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________________ कारण १ २ ३ ४ ५ ६ द & १ २ ३ अन्य अन्यको रूपने रूप नहीं कर सकता। अन्य स्वयं अन्य रूप नहीं हो सकता । निमित्त किसी अनहोनी शक्ति उत्पन्न नहीं कर १ सकता । स्वभाव दूसरेकी अपेक्षा नहीं रखता । परिणमन करना द्रव्यका स्वभाव है । उपादान अपने परियमन स्वतन्त्र है। प्रत्येक पदार्थ अपने परिणामनका कर्ता स्वय है। पर कठो दूसरा द्रव्य उसे निमित हो सकता है नहीं । २. उपादानकी कथंचित् प्रधानता ३ सत् अहेतुक होता है । सभी कार्य कथचित् निर्हेतुक है--दे० नय/ IV/३/६ उपादानके परिणमनमें निमित्त प्रधान नही है । परिणमनमें उपादानकी योग्यता ही प्रधान है। यदि योग्यता ही कारगा है तो सभी पुद्गल युगपत् कर्मरूपसे क्यों नहीं परिणम जाते ३० भन्५ । कार्य ही कथंचित् स्वयं कारण है -- दे० नय / IV / २ / ६.३/० । काल आदि लब्धिसे स्वयं कार्य होता है। -- दे० नियति । निमित्त सद्भावमें भी परिणमन तो स्वतः ही होता है । ३. उपादानकी कथंचित् परतंत्रता -३० कर्ता । ३। --दे० सत् । उपादानके अभाव में कार्यका भी अभाव । उपादानसे ही कार्यकी उत्पत्ति होती है । अन्तरंग कारण ही बलवान् है। विश्वकारी कारण भी अन्तरंग ही है। निमित साध पदार्थ अपने कार्यके प्रति स्वयं समर्थ नहीं कहा जा सकता । व्यावहारिक कार्य करनेमें उपादान निमितों के अधीन है जैसा जैसा निमित्त मिलता है सा-वैसा ही कार्य होता है । उपादानको ही स्वयं सहकारी नही माना जा सकता । ||| निमित्तकी कथचित् गोणता मुख्यता १. निमित्त कारण के उदाहरण १ पर क्योंका परस्पर उपकार्य उपकारक भाव । २ द्रव्य क्षेत्र काल भवरूप निमित्त । Jain Education International ५२ * * ३ ४ ५ २. निमित्तकी कथंचित् गौणता १ २ ३ ६ ८ १० ११] १२ ३. २ ४ ५ ६ --३० धर्माधर्म/२/३० बर्मास्तिकायकी प्रधानता कालयकी प्रधानता -दे० काल / २ । सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति में निमित्तों की प्रधानता -- दे० सम्यग्दर्शन / III/२ । निमित्तकी प्रेरणा से कार्य होना । निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध अन्य सामान्य उदाहरण । सूचीपत्र सभी कार्य निमित्तका अनुसरण नहीं करते । धर्मादिक द्रव्य उपकारक है प्रेरक नहीं। अन्य भी उदासीन कारण धर्म द्रव्यवत् जानने । विना उपादानके निमित कुछ न करे । सहकारीको कारण कहना उपचार है । सहकारीकारण कार्यके प्रति प्रधान नहीं है। सहकारीको कारण मानना सदोष है । सहकारीकारण अहेतुवत् होता है । सहकारीकारण निमित्तमात्र होता है। परमार्थसे निमित्त अकिंचित्कर व हेय है । भिन्नकारण वास्तव में कोई कारण नहीं । द्रव्यका परिणमन सबंधा निमित्ताधीन मानना दिया है। उपादान अपने परिणमनमें स्वतन्त्र है - दे० कारण /11/९ कर्म व जीवगत कारणकार्यमाव की गौणता जीव भावको निमितमात्र करके पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणामता है अनुभागोदयमें हानि वृद्धि रहनेपर भी ग्यारहवे गुणस्थानमें जीवके भाव अवस्थित रहते है। जीवके परिणामोको सर्वथा कर्माभीन मानना मिथ्या है। -३० कारण / 111/२/१२। जीव व कर्ममें बध्य घातक विरोध नही है । कर्म कुछ नहीं कराते जीव स्वयं दोषी है ० विभाव शानी कर्मके मन्द उदयका तिरस्कार करनेको समर्थ है। दे० कारण/ IT/२/७ विभाव कथंचित् अहेतुक है । -दे० विभाग/४। जीव व कर्ममें कारण कार्य सम्बन्ध मानना उपचार है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only ज्ञानियोंको कर्म अकिंचित्कर है । मोक्षमार्गमै आरमपरिणामको विमा प्रधान है, कर्मके परिणामोंकी नही । क्रमोंके उपशमय उदय आदि अवस्थाएँ भी कथंचित् भयलसाध्य हैं । www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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