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________________ निःशंकित ज्ञानपूजातपश्चरणादिकरण ... .टी./४१/१०१/४ इहलोक परलोकाशरूपगाकार, सानिदानत्यागेन केवलज्ञानायनन्तगुणव्यतिरमोक्षार्थ निष्काक्षागुणः कथ्यते । • इति व्यवहार निष्काडू क्षितगुणो विज्ञान तव्य । = इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी आशारूप भोगाकांक्षानिदानके त्यागके द्वारा केवलज्ञानादि अनन्तगुणोकी प्रगटतारूप मोक्षके लिए ज्ञान, पूजा, तपश्चरण इत्यादि अनुष्ठानोंका जो करना है, वही निष्कांक्षित गुण है। इस प्रकार व्यवहार निष्कांक्षित गुणका स्वरूप जानना चाहिए । २. निश्चय लक्षण प्र. सं./टी./४१/१०२/८ निश्चयेन पुनस्तस्यैष व्यवहारनिष्कासा गुणस्य सहकारिश्वेन दृश्यभयागेन निश्चयरत्नभावनोत्पन्नमारमाथि कामोत्थामृतरसे चित्ससंतोष स एवं निष्काहातून इति । निश्चयसे उसी व्यवहार निष्कांक्षा गुणकी सहायता से देखे सुने तथा अनुभव किये हुए जो पाँचों इन्द्रियों सम्बन्धी भोग हैं इनके त्यागसे तथा निश्चयरत्नत्रयकी भावनाये उत्पन्न जो पारमार्थिक निजात्मोत्थ सुखरूपी अमृत रस है, उसमें चित्तको संतोष होना निष्कांक्षागुण है। २. क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि सर्वथा निष्कांक्ष नहीं होता दे. अनुभाग २/६/३ (सम्यक्रय प्रकृतिके उदय वश वेदक सम्यग्दृष्टिकी स्थिरता व निष्कक्षिता गुणका बात होता है।) * मोगाकांक्षा के बिना भी सम्यग्दष्टि प्रवादि क्यों करता 'दे० राग/६ । * अभिलाषा या इच्छाका निपेध - दे. राग । निःशंकित - १. निःशंकित गुणका लक्षण १. निश्चय लक्षण- सप्तभय रहितता स.सा./ /१२ सम्मदिट्ठी जीवा जिसका होति विन्धया। सतभयविमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका | २२८ | सम्यग्दृष्टि जीव निशंक होते हैं. इसलिए निर्भय होते हैं। क्योंकि वे भयों से रहित होते हैं इसलिए निःशंक होते हैं (रा. वा./६/२४/१/५२६/०) (चा. सा./४/३ ) ( पं. ध. /उ. / ४८९ ) । 4 स.सा./आ / २२७/क. १५४ सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कतु क्षमन्ते पर, यद्वजेऽपि पतश्वमी भवतालोक्यमुक्तवनि। सर्वामेव निसर्गनि भयतया शङ्कां विहाय स्वयं जागन्छ स्वगयोधनपुर्योधाय वन्तो न हि । ९५४ | जिसके भयसे चलायमान होते हुए, तीनों लोक अपने मार्ग को छोड देते हैं ऐसा पात होनेपर भी ये सम्पतिजीव स्वभावतः निर्भय होने, समस्त शंकाको छोड़कर स्वयं अपनेअवध्य ज्ञानशरीरी जानते हुए, ज्ञानसे च्युत नहीं होते। ऐसा परम साहस करनेके लिए मात्र सम्बन्दृष्टि ही समर्थ है। विशेष ३० सं ९८६ सा. / आ. / २२८/क. ९५५ - १६० ) । प्र. सं. ४१/१०९ / ९ निश्चयनयेन पुनस्तस्यैव व्यमहारनिशङ्कितगुणस्य सहकारने त्राणगुप्तिव्याधिवेदनाकस्मिकाभिधानभयसप्तर्क मुक्त्वा घोरोपसर्ग परीषहप्रस्तावेऽपि शुद्धोपयोगलक्षण निश्चयरत्नत्रयभावेनैव निशकगुणो ज्ञातव्य इति । = निश्चय नयसे उस व्यवहार निःशंका गुणकी (देखो आगे) सहायतासे इस लोकका भय आदि सात भयाँ (दे० भय) को छोड़कर पोर उपसर्ग तथा परिषोंके आनेपर भी शुद्ध उपयोगरूप जो निश्चय रत्नत्रय है उसकी भावनाको ही निःशंका गुण जानना चाहिए। २. व्यवहार लक्षण - अर्हद्वचन व तत्त्वादिमें शंकाका अभाव मू. आ. / २४८ व य पदव्या एदे जिणदिट्ठा वण्णिदा मए तच्चा । तत्थ भवे जा सका दंसणघादी हवदि एसो । २४८ जिन भगवान् द्वारा Jain Education International = निःशंकित उपदिष्टये भी पदार्थ यथार्थ स्वरूपसे मैने (आ. बहकेर स्वामीने) वर्णन किये हैं। इनमें जो शंकाका होना यह दर्शनको पाटनेवाला पहिला दोष है । र. क. श्रा / ११ इदमेवेदृशमेव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा । इत्यकं पायसाभोवरसन्मार्गेऽसंशया रुचि |११| = वस्तुका स्वरूप यही है और नहीं है, इसी प्रकारका है अन्य प्रकारका नहीं है, इस प्रकारसे जैनमार्ग में तलवारके पानी ( आब) के समान निश्चल श्रद्धान निःशंकित अंग कहा जाता है । (का. अ./मू./ ४१५) । रा.वा./६/२४/९/२२६/६ अर्हदुपदिष्टेमा प्रवचने कमिदं स्याद्रा न बेति शकानिरासो निशङ्कितत्वम् अर्हन्त उपदिष्ट प्रवचन में 'क्या ऐसा ही है या नहीं है इस प्रकारकी शंकाका निरास करना पिना है (चा. सा./१/४): (पू. सि. उ. / २३) (का. अ./ सू./४१४) (अन. ध./२/०२/२००) । प्र. सं./टी./४९/१६६/९० रागाविशेषा अज्ञानं मासत्यवचनकारण दुभयमपि वीतरागसर्वज्ञानां नास्ति ततः कारणात यो पादेयतर मोले मोक्षमार्गे च संशयः संदेहो न कर्तव्य .. इदं व्यवहारेण सम्यक्त्वस्य व्याख्यानम् । = राग आदि दोष तथा अज्ञान ये दोनो असस्य भोलनेके कारण है और ये दोनों ही वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव नहीं हैं, इस कारण उनके द्वारा निरूपित हेयोपादेय तत्त्वमें मोक्षमे और मोक्षमार्ग में भव्य जीवोंको संशय नहीं करना चाहिए। यह व्यवहारनयसे सम्यक्त्वका व्याख्यान किया गया । पं. ४८२ अर्थमादत्र सुत्रार्थे शङ्का न स्यान्मनीषिणाम् । सूक्ष्मान्तरितदूरार्था स्युस्तदास्तिक्यगोचराः । सूक्ष्म अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ सम्यग्दृष्टिको आस्तिक्यगोचर है, इसलिए उसको इनके अस्तित्वका प्रतिपादन करनेवाले आगम में किसी प्रयोजनवश कभी भी शंका नहीं होती है। ते २. निःशंकित अंगकी प्रधानता अन.प./२/०३/२०१ सुरुचिः कृतनिश्चयोऽपि हन्तुं द्विषतमाश्रितः स्पृशन्तम्। उभर्थी जिनवाचि कोटिमाजी रणं योर इम प्रतीते मोहारिक रुचिपूर्वक इनका निश्चय करनेपर भी यदि जिन बचन विषयमें दोनों ही कोटियोंके संशयरूप ज्ञानपर आरूढ रहे. ( अर्थात् वस्तु अंशोंके सम्बन्ध में 'ऐसा ही है अथवा अन्यथा है' ऐसा संशय बना रहे ) तो इधर उधर भागनेवाले घोड़ेपर आरूढ योद्धावत् वैरियों द्वारा मारा जाता है अर्थात मिथ्यात्वको प्राप्त होता है । www ३. क्षयोपशम सम्यग्दृष्टिको कदाचित् तत्वोंमें सन्देह होना सम्भव है। क. पा. ९/११/१२६/३ संसयनिवासाज्यवसायभायगयगण हरदेव पडपट्टमाणसहावा ! - गणधरदेव के संशय विपर्यय और अनध्यवसाय भावको प्राप्त होनेपर (उसको दूर करनेके लिए उनके प्रति प्रवृ करना (दिव्यध्वनिका) स्वभाव है । ३० अनुभाग ४ सम्यग्दर्शनका दान नहीं करनेवाला संदेह सम्यम्प्रकृतिके उदयसे होता और सर्वघातीसंदेह मिथ्यात्व के उदयसे होता है। ★ सम्यग्दृष्टिको कदाचित् अन्ध श्रद्धान भी होता है - दे० श्रद्धान / २ ॥ ★ भयके भेद व लक्षण ४. सम्यग्दष्टिको मय न होनेका कारण व प्रयोजन स.सा./आ/२८८/क. १५५ लोक. शाश्वत एक एष सकलव्यक्तो विविक्तामनचोक स्वयमेन केवलमये लोकमत्येककः लोकोऽयं न जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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