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________________ निघंटु ६०७ नित्य अनित्य समा जाति पक्षका निराकरण करनेसे एककी यश कीर्ति होती है और दूसरेका पराजय होता है, जो कि अवश्य ही अपकीर्तिका करनेवाला है । अत स्वपक्षकी सिद्धि और परपक्षका निराकरण करना ही जयका कारण है। इस कर्तव्यको नही करनेवाले वादी या प्रतिवादीका निग्रहस्थान हो जाता है। दे. न्याय/२ वास्तवमे तो स्वपक्षको सिद्धि ही प्रतिवादीका निग्रहस्थान है। २. निग्रहस्थानके भेद न्या.सू./मू.५/२/१ प्रतिज्ञाहानि' प्रतिज्ञान्तरं प्रतिज्ञाविरोध' प्रतिज्ञासंन्यासो हेत्वन्तरमर्थान्तरं निरर्थकमविज्ञातार्थमपार्थ कमप्राप्तकालं न्यूनमधिकं पुनरुक्तमननुभाषणमज्ञानमप्रतिभाविक्षेपो मतानुज्ञापर्यनुयोज्योपेक्षणनिरनुयोज्यानुयोगोऽपसिद्धान्तो हेत्वाभासश्च निग्रहस्थानानि । निग्रहस्थान २२ हैं-१. प्रतिज्ञाहानि, २, प्रतिज्ञान्तर, ३. प्रतिज्ञाविरोध, ४. प्रतिज्ञासन्यास, ५ हेत्वन्तर, ६. अर्थान्तर, ७. निरर्थक, ८. अविज्ञातार्थ, ६. अपार्थक, १०. अप्राप्तकाल , ११. न्यून, १२. अधिक, १३. पुनरुक्त, १४. अननुभाषण, १५. अज्ञान, १६. अप्रतिभा, १७ विक्षेप, १८. मतानुज्ञा, १६. पर्यनुयोज्यानुपेक्षण, २०. निरनुयोज्यानुयोग, २१, अपसिद्धान्त और २२. हेत्वाभास । सि. वि /मू /५/१०/३३४ असाधनाग वचनमदोषोद्भावनं द्वयो । निग्रहस्थानमिष्टं चेत् कि पुन' साध्यसाधनै ।१०। -(बौद्धोके अनुसार ) असाधनाङ्ग वचन अर्थात् असिद्ध व अनै कान्तिक आदि दूषणो सहित प्रतिज्ञा आदिके वचनोका कहना और अदोषोद्भावन अर्थात् प्रतिवादीके साधनो मे दोषों का न उठाना ये दो निग्रहस्थान स्वीकार किये गये हैं, फिर साध्यके अन्य साधनोंसे क्या प्रयोजन है । ३, अन्य सम्बन्धित विषय १. जय पराजय व्यवस्था । -दे० न्याय/२। २. नैयायिकों द्वारा निग्रहस्थानोंके प्रयोगका समर्थन - दे० वितडा। ३. नैयायिक व बोद्धमान्य निग्रहस्थानोंका व उनके प्रयोगका निषेध । -दे० न्याय/२। ४. निग्रहस्थानके भेदोंके लक्षण -दे० वह वह नाम। निघंटु१. १३०० श्लोक प्रमाण संस्कृत भाषामें लिखा गया एक पौराणिक ग्रन्थ । २ श्वेताम्बराचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरि ( ई० १०८८११४३ ) को 'निघटुशेष' नामको रचना। ३. आ. पद्मनन्दि ( ई० १२८०-१३३०) कृत 'निघंटु वैद्यक' नामका आयुर्वेदिक ग्रन्थ( यशस्तिलकचम्पू/प्र. पं० सुन्दरलाल )। निज गुणानुस्थान- दे० परिहार प्रायश्चित्त । निजात्माष्टक-आ. योगेन्ददेव ( ई० श०६) द्वारा रचित सिद्ध स्वरूपानुवाद विषयक आठ अपभ्रंश दोहे। निजाष्टक-आ० योगेन्दुदेव (ई० श०/६) द्वारा रचित अध्यात्म भाव विषयक आठ अपभ्रंश दाहे। नित्य-वैशे. सु./म/४/१/१ सदकारणपन्नित्यम् । =सत और कारण रहित नित्य कहलाता है । (आप्त प/टी/२/६/४/३)। त.सू./५/३१ तद्भावाव्ययं नित्य ।३१। = सतके भावसे या स्वभावसे अर्थात अपनी जातिसे च्युत न होना नित्य है। स. सि./५/४/२७०/३ नित्यं ध वमित्यर्थः । 'नेधू व त्य.' इति निष्पा दिखात। स. सि./५/३१/३०२/५ येनात्मना प्रारदृष्टं वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते। यद्यत्यन्तनिरोधोऽभिनबप्रादुर्भावमात्रमेव वा स्यात्तत. स्मरणानुपपत्तिः । तदधीनलोकसंव्यवहारो विरुध्यते । ततस्तद्भावेनाव्ययं नित्यमिति निश्चीयते। --१. नित्य शब्द का अर्थ ध्रुव है ( 'नेधु वेत्य.' इस वार्तिक्के अनुसार 'नि' शदसे धबार्थ मे 'त्य' प्रत्यय लगकर नित्य शब्द बना है । २. पहले जिस रूप वस्तुको देखा है उसी रूप उसके पुन' होनेसे 'वही यह है' इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान होता है। यदि पूर्ववस्तुका सर्वथा नाश ही जाये या सर्वथा नयी वस्तुका उत्पाद माना जाये तो इससे स्मरणकी उत्पत्ति नहीं हो सकती और स्मरणकी उत्पत्ति न हो सकनेसे स्मरणके आधीन जितना लोक सव्यवहार चालू है, वह सब विरोधको प्राप्त होता है। इसलिए जिस वस्तुका जो भाव है उसरूपसे च्युत न होना तदभावाव्यय अर्थात नित्य है, ऐसा निश्चित होता है। (रा. वा./३/४/१-२/४४३६); ( रा. वा./५/३१/१/४६६/३२)। न. च. वृ./६१ सोऽयं इति तं णिच्चा।='यह वह है' इस प्रकारका प्रत्यय जहाँ पाया जाता है, वह नित्य है । * द्रव्यमें निस्य अनित्य धर्म-दे० अनेकान्त/४ । * द्रव्य व गुणों में कथंचित् नित्यानित्यात्मकता दे० उत्पाद व्ययधौव्य/२ । * पर्यायमें कथंचित् नित्यत्व-दे० उत्पाद व्यय धौव्य /३ । * षट् द्रव्योंमें नित्य अनित्य विभाग-दे० द्रव्य/३ । नित्य नय-दे० नय/I/५ । नित्य निगोद-दे० वनस्पति/२ । नित्य पूजा-दे० पूजा/१/३, पूजापाठ । नित्य मरण-दे० मरण/१ । नित्य महोद्योत-१० आशाधर (ई० ११७३-१२४३) की एक संस्कृत छन्दबद्ध भक्तिरसपूर्ण ग्रन्थ है, जिस पर आ० श्रुतसागर (ई० १४८१-१४६६) ने महाभिषेक नामकी टीका रची है। नित्यरसी व्रत-वर्ष मे एक बार आता है। ज्येष्ठ कृ० १ से ज्येष्ठ पूर्णिमा तक कृ०१ को उपवास तथा २-१५ तक एकाशना करें। फिर शु.१ को उपवास और २-१५ तक एकाशना करें। जघन्य १ वर्ष, मध्यम १२ वर्ष और उत्कृष्ट २४ वर्ष तक करना पडता है । 'ॐ ह्री श्री वृषभजिनाय नमः' इस मंत्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रत विधान संग्रह/पृ. १०२)। नित्य वाहिनी-विजया की दक्षिणश्रेणीका एक नगर -दे० विद्याधर। नित्य अनित्य समा जातिन्या. सू /मू./५/१/३२,३५/३०२ साधर्म्यात्तु ल्यधर्मोपपत्ते. सर्वानित्यत्व प्रसङ्गादनित्यसम' ।३२॥ नित्यमनित्यभावाद नित्ये नित्यत्वोपपत्तेन्नित्यसम' ।३५॥ न्या. सू //५/१/३२,३५/३०२ अनित्येन घटेन साधादनित्यः शब्द इति न वतोऽस्ति घटेनानित्येन सर्वभावान साधर्म्यमिति सर्व स्यानित्यत्वमनिष्ट संपद्यते सोऽयमनित्यत्वेन प्रत्यवस्थानादनित्यसम इति ।३२॥ अनित्य शब्द इति प्रतिज्ञायते तदनित्यत्वं कि शब्दे नित्यमथानित्यं यदि तावत्सर्वदा भवति धर्मस्य सदा भावाद्धर्मिणोऽपि सदाभाव इति। नित्यः शब्द इति । अथ न सर्वदा भवति अनित्यवस्थाभावान्नित्यः शब्द । एवं नित्यत्वेन प्रत्यवस्थानान्नित्यसम अस्योत्तरम् । = साधर्म्य मात्रसे तुल्यधर्मसहितपना सिद्ध हो जानेसे सभी पदार्थो में अनित्यत्वका प्रसंग उठाना अनित्यसम जाति है। जैसे-घटके साथ कृतकत्व आदि करके साधर्म्य हो जाने से यदि शब्दका अनित्यपना साधा जावेगा, तब तो यो घटके सत्व, प्रमेयत्व आदि रूप साधर्म्य सम्भवनेसे सब पदार्थोके अनित्यपने का प्रसग हो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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