SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 604
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निक्षेप ३. निक्षेपोंका नैगमादि नयोंमें अन्तर्भाव लेकर होता है और अजुसूत्र पर्यायाथिक है, इसलिए उसमे नामनिक्षेप कैसे सम्भव है । उत्तर-नहीं, क्योंकि, अर्थनयमे शब्द अपने अर्थका अनुसरण नहीं करता है ( अर्थ शब्दादि नयोंकी भॉति ऋजुसूत्रनय शब्दभेदसे अथभेद नहीं करता है, केवल उस शब्दके संकेतसे प्रयोजन रखता है ) और नाम निक्षेपमें भी यही बात है। अत ऋजुसूत्रनयमे नानिक्षेप सम्भव है। प्रश्न-यदि अर्थनयोमें शब्द अर्थ का अनुसरण नहीं करते है तो शब्द व्यवहारको असत्य मानना पडेगा, और इस प्रकार समस्त लोकव्यवहारका व्युच्छेद हो जायेगा। उत्तर-यदि इससे लोकव्यवहारका उच्छेद होता है तो होओ, किन्तु यहाँ हमने नयके विषयका प्रतिपादन किया है। और भी दे० निक्षेप/३/६ (नामके बिना इच्छित पदार्थका कथन न हो सकनेसे इस नयमें नामनिक्षेप सम्भव है।) ४. ऋजुसूत्रका विषय व्यनिक्षेप कैसे घ. १/१,१,१/१६/३ कधमुज्जुसुदे पज्जवटिए दव्य णिकरखेवो त्ति । ण, तत्थ वट्टमाणसमयाणं तगुण पिणद-एगदव्व-संभवादो। -प्रश्न-ऋजुसूत्र तो पर्यायार्थिकनय है, उसमें द्रव्यनिक्षेप कैसे घटित हो सकता है। उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है; क्योकि अजुसूत्र नयमे वर्तमान समयवर्ती पर्यायसे अनन्तगुणित एक द्रव्य ही तो विषय रूपसे सम्भव है। ( अर्थात वर्तमान पर्यायसे युक्त द्रव्य ही तो विषय होता है, न कि द्रव्य-विहीन केवल पर्याय ।) ध १३/५,५,७/१६६/८ कधं उजुसुदे पज्जवठ्ठिए दव्वणिक्वेबसंभवो। ण असुद्धपज्जवहिए वंजणपरजायपरतते सुहमपज्जायभेदेहि जाणत्तमुवगए तदविगेहादो । = प्रश्न-ऋजुसूत्रनय पर्यायार्थिक है, उसका विषय द्रव्य निक्षेप होना कैसे सम्भव है। उत्तर-नहीं, क्योकि, जो व्यंजन पर्यायोके आधोन है और जो सूक्ष्मपर्यायों के भेदोके आलम्बनसे नानात्यको प्राप्त है, ऐसे अशुद्ध पर्यायाथिकनयका विषय द्रव्य निक्षेप है, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता है। (ध.१३/५,४,७/४०/२) । क. पा./१/१,१३-१४/१२१३/२६३/४ ण च उजुसुदो (सुदे) [ पज्जवहिए ] णए दव्वणिक्खेबो ण संभवइः [वंजणपज्जायरवेण] अवठ्यिस्स वत्थुस्स अणेगेसु अत्थविजणपज्जाएसु संचरंतस्स दबभावुवलं भादो। • सव्वे (सुद्धे ) पुण उजुसुदे णस्थि दव्यं य पज्जायप्पणाये तदसंभवादो। यदि कहा जाय कि ऋजुसूत्रनय तो पर्यायार्थिक है, इसलिए उसमें द्रव्य निक्षेप सम्भव नहीं है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ अर्पित (विवक्षित ) व्यंजन पर्यायकी अपेक्षा अवस्थित है और अनेक अर्थपर्याय तथा अवान्तर व्यंजनपर्यायोंमें संचार करता है (जैसे मनुष्य रूप व्यंजनपर्याय बाल, युवा, वृद्धादि अवान्तर पर्यायोंमें) उसमें द्रव्यपनेकी उपलब्धि होती ही है, अतः ऋजुसूत्रमें द्रव्य निक्षेप बन जाता है। परन्तु शुद्ध ऋजुसूत्रनयमें द्रव्य निक्षेप नहीं पाया जाता है, क्योकि उसमें अर्थपर्यायको प्रधानता रहती है। (क. पा.१/१,१३-१४/७२२८/ २७६/३।। (और भी दे० निक्षेप/३/३ तथा नय/III/५/६) । ५. ऋजुसूत्रमें स्थापना निक्षेप क्यों नहीं ध.६/४.१,४६/२४५/२ क ट्ठवणणिक्खेवो ण त्थि । संकप्पयसेण अण्णस्स दव्वस्स अण्णसरूवेण परिणामाणुवलं भादो सरिसत्तणेण दवाणमेगत्ताणुवलंभादो। सारिच्छेण एगत्ताणभुवगमे क णाम-गणण-गंधकदीणं संभवो। ण तब्भाव-सारिच्छसामष्णेहि विणा वि वट्टमाणकालविसेसप्पणाए वितासिमस्थित्तं पडि विरोहाभावादो। -प्रश्नस्थापना निक्षेप ऋजुसूत्रनयका विषय कैसे नहीं उत्तर-क्योंकि एक तो संकल्पके वशसे अर्थात् कल्पनामात्रसे एक द्रव्यका अन्यस्वरूपसे परिण मन नहीं पाया जाता ( इसलिए तद्भव सामान्य रूप एकताका अभाव है); दूसरे सादृश्य रूपसे भी द्रव्यो के यहाँ एकता नहीं पायी जाती, अत' स्थापना निक्षेप यहाँ सम्भव नहीं है। (ध. १३/५,५,७/१६६/६) । प्रश्न-सादृश्य सामान्यसे एकताके स्वीकार न करनेपर इस नयमें नामकृति गणनाकृति और ग्रन्थकृतिकी सम्भावना कैसे हो सकती है। उत्तर-नहीं; क्यो कि, तद्भावसामान्य और सादृश्य सामान्यके बिना भी वर्तमानकाल विशेषकी विवक्षासे भी उनके अस्तित्वके प्रति कोई विरोध नहीं है। क. पा. १/१,१३-१४/६ २१२/२६२/२ उजुसुदविसए किमिदि ठवणा ण चस्थि (णत्थि)। तत्थ सारिच्छलक्रवणसामण्णाभावादो। ण च दोह लक्खणसंताणम्मि वट्टमाणाणं मारिच्छविरहिएण एगत्तं संभवइ, विरोहादो। असुद्धेसु उजुसुदेसु बहुएमु घडादिअत्येसु एगसण्णिमिच्छतेसु सारिच्छलक्खणसामण्णमथि त्ति ठवणाए संभवो किण्ण जायदे । होदु णाम सारित्तं; तेण पुण [णियत्तं ]; दब्व-खेत्तकालभावेहि भिण्णाणमेयत्तविरोहादो। ण च बुद्धीए भिण्णत्थाणमेयत्तं सक्किज्जदे [ काउं तहा ] अणुवलं भादो। ण च एयत्तेण विणा ठवणा संभव दि, विरोहादो।प्रश्न-जुसूत्रके विषयमें स्थापना निक्षेप क्यों नहीं पाया जाता है । उत्तर-क्योंकि, ऋजुसूत्रनयके विषयमें सादृश्य सामान्य नही पाया जाता है। प्रश्न-क्षणसन्तानमें विद्यमान दो क्षणों में सादृश्यके बिना भी स्थापनाका प्रयोजक एकत्व बन जायेगा। उत्तर-नहीं; क्योंकि, सादृश्यके विना एकत्वके मानने में विरोध आता है। प्रश्न-'घट' इत्याकारक एक संज्ञाके विषयभूत व्यंजनपर्यायरूप अनेक घटादि पदार्थों में सादृश्यसामान्य पाया जाता है, इसलिए अशुद्ध ऋजुसूत्र नयोंमें स्थापना निक्षेप क्यों सम्भव नहीं ! उत्तर-नहीं; क्योंकि, इस प्रकार उनमें सादृश्यता भले ही रही आओ, पर इससे उनमें एकत्व नहीं स्थापित किया जा सकता है; क्योंकि, जो पदार्थ ( इस नयकी दृष्टिमें) द्रव्य क्षेत्र काल और भावको अपेक्षा भिन्न हैं (दे० नय/IV/३) उनमें एकत्त्व माननेमें विरोध आता है। प्रश्न-भिन्न पदार्थोको बुद्धि अर्थात् कल्पनासे एक मान लेंगे। उत्तर-यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि, भिन्न पदार्थों में एकत्व नहीं पाया जाता है, और एकत्वके बिना स्थापनाकी संभावना नही है; क्योंकि, ऐसा माननेमें विरोध आता है। (क. पा. १/१,१३-१४/ २२८/२७८/१); (ध. १३/५,५,७/१६६/६ ) । ६. शब्दनयोंका विषय नामनिक्षेप कैसे ध.१/४,१,५०/२४५/४ होर्दु भावकदो सद्दणयाणं विसओ, तेसिं विसए दवादीणमभावादो। कितु ण तेसि णामकदी जुज्जदे, दवट्ठियणय मोत्तूण अण्णत्थ सण्णासण्णिसर्वधाणुववत्तीदो। खणक्खइभावमिच्छताणं सण्णासंबधा माघडंतु णाम । कितु जेण सद्दणया सहजणिदभेदपहाणा तेण सण्णासण्णिसंबंधाणमघडणाए अणत्थिणो। सगभुवगमम्हि सण्णासण्णिसंबंधो अस्थि चेवे ति अज्झवसायं काऊण बबहरणसहावा सद्दणया, तेसिमण्णहा सद्दण्यात्ताणुषवत्तीदो। तेण तिसु सद्दणएमु णामकदी वि जुज्जदे ।-प्रश्न-भावकृति शब्दनयोंकी विषय भले हो हो; क्योंकि, उनके विषयमें द्रव्यादिक कृतियोंका अभाव है । परन्तु नामकृति उनकी विषय नहीं हो सकती; क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयको छोड़कर अन्य (शब्दादि पर्यायाथिक ) नयोंमें संज्ञा-संज्ञी सम्बन्ध बन नही सकता । (विशेष दे० नय/IV/R/S/L) उत्तर-पदार्थको क्षणक्षयी स्वीकार करनेवालों के यहाँ ( अर्थात् पर्यायार्थिक नयोंमे) संज्ञा-संज्ञी संबंध भले ही घटित न हो; किन्तु चूं कि शब्द नये शब्द जनित भेदकी प्रधानता स्वीकार करते हैं (दे० नय/I/8/) अत. वे सज्ञा-संज्ञी सम्बन्धोंके (सर्वथा) अघटनको स्वीकार नहीं कर सकते। इसीलिए (उनके ) स्वमतमें संज्ञा-संज्ञीसम्बन्ध है ही. ऐसा निश्चय करके शब्दनय भेद करने रूप स्वभाववाले हैं; क्यों कि, इसके बिना उनके शब्दनयत्व ही नहीं बन सकता। अतएव तीनों शब्दनयों में नामकृति भी उचित है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy