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________________ I कारण (सामान्य निर्देश) ५४ २. उपादान कारणकार्य निर्देश I. कारण सामान्य निर्देश १. कारणके भेद व लक्षण स सा./आ./६५ निश्चयत कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यद्यन क्रियते तत्तदेवेति कृत्वा, यथा कनकपत्रं कनकेन क्रियमाणं कनकमेव न त्वन्यत् । -निश्चय नयसे कर्म और करणकी अभिन्नता होनेसे जो जिससे किया जाता है (होता है) वह वही है. जैसे सुवर्ण पत्र सुवर्ण से किया जाता होनेसे सुवर्ण ही है अन्य कुछ नहीं है। १. कारण सामान्यका लक्षण स.सि./१/२१/१२५/७ प्रत्ययः कारणं निमित्तमित्यनर्थान्तरम् । प्रत्यय, कारण और निमित्त ये एकार्थवाची नाम हैं । (स.सि./१/२०/१२०/७); (रा.वा./१/२०/२/७०/३०) स.सि./१/७/२२/३ साधनमुत्पत्तिनिमित्त'। जिस निमित्तसे बस्तु उत्पन्न होती है वह साधन है। रा.वा./१/७/.../३८/१ साधनं कारणम् । -साधन अर्थात् कारण । २. कारणके भेद रा, वा/२/८/१/११८/१२ द्विविधो हेतुर्बाह्य आभ्यन्तरश्च ।...तत्र बाह्यो हेतुविविधः-आत्मभूतोऽनात्मभूतश्चेति !.. आभ्यन्तरश्च द्विविधअनात्मभूत आत्मभूतश्चेति। - हेतु दो प्रकारका है--बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य हेतु भी दो प्रकारका है--अनात्मभूत और आत्मभूत और अभ्यन्तर हेतु भी दो प्रकारका होता है-आत्मभूत और अनात्मभूत । (और भी दे० निमित्त/१) २. द्वब्यका स्वभाव कारण है और पर्याय काय है श्लो बा/२/१/७/१२/५४६/भाषाकार द्वारा उद्धृत-यावन्ति कार्याणि तावन्तः प्रत्येक वस्तुस्वभावा.। = जितने कार्य होते हैं उतने प्रत्येक वस्तुके स्वभाव होते हैं। न.च.व./३६०-३६१ कारणकज्जसहावं समयंणाऊण होइ ज्झायव्वं । कज्ज सुद्धसरूवं कारणभूदं तु साहणं तस्स ॥३६० सुद्धो कम्मखयादो कारणसमओ हु जीवसब्भावो । खय पुण सहावझाणे तम्हा तं कारणं झेयं ।३६१) =समय अर्थात आत्माको कारण व कार्यरूप जान कर ध्याना चाहिए। कार्य तो उस आत्माका प्रगट होने वाला शुद्ध स्वरूप है और कारणभूत शुद्ध स्वरूप उसका साधन है।३६०1 कार्य शुद्ध समय तो कर्मोंके क्षयसे प्रगट होता है और कारण समय जीवका स्वभाव है। कर्मोका क्षय स्वभावके ध्यानसे होता है इसलिए वह कारण समय ध्येय है। (और भी दे० कारण कार्य परमात्मा कारण कार्य समयसार ) स.सा /आ./परि/क. २६५ के आगे-आत्मवस्तुनो हि ज्ञानमात्रत्वेऽप्युपायोपेयभावो विद्यत एव । तस्यैकस्यापि स्वयं साधकसिद्धरूपोभयपरिणामित्वात् । तत्र यत्साधकं रूपं स उपाय' यत्सिद्ध रूप स उफ्य' । म आत्म वस्तुको ज्ञानमात्र होनेपर भी उसे उपायउपेय भाव है; क्योंकि वह एक होनेपर भी स्वयं साधक रूपसे और सिद्ध रूपसे दोनों प्रकारसे परिणमित होता है (अर्थात आत्मा परिणामी है और साधकरव और सिद्धत्व ये दोनों परिणाम है) जो साधक रूप है वह उपाय है और जो सिद्ध रूप है वह उपेय है। ३. कारणके भेदोंके लक्षण रा.वा/२/८/१/११८/१४ तत्रात्मना संबन्धमापन्नविशिष्टनामकर्मोपात्तचक्षुरादिकरणग्राम आत्मभूतः। प्रदीपादिरनात्मभूत.....तत्र मनोवाक्कायवर्गणालक्षणो द्रव्ययोगः चिन्ताद्यालम्बनभूत अन्तरभिनिविष्टत्वादाभ्यन्तर इति ब्यपदिश्यमान आत्मनोऽन्यत्वादनात्मभूत इत्यभिधीयते। तन्निमित्तो भावयोगो वीर्यान्तरायज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमनिमित्त आत्मनः प्रसादश्चात्मभूत इत्याख्यामह ति। (ज्ञान दर्शनरूप उपयोगके प्रकरणमें) आत्मासे सम्बद्ध शरीरमें निर्मित चक्षु आदि इन्द्रियाँ आत्मभूत बाह्यहेतु हैं और प्रदीप आदि अनारमभूत बाह्य हेतु हैं। मनवचनकायकी वर्गणाओंके निमित्तसे होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पन्दन रूप द्रव्य योग अन्त.प्रविष्ट होनेसे आभ्यन्तर अनात्मभूतहेतु है तथा द्रव्ययोगनिमित्तक ज्ञानादिरूप भावयोग तथा वीर्यान्तराय तथा ज्ञानदर्शनावरणके क्षयोपशमके निमित्तसे उत्पन्न आरमाकी विशुद्धि आभ्यन्तर आत्मभूत हेतु है। ३. त्रिकाली द्रव्य कारण है और पर्याय कार्य - रावा./१/३३/१/६/४ अर्यते गम्यते निष्पाद्यते इत्यर्थकार्यम् । द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् । जो निष्पादन या प्राप्त किया जाये ऐसी पर्याय तो कार्य है और जो परिणमन करे ऐसा द्रव्य कारण है। न. च वृ./३६५ उप्पज्जंतो कज्जं कारणमध्पा णियं तु जणयंतो। तुम्हा इह ण विरुद्ध एकस्स व कारणं कज्ज ३६५॥ = उत्पद्यमान कार्य होता है और उसको उत्पन्न करनेवाला निज आत्मा कारण होता है। इसलिए एक ही द्रव्यमें कारण ब कार्य भाव विरोधको प्राप्त नहीं होते २ स सरूवस्था सहिदो चैत्र । का.आ./मू./२३२ स सरूवस्थो जीवो कज्जं साहेदि बट्टमाणं पि। खेत्ते एकम्मि द्विदो णिय दवे संठिदो चेव ।२३२। -स्वरूपमें, स्वक्षेत्रमे, स्वद्रव्यमें और स्वकालमें स्थित जीव हो अपने पर्यायरूप कार्यको करता है। २. उपादान कारणकार्य निर्देश १. निश्चयसे कारण व कार्य में अभेद है रा.वा/१/३३/१/५/५ न च कार्यकारणयो कश्चिद्रूपभेदः तदुभयमेकाकारमेव पर्वाङ्गुलिद्रव्यवदिति द्रव्याथिक। -कार्य व कारणमे कोई भेद नहीं है। वे दोनों एकाकार ही हैं। जैसे-पर्व व अंगुली । यह द्रव्यार्थिक नय है। घ.१२/४,२,८,३/३ सबस्स सच्चकलापस्स कारणादो अभेदो सत्तादी हितो त्ति णए अवलं बिजमाणे कारणादो कजमभिण्णं ।...कारणे कार्यमस्तीति विवक्षातो वा कारणात्कार्यमभिन्नम् । = सत्ता आदिकी अपेक्षा सभी कार्यकलापका कारणसे अभेद है। इस नयका अवलम्बन करने पर कारणसे कार्य अभिन्न है, तथा कार्यसे कारण भी अभिन्न है । ...अथवा 'कारणमें कार्य है' इस विवक्षासे भी कारणसे कार्य अभिन्न है। (प्रकृतमें प्राण प्राणिवियोग और वचनकलाप चूँकि ज्ञानावरणीय बन्धके कारणभूत परिणामसे उत्पन्न होते है अतएव वे उससे अभिन्न हैं। इसी कारण वे ज्ञानावरणीयबन्धके प्रत्यय भी सिद्ध होते हैं)। ४. पूर्व पर्याय विशिष्ट द्रव्य कारण है और उत्तर पर्याय उसका कार्य है आ. मी./५८ कार्योत्पाद. क्षयो हेतुनियमाल्लक्षणात्पृथक् । न तौ जात्या द्यवस्थानादनपेक्षा' खपुष्पवत ।५८ = हेतु कहिये उपादान कारण ताका क्षय कहिए विनाश है सो ही कार्यका उत्पाद है। जाते हेतुके नियमते कार्यका उपजना है। ते उत्पाद विनाश भिन्न लक्षणतै न्यारे न्यारे हैं । जाति आदिके अवस्थानते भिन्न नाहीं हैं-कथंचित अभेद रूप हैं। परस्पर अपेक्षा रहित होय तो आकाश पुष्पवत अवस्तु होय । (अष्टसहस्री/श्लो.५८) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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