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________________ नरक ५७५ ४. नारकियोंमे सम्भव भाव व गुणस्थान आदि सत्त्व नहीं पाया जाना चाहिए; क्योकि, अन्य गुणस्थान सहित नारकियों में उत्पत्तिका निमित्त कारण मिथ्यात्व नही पाया जाता है। ( अर्थात् मियादृष्टि गुणस्थानमें ही नरकायुका बन्ध सम्भव है, अन्य गुणस्थानों मे नही)। उत्तर-ऐसा नहीं है; क्यो कि, नरकायुके बन्ध बिना मिथ्यादर्शन, अविरत और कषायकी नरकमे उत्पन्न करानेकी सामर्थ्य नहीं है। ( अर्थात नरकायु ही नरकमे उत्पत्तिका कारण है, मिथ्या, अविरति घ कषाय नहीं)। और पहले बंधी हुई आयुका पीछेसे उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन द्वारा निरन्वय नाश भी नहीं होता है, क्योंकि, ऐसा मान लेनेपर आपसे विरोध आता है। जिन्होंने नरकायुका बन्ध कर लिया है, ऐसे जीव जिस प्रकार संयमको प्राप्त नहीं हो सकते है, उसी प्रकार सम्यक्त्वको भी प्राप्त नहीं होते, यह बात भी नहीं है; क्योंकि, ऐसा मान लेनेपर भी सूत्रसे विरोध आता है (दे० आयु/६/७)। ५. वहाँ सासादनकी सम्मावना कैसे है घ.१/१,१,२५/२०५/- सम्यग्दृष्टीनां बद्धायुषां तत्रोत्पत्तिरस्तीति सन्ति तत्रासंयतसम्यग्दृष्टयः, न सासादनगुणवतां तत्रोत्पत्तिस्तद्गुणस्य तत्रोत्पत्त्या सह विरोधात । तहि कथं तद्वतां तत्र सत्त्वमिति चेन्न, पर्याप्तनरकगत्या सहापर्याप्तया इव तस्य विरोधाभावात् । किमित्यपर्याप्तया 'विरोधश्चेत्स्वभावोऽयं, न हि स्वभावा' परपर्यनुयोगार्हाः ।.. कथं पुनस्तयोस्तत्र सत्त्वमिति चेन्न, परिणामप्ररथयेन तदुत्पत्तिसिद्ध। -जिन जीवोंने पहले नरकायुका बन्ध किया है और जिन्हे पीछेसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ है, ऐसे बद्घायुष्क सम्यग्दृथियोंकी नरकमें उत्पत्ति है, इसलिए नरकमे असंयत सभ्यग्दृष्टि भले ही पाये जावे, परन्तु सासादन गुणस्थानवालोंकी मरकर नरकमें उत्पत्ति नहीं हो सकती (दे० जन्म४/१) क्यो कि सासादन गुणस्थानका नरकमें उत्पत्तिके साथ विरोध है। प्रश्न-तो फिर, सासादन गुणस्थानवालोंका नरकमें सद्भाव कैसे पाया जा सकता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार नरकगतिमे अपर्याप्त अवस्थाके साथ सासादन गुणस्थानका विरोध है उसी प्रकार पर्याप्तावस्था सहित नरकगतिके साथ सासादन गुणस्थानका विरोध नहीं है। प्रश्न-अपर्याप्त अवस्थाके साथ उसका विरोध क्यों है। उत्तर-यह नारकियोका स्वभाव है और स्वभाव दूसरोके प्रश्नके योग्य नहीं होते है । ( अन्य गतियों में इसका अपर्याप्त काल के साथ विरोध नहीं है. परन्तु मिश्र गुणस्थानका तो सभी गतियों में अपर्याप्त कालके साथ विरोध है ।) (ध१/१,१,८०/ ३२०/८)। प्रश्न-तो फिर सासादन और मिश्र इन दोनों गुणस्थानोंका नरक गतिमे सत्त्व कैसे सम्भव है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, परिणामोके निमित्तसे नरकगतिकी पर्याप्त अवस्थामें उनकी उत्पत्ति बन जाती है। ६. मर-मरकर पुन:-पुनः जी उठनेवाले नारकियोंकी अपर्याप्तावस्थामें भी सासादन व मिश्र मान लेने चाहिए? ध.१/१,१,८०/३२१/१ नारकाणामग्निसंबन्धाइभस्मसाद्भावमुपगताना पुनर्भस्मनि समुत्पद्यमानानामपर्याप्ताद्धायां गुणद्वयस्य सत्त्वाविरोधानियमेन पर्याप्ता इति न घटत इति चेन्न, तेषां मरणाभावाद । भावे वा न ते तत्रोत्पद्यन्ते ।...आयुषोऽवसाने म्रियमाणानामेष नियमश्चेन, तेषामपमृत्योरसत्त्वात् । भस्मसाद्भावमुपगताना तेषा कथं पुनर्मरणमिति चेन्न, देहविकारस्यायुर्विच्छित्यनिमित्तस्वात। प्रश्न-अग्निके सम्बन्धसे भस्मीभाबको प्राप्त होनेवाले नारकियोंके अपर्याप्त काल में इन दो गुणस्थानों के होने में कोई विरोध नहीं आता है, इसलिए, इन गुणस्थानों में नारकी नियमसे पर्याप्त होते है, यह नियम नहीं बनता है। उत्तर-नहीं; क्योकि, अग्नि आदि निमित्तोंसे नारकियोका मरण नहीं होता है ( दे. नरक/३/६)। यदि नारकियोंका मरण हो जावे तो पुन' वे वहींपर उत्पन्न नहीं होते है (दे० जन्म/६/६ )। प्रश्न-आयुके अन्तमे मरनेवालोके लिए ही यह सूत्रोक्त (नारकी मरकर नरक व देवगतिमे नही जाता, मनुष्य या तिर्यंचगतिमें जाता है) नियम लागू होना चाहिए . उत्तर-नही, क्योंकि नारकी जीवोके अपमृत्युका सद्भाव नहीं पाया जाता (दे० मरण/४) अर्थात नारकियोका आयुके अन्तमे ही मरण होता है, बीचमैं नहीं। ग्रश्नयदि उनकी अपमृत्यु नहीं होती तो 'जिनका शरीर भस्मीभावको प्राप्त हो गया है, ऐसे नारकियों का, (आयुके अन्तमें) पुनर्मरण कैसे बनेगा ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, देहका विकार आयुकर्मके बिनाशका निमित्त नहीं है। (विशेष दे० मरण/२)। ७. वहाँ सम्यग्दर्शन कैसे सम्भव हैं ध. १/१,१,२५/२०६/७ तहि सम्यग्दृष्टयोऽपि तथैव सन्तीति चेन्न, इष्टस्वाद । सासादनस्येव सभ्यग्दृष्टेरपि तत्रोत्पत्तिर्मा भूदिति चेन्न, प्रथमपृथिव्युत्पत्ति प्रति निषेधाभावात् । प्रथमपृथिव्यामिव द्वितीयादिषु पृथिवीषु सम्यग्दृष्टयः किन्नोत्पद्यन्त इति चेन्न, सम्यक्त्वस्य तत्रतन्यापर्याप्ताद्धया सह विरोधात ।-प्रश्न-तो फिर सम्यग्दृष्टि भी उसी प्रकार होते है ऐसा मानना चाहिए । अर्थात सासादनकी भांति सम्यग्दर्शनकी भी वहाँ उत्पत्ति मानना चाहिए ! उत्तर-नहीं; क्योंकि, यह बात तो हमे इष्ट ही है, अर्थात् सातों पृथिवियोकी पर्याप्त अवस्थामें सम्यग्दृष्टियोका सद्भाव माना गया है । प्रश्न-जिस प्रकार सासादन सम्यग्दृष्टि नरकमे उत्पन्न नही होते हैं, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टियोकी भी मरकर वहाँ उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए। उत्तर--सम्यग्दृष्टि मरकर प्रथम प्रथिवीमें उत्पन्न होते है, इसका आगममे निषेध नहीं है। प्रश्न-जिस प्रकार प्रथम पुथिवी में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार द्वितीयादि पुथिवियों में भी सम्यग्दृष्टि क्यों उत्पन्न नहीं होते है। उत्तर-नही; क्योंकि, द्वितीयादि पृथिवियोंकी अपर्याप्तावस्थाके साथ सम्यग्दर्शनका विरोध है। ८. सासादन मिश्र व सम्यग्दृष्टि मरकर नरकमें उत्पन्न नहीं होते । इसका हेतुध. १/१,१,८३/३२३/४ भवतु नाम सम्यग्मिथ्यादृष्टेस्तत्रानुत्पत्तिः । सम्यग्मिथ्यात्वपरिणाममधिष्ठितस्य मरणाभावात् । किन्रवेतन्न युज्यते शेषगुणस्थानप्राणिनस्तत्र नोत्पद्यन्त इति । न तावत् सासादनस्तत्रोत्पद्यते तस्य नरकायुषो अन्धाभावाद । नापि बद्धनरकायुष्क: सासादनं प्रतिपद्य नारकेधूत्पद्यते तस्य तस्मिन गुणे मरणाभावात् । नासंयतसम्यग्दृष्टयोऽपि तत्रोत्पद्यन्ते तत्रोत्पत्तिनिमित्ताभावात् । न तावत्कर्मस्कन्धबहुत्वं तस्य तत्रोत्पत्तेः कारणं क्षपितकाशानामपि जीवानां तत्रोत्पत्तिदर्शनात् । नापि कर्मस्कन्धाणुत्वं तत्रोत्पत्तेः कारणं गुणितकाशानामपि तत्रोत्पत्तिदर्शनात् । नापि नरकगतिकर्मणः सत्त्वं तस्य तत्रोत्पत्तेः कारण तत्सत्त्वं प्रत्यविशेषतः सकलपञ्चेन्द्रियाणामपि नरकप्राप्तिप्रसङ्गात् । नित्यनिगोदानामपि विद्यमानत्रसकर्मणां त्रसेपुत्पत्तिप्रसङ्गात् । नाशुभलेश्यानो सत्त्वं तत्रोत्पत्तेः कारण मरणावस्थायामसंयतसम्यग्दृष्टेः षट् सु पृथिविषूत्पत्तिनिमित्ताशुभलेश्याभावात । न नरकायुष..सत्त्वं तम्य तत्रोत्पत्तेः कारणं सम्यग्दर्शनासिना छिन्नषट्पथिव्यायुष्कत्वात् । न च तच्छेदोऽसिद्ध' आत्तित्सिद्धयुपलम्भात । तत. स्थितमेतत् न सम्यग्दृष्टिः षट्मु पृथिवीपूत्पद्यत इति । -प्रश्न-सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवकी मरकर शेष छह पृथिवियोंमें भी उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणामको प्राप्त हुए जीवका मरण नहीं होता है (दे० मरण/३ )। किन्तु शेष (सासादन व असंयत सम्यग्दृष्टि ) गुणस्थान वाले प्राणी (भी) मरकर वहॉपर उत्पन्न नहीं होते, यह कहना नहीं बनता है। उत्तर१. सासादन गुणस्थानवाले तो नरकमें उत्पन्न ही नहीं होते हैं; क्योंकि, सासादन गुणस्थानबालोके नरकायुका बन्ध ही नहीं होता है जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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