प्रकार स्वर्णपाषाण शोधनेकी सामग्रीके संयोगसे शुद्ध स्वर्ण बन जाता है, उसी प्रकार काल आदि लब्धिकी प्राप्तिसे आत्मा परमात्मा बन जाता है। आ. अनु /२४१ मिथ्यात्वोपचितात्स एव समल' कालादिलब्धौ क्वचित सम्यक्त्ववतदक्षताकलुषतायोगैः क्रमान्मुच्यते ॥२४॥ - -मिथ्यात्वसे पुष्ट तथा कर्ममल सहित आत्मा कभी कालादि लन्धिके प्राप्त होनेपर क्रमसे सम्यग्दर्शन, बतदक्षता, कषायोंका विनाश और योगनिरोधके द्वारा मुक्ति प्राप्त कर लेता है। का, अ/मू./१८८ जीवो हवेइ कत्ता सव्वं कम्माणि कुव्बदे जम्हा । कालाइ-लद्धिजुत्तो संसार कुणइ मोक्वं च १८८, सर्व कर्मोको करनेके कारण जोव कर्ता होता है। वह स्वयं ही संसारका कर्ता है और कालादिलब्धिके मिलनेपर मोक्षका कर्ता है। प्र. सा./ता. वृ/२४४/२०५/१२ अत्रातीतानन्तकाले ये केचन सिद्धमुखभाजन जाता, भाविकाले विशिष्टसिद्धसुखस्य भाजनं भविष्यन्ति ते सर्वेऽपि काललब्धिवशेनैव । -अतीत अनन्तकालमें जो कोई भी सिद्धसुखके भाजन हुए हैं, या भावीकालमें होंगे वे सब काललन्धिके वशसे ही हुए हैं । (पं. का./ता. व./१००/१६०/१२ ); (द्र. सं. टी./ ६३/३)। पं. का./ता././२०/४२/१८ कालादिलब्धिवशाभेदाभेदरत्नत्रयात्मक व्यवहारनिश्चयमोक्षमार्ग लभते । - काल आदि लब्धिके वशसे भेदाभेद रत्नत्रयात्मक व्यवहार व निश्चय मोक्षमार्गको प्राप्त करते हैं। पं. का./ता. वृ./२६/६/६ स एव चेनयितात्मा निश्चयनयेन स्वयमेव कालादिलब्धिवशात्सर्वज्ञो जातः सर्वदर्शी च जातः। -वह चेतयिता आरमा निश्चयनयसे स्वयम् ही कालादि लब्धिके वशसे सर्वज्ञ व सर्वदर्शी हुआ है। दे. नियति/५/६ (काललब्धि माने तदनुसार बुद्धि व निमित्तादि भी स्वतः प्राप्त हो जाते हैं।) २. सम्यक्त्व प्राप्तिमें काललब्धिम. पु./६२/३१४-३१५ अतीतानादिकालेऽत्र कश्चिरकालादिलब्धितः । १३१४॥ करणत्रयसं शान्तसप्तप्रकृतिसंचय । प्राप्तविच्छिन्नसंसार' रागसंभूतदर्शनः ।३१५। -अनादि कालसे चला आया कोई जीव काल आदि लब्धियोंका निमित्त पाकर तीनों करणरूप परिणामों के द्वारा मिथ्यादिसात प्रकृतियोंका उपशम करता है,तथासंसारकीपरिपाटीका विच्छेद कर उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। ( स. सा./ता. वृ./ ३७३/४५६/१५)। ज्ञा./10 में उद्धृत श्लो.नं.१ भव्यः पर्याप्तक. संज्ञी जीव पञ्चेन्द्रियान्वितः। काललध्यादिना युक्त. सम्यक्त्वं प्रतिपद्यतः।१। जो भव्य हो, पर्याप्त हो, संज्ञी पंचेन्द्रिय हो और काललन्धि आदि सामग्री सहित हो वही जीव सम्यक्त्वको प्राप्त होता है। (दे. नियति/ २/१); (अन. ध./२/४६/१७१); ( स. सा./ता. वृ./१७१/२३८/१६) । स. सा./ता.व./३२१/४०८/२० यदा कालादिलन्धिवशेन भव्यत्वशक्ते र्व्यक्तिर्भवति तदाय जीवः सम्यवश्रद्धानज्ञानानुचरण पर्यायण परिणमति। -जब कालादि लब्धिके वशसे भव्यत्व'शक्तिकी व्यक्ति होती है तब यह जीव सम्यक् श्रद्धान ज्ञान चारित्र रूप पर्यायसे परिणमन करता है। ३. सभी पर्यायोंमें काललब्धि का, अ./मू./२४४ सव्वाण पज्जायाणं अविजमाणाण होदि उप्पत्ती। कालाई-लद्धीए अणाइ-णिहणम्मि दयम्मि।-अनादिनिधन द्रव्यमें काललब्धि आदिके मिलनेपर अविद्यमान पर्यायोंकी ही उत्पत्ति होती है। (और भी दे० आगे शीर्षक नं.६)। ४. काकतालीय न्यायसे कायकी उत्पत्ति ज्ञा.१२ काकतालीयकन्यायेनोपलब्ध यदि त्वया। तत्तहि सफल कार्य कृत्वात्मन्यात्मनिश्चयम् ।२। -हे आत्मन् ! यदि तूने काकतालीय न्यायसे यह मनुष्यजन्म पाया है, तो तुझे अपने में ही अपनेको निश्चय करके अपना कर्त्तव्य करना तथा जन्म सफल करना चाहिए। प.प्र./टी./१/८/८१/१६ एकेन्द्रियविकलेन्द्रिय.. आत्मोपदेशादीनुत्तरोत्तरदुर्लभक्रमेण दुःप्राप्ता कालल ब्धि', कथं चिकाकतालीयकन्यायेन तां लब्ध्वा...यथा यथा मोही विगलयति तथा तथा...सम्यक्त्वं लभते। = एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियसे लेकर आत्मोपदेश आदि जो उत्तरोत्तर दुर्लभ आते हैं. काकतालीय न्यायसे काललब्धिको पाकर वे सब मिलनेपर भी जैसे-जैसे मोह गलता जाता है, तैसे-तैसे सम्यक्त्वका लाभ होता है । ( द्र. सं./टी./३५/१४३/११) । ५. काललब्धिके बिना कुछ नहीं होता ध.१/४,१.४४/१२०/१० दिव्वज्झुणीए किमळं तत्थापउत्ती। गणिदाभावादो। सोहम्मिदेण तखणे चेव गणिदो किण्ण ढोइदो। काललद्धीए विणा असहायस्स देविदस्स तड्ढोयणसत्तीए अभावादो। -प्रश्न-इन (छयासठ) दिनोंमे दिव्यध्वनिकी प्रवृत्ति किसलिए नहीं हुई। उत्तर-गणधरका अभाव होनेके कारण । प्रश्न - सौधर्म इन्द्र ने उसी समय गणधरको उपस्थित क्यों नहीं किया । उत्तरनहीं किया, क्योंकि, काललब्धिके बिना असहाय सौधर्म इन्द्र के उनको उपस्थित करनेकी शक्तिका उस समय अभाव था। (क पा, ११,१/५७/०६/१) । म.पु./६/११५ तद्गृहाणाद्य सम्यक्त्वं तल्लाभे काल एष ते। काललब्ध्या विना नार्य तदुत्पत्तिरिहानिनाम् ॥११॥ म.पु./४७/३८६ भव्यस्यापि भवोऽभवद् भवगत' कालादिलब्धेविना ।... १३८६४ -१. (प्रीतिंकर और प्रीतिदेव नामक दो मुनि वज्रजंघके पास आकर कहते हैं) हे आर्य! आज सम्यग्दर्शन ग्रहण कर। उसके ग्रहण करनेका यह समय है ( ऐसा उन्होंने अवधिज्ञानसे जान लिया था), क्योंकि काललब्धिके बिना संसार में इस जीवको सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति नहीं होती। (म. पू./४८/८४) ।११५॥ २. कालादि लब्धियों के बिना भव्य जीवोंको भी संसार में रहना पड़ता है ।३८६। का, अ./मू./४०८ इदि एसो जिणधम्मो अलद्धपुवो अणाइकाले वि। मिच्छत्तसंजुदाणं जीवाण लद्धिहीणाणं ।४०८ - इस प्रकार यह जिनधर्म कालादि लब्धिसे होन मिथ्यादृष्टि जीवोंको अनादिकाल बीत जानेपर भी प्राप्त नहीं हुआ। ६. काळलब्धि अनिवार्य है का.अ./मू./२१६ कालाइलद्धिजुत्ता णाणासत्तीहि संजुदा अत्था। परि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy